माता-पिता का उपकार
माता-पिता हमें इस संसार में लाकर हम पर बहुत उपकार करते हैं। उनके इस ॠण को मनुष्य आजन्म चुका नहीं सकता। चाहे वह सारी आयु उनकी सेवा करता रहे, उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता। माँ मनुष्य का पालन-पोषण करती है। स्वयं गीले में रहकर हमें सूखे में सुलाती है। वह हर प्रकार से हमारे सुख का ध्यान रखती है। वह हमें अक्षर ज्ञान भी कराती है। इसलिए वह हमारी प्रथम गुरू कहलाती है। वह महान है और पूज्या है। पिता हमारा पोषक है इसलिए उसे आकाश से भी ऊँचा और महान कहा गया है।
हमारे धर्म ग्रन्थ माता-पिता को देवता मानने का आदेश देते हैं। 'तैत्तिरीयोपनिषद्' में मनुष्य को अनुशासित करते हुए कहा हैं -
मातृदेवो भव पितृदेवो भव।
अर्थात् माता को देवता मानो। पिता को देवता मानो।
मन्दिरों में जाकर पत्थर के देवी-देवताओं की हम पूजा करते हैं। मैं इस बात का विरोध नहीं करती। परन्तु घर में बैठे जीवित देवताओं यानी अपने माता-पिता की पूजा करनी चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं कि धूप-अगरबत्ती जलाकर प्रतिदिन उनकी आरती उतारी जाए। इसका अर्थ यह है कि आयु प्राप्त होते हुए माता-पिता की आवश्यकताओं को जान-समझकर उनको पूर्ण किया जाना चाहिए। उनके भोजन, आराम व स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। उनके रोगी होने पर उनका समुचित इलाज करवाना चाहिए।
अपने माता-पिता की अवहेलना करना सर्वथा अनुचित हैं। कुछ बच्चे उनकी सेवा करने के स्थान पर उन्हें दाने-दाने का मोहताज बना देते हैं। घर में उन्हें रहने का ठिकाना भी नहीं देना चाहते। उनकी जरूरतों को पूरा करने में भी वे कोताही बरतते हैं। आजकल विदेशियों की नकल करते हुए कुछ बच्चे अपने माता-पिता को ओल्ड होम में भेज देते हैं जो हमारी भारतीय संस्कृति के अनुसार बहुत ही शोचनीय स्थिति है।
दोनों पति-पत्नी यदि कमाते हैं तो भी माता-पिता को देने के लिए उनके पास पैसे नहीं बचते जबकि उनके अपने खर्च में उनकी कोई कमी नहीं होती। उनके अपने सभी कार्य निश्चित ढर्रे पर चलते रहते हैं। यह एक बहुत ही निन्दनीय स्थिति है। व्यापारियों की हालत भी कोई अधिक अच्छी नहीं है। जमा-जमाया कारोबार सम्हालने पर भी उन्हें अपने ही माँ-पापा बुरे लगने लगते हैं।
बच्चे अपने माता-पिता से सारी उम्मीदें लगाकर रखते हैं। उनके मरने के पश्चात क्रिया कर्म के नाम पर लाखों रुपये अपनी शान बघारने के लिए खर्च कर देते हैं ताकि समाज में उनकी नाक ऊँची रहे। यदि इसमें से कुछ राशि उनके जीवनकाल में उन बुजुर्गों पर खर्च कर दी होती तो उनका आशीर्वाद उन्हें मिलता। यदि बद्दुआऍं फलती हैं तो बड़ों से मिलने वाला आशीर्वाद भी अवश्य ही फलीभूत होता है।
बच्चे अपने माता-पिता से सब कुछ पाना चाहते हैं। उनके पास जो धन-सम्पत्ति या कारोबार आदि है, वह सब समेटना चाहते हैं। वे हर समय माता-पिता को उनके कर्तव्य याद दिलाना चाहते हैं परन्तु वे अपने सारे दायित्वों से विमुख हो जाते हैं। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि जिन माता-पिता को बच्चों के हाथ से जीते-जी पानी भी नसीब नहीं हो पाता उनके मरने के पश्चात उनके बच्चे उनके नाम से पत्थर लगवाकर यश बटोरना चाहते हैं।
अपने बच्चों के समक्ष ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने के स्थान पर उन्हें ऐसे आदर्श सिखाएँ कि वे अपने माता-पिता का अनादर करने का साहस न कर सकें। वे समाज के डर से अपने माता-पिता की सेवा न करें अपितु अपने मन से देवता मानकर माता-पिता की सेवा करें और उनके प्रति अपने दायित्वों को पूरा करें।
कुछ दशक पूर्व संयुक्त परिवारों के चलते बड़े बुजुर्गो की देखभाल सरलता से हो जाया करती थी। घर में चलते-फिरते परिवारी जन उनका ध्यान रख लिया करते थे। बच्चे भी अपने दादी-दादा के सान्निध्य में सुरक्षित महसूस किया करते थे। वे उनके पास बैठकर बातचीत करके, कहानी सुनकरके या उनके साथ खेलकर अपना समय व्यतीत कर लिया करते थे। परन्तु आजकल इच्छा से अथवा विवशता के कारण एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ रहा है। इस कारण समस्याऍं भी अधिक बढ़ने लगीं हैं। फिर भी इसका कोई हल तो निकालना ही होगा।
मैं निराशावादी बिल्कुल नहीं हूँ। आज भी ऐसी योग्य सन्तानें हैं जो अपने माता-पिता के लिए हर सुख का बलिदान कर उनके लिए जीती हैं। हर समय उनके लिए सुख-साधनों को जुटाती रहती हैं। ऐसे ही बच्चों के कारण हमारी सांस्कृतिक विरासत अभी तक बची हुई है और भारतीय पारिवारिक ढाँचा बरकरार है।
चन्द्र प्रभा सूद
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