दाता का हाथ हमेशा ऊपर
सृष्टि का यह नियम है कि दाता यानी दानी का हाथ हमेशा ऊपर होता है और याचक यानी लेने वाले का हाथ सदा ही नीचे रहता है। यही बात प्रकृति के व्यवहार से हमें स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। हमारे समक्ष प्रत्यक्ष उदाहरण बादल का है। यह तो हम सब जानते हैं कि बादल हमारी जीवनी शक्ति जल को हमें प्रदान करता है इसलिए वह ऊपर आकाश में रहता है। इसके विपरीत पृथ्वी जल लेने वाली होती है। अतः वह नीचे होती है।
हम अपने आसपास पेड़ों की ओर एक नजर डालें तो हमें स्वयं ही समझ आ जाता है कि वे हमें शीतल छाया, हवा और मधुर फल देते हैं। वे सिर उठाकर ऊपर की ओर रहते हैं और हम याचक की भाँति उन्हें नीचे धरा पर खड़े रहकर उन्हें निहारते का काम करते हैं। जिससे भी हम याचना करते हैं उसके समक्ष हमारी नजरें भी झुकती हैं और हाथ भी आगे की ओर फैलाना पड़ता है अर्थात् मनुष्य को नीचा होना पड़ता है। दानी को किसी की भी सहायता करना एक सुखद अहसास देता है। दूसरी ओर याचना करने वाले की सिर झुका हुआ रहता है।
प्रायः लोग जब बहुत ही मजबूरी या तकलीफ में होते हैं तो उन्हें माँगने की या किसी की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। उस समय वह पल स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए मरने के समान होता है। कहते भी हैं-
माँगन गए सो मर गए मरकर माँगन जाए।
कुछ लोग जो चाटुकारिता प्रिय होते हैं अथवा मेहनत करके कमाना नहीं चाहते, उन्हें किसी से माँगने से कोई परहेज नहीं होता। उसी की बदौलत उनका जीवन यापन होता है। उन लोगों को अपने मान-सम्मान की कोई परवाह नहीं होती। उनके जीवन का तो यही एक मूल मन्त्र होता है-
बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया।
वे लोग किसी भी शर्त पर धन प्राप्त करने की सोचते हैं, बाकी सब उनकी नजर में बेमानी हो जाता है। ऐसे लोग गधे को बाप बनाने से नहीं चूकते।
स्वाभिमानी व्यक्ति हाथ का मैल कहे जाने वाले धन को मिट्टी के ढेले के समान तुच्छ समझते हैं। वे केवल आत्म सम्मान को ही महत्व देते हैं।
दानी व्यक्ति को अपनी प्रशंसा में हमेशा प्रशस्तियाँ नहीं गानी चाहिएँ। यदि सारा समय वह यहाँ-वहाँ अपनी उदारता का ढिंढोरा पीटता रहेगा तो उसमें अहंकार की भावना आ जाती है। यह घमण्ड उसके विनाश का कारण बन जाता है। तब उसकी गई सहायता का कोई मूल्य नहीं रह जाता। यदि वह उसे पुनः पुनः जताकर सहायता लेने वाले को शर्मिंदा करे। उसे हमेशा यह उक्ति याद रखनी चाहिए -
नेकी कर और दरिया में डाल।
मनीषी कहते हैं कि दाऍं हाथ से दान करो, और बाऍं हाथ को पता न चले। इस वाक्यांश है अर्थ है कि दान या किसी अन्य अच्छे काम को करते समय, इसे सार्वजनिक नहीं करना चाहिए। यानी दूसरों को बताने की आवश्यकता नहीं होती। इस वाक्यांश का मुख्य उद्देश्य किसी को भी अपने अच्छे कार्यों का प्रचार करने से रोकना है। दूसरी यह बात है कि जिसकी सहायता की है, उसे शर्मिंदगी का सामना न करना पड़े।
प्रकृति नित्य प्रति हमें भरपूर देती है परन्तु कभी अहसान नहीं जताती। जितने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते उससे भी कहीं अधिक वह हमें देती है। यदि वह जताती तो संसार पलभर में नष्ट हो जाता इतने वर्षों तक नहीं चलता। प्रकृति की ही तरह मनुष्य को देते समय यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि वह देने वाला है। दाता होने का अहं त्यागकर उसे सोचना चाहिए कि देने वाला तो ईश्वर है जो अदृश्य रहकर मानव के मन में प्रेरणा देता है, तभी वह दानादि जैसे पुण्य कर्म करता है। मनुष्य तो केवल उस मालिक के हाथों की कठपुतली है और यही सत्य है। उसे हमेशा विनम्र रहना चाहिए।
हमें अपनी शुद्ध कमाई से कुछ अंश बचाकर दूसरों की सहायता करनी चाहिए। समाज लेन-देन के व्यवहार से चलता है। ज़रूरतमन्दों को समर्थ बनाने हमें का यत्न करना चाहिए। देते समय दाता होने का भाव मन से निकालकर नजरें झुकाकर रखनी चाहिए। उस ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए, उसने हमें इस योग्य बनाया है कि हम किसी दूसरे के काम आ सके।
चन्द्र प्रभा सूद
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