गुरुवार, 26 जून 2025

गुरु-शिष्य की महत्ता

गुरु-शिष्य की महत्ता

गुरु की महत्ता का गुणगान प्रायः हम सभी करते हैं परन्तु शिष्य के महत्त्व की चर्चा करते समय हम कंजूस हो जाते हैं। यदि शिष्य है तभी तो गुरु का अस्तित्व है। शिष्य के बिना गुरु का आधार नहीं और गुरु के बिना शिष्य अपूर्ण है। यह बात हम भूल जाते हैं कि दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है और दूसरे के बिना पहला। इसीलिए जब हम गुरु शब्द कहते हैं तो उसी समय हमें शिष्य का भी स्मरण होने लगता है। इसी प्रकार शिष्य कहते ही गुरु का भान होने लगता है।
             वैसे यदि हम विचार करें तो पाएँगे कि गुरु के साथ-साथ शिष्य के महत्त्व को भी कम नहीं ऑंकना चाहिए । गुरु का कार्य होता है कच्ची मिट्टी के समान शिष्य को अपने सद् विचारों के अनुरूप ढालकर, मनचाहा आकार देकर उसे योग्य बनाए। इस प्रसंग में मुझे सन्त कबीरदास जी का निम्न दोहा स्मरण आ रहा है जो गुरु-शिष्य के सम्बन्धों पर प्रकाश डालता है -
    गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
      अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥ 
अर्थात् कबीरदास जी कहते हैं गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़े के समान है। जैसे कुम्हार घड़े को भीतर से हाथ का सहारा देकर बाहर से चोट मारकर उसे सही आकार देता है, उसी प्रकार गुरु भी शिष्य की बुराइयों पर प्रहार करके शिष्य के जीवन को सही रुप प्रदान करता है।
             यानी कहने का तात्पर्य यही है कि गुरु शिष्य के जीवन को तराशता है। उसका सर्वांगीण विकास करता है और उसे एक नया रूप प्रदान करता है। शिष्य का भी कर्तव्य बनता है कि वह गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान को अपने जीवन में ढाले। उसका विस्तार करके समाज को एक नई दिशा दिखाए। इसी प्रकार ही पुरातनकाल से चली आ रही इस गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वहण होता आया है। इस प्रकार दोनों को ही एक-दूसरे के माध्यम से यश प्राप्त होता है।
            यदि गुरु चरित्रवान होगा तो उसके शिष्यों में भी वही संस्कार आएँगे और वे सुसंस्कृत बनेंगे। इसके विपरीत यदि गुरु अपने गुरुत्व को ताक पर रखकर दुराचारी, अनाचारी व पथभ्रष्ट होगा तो शिष्य उससे भी बढ़कर कुमार्गगामी होंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव उनके बच्चों पर पड़ता है, उसी प्रकार गुरु के संस्कारों का प्रभाव भी उसके शिष्यों पर पड़ता है। इस बात से कदापि इन्कार नहीं किया जा सकता।
             इसीलिए गुरु से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने जीवन को शिष्यों के समक्ष उदाहरण की भाँति प्रस्तुत करे ताकि उसके शिष्य उसके बताए हुए मार्ग पर चलकर गौरव का अनुभव करें। समाज में उनकी भी प्रतिष्ठा बढ़े। लोग उनके गुरु का और उनका नाम श्रद्धा से लें, न कि हिकारत से। उन्हें अपने गुरु के कुमार्गगामी होने अथवा उसके कुकृत्यों के कारण समाज में कभी भी तिरस्कृत का पात्र न बनना पड़े।
              मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे शिष्य को पाकर ऐसा कौन-सा ऐसा गुरु होगा जो निहाल नहीं होगा। हर गुरु ऐसा ही शिष्य को पाने की कामना करता है जो उसके जीवन को धन्य कर दे और युगों-युगों तक उसका नाम इतिहास के पन्नों में अमर कर दे।       
            गोरखनाथ जी जैसे शिष्य धन्य हैं। उन्होंने तो अपने गुरु मछन्दर दास को ही तार दिया। गुरु मच्छन्दर दास जी राज्य पाकर भोग-विलास में डूब गये थे। शिष्य गोरखनाथ जी को अपने गुरु के इस आचरण पर बहुत दुख हुआ। वे उन्हें उस राजसी जीवन से बचाकर वापिस वैराग्य जीवन में लौटाकर ले लाए।
            शिष्य बालक आरुणि की जंघा पर एक बार गुरुदेव सो रहे थे। आरुणि को एक कीड़े ने काट लिया। वह पीड़ा से व्याकुल हो गया। परन्तु वह केवल इसलिए हिलाडुला नहीं कि कहीं उसके गुरु की नींद न टूट जाए।
            गुरु आचार्य चाणक्य को भी चन्द्र गुप्त मौर्य जैसे शिष्य की ही तलाश थी जो बिना कोई प्रश्न किए, अपने गुरु के हर आदेश का अक्षरशः पालन करे। उनके अखण्ड भारत के स्वप्न को साकार करे। चन्द्र गुप्त ने उनकी इस इच्छा का मान रखते हुए उनके स्वप्न को साकार किया।
            गुरु श्री विरजानन्द जी बहुत सौभाग्यशाली थे जिन्हें स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसा शिष्य मिला। उन्होंने भारत में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने और समाज को जागृत करने के अखण्ड मण्डिनी पताका फहराई। उन्होंने अपने गुरु को भी इतिहास के पन्नों में अमर कर दिया।
           इतिहास ऐसे योग्य शिष्यों के महत्त्वपूर्ण सत्कार्यों के उदाहरणों से भरा हुआ है जिनके कारण उनके गुरु अमर हो गए। आज भी हम उन अभूतपूर्व प्रतिभाशाली शिष्यों को याद करके श्रद्धावनत हो जाते हैं। उन्होंने स्वयं को तो अमर बनाया ही, साथ-साथ अपने गुरुओं को भी अमर कर दिया। बस उनको ढूँढने की आवश्यकता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

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