गृहस्थ आश्रम सर्वोपरि
भारतीय संस्कृति में समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था का विधान किया गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं। आश्रम भी चार हैं - ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम। आज हम गृहस्थ आश्रम के विषय में चर्चा करेंगे। भारतीय सामाजिक परिवेश में गृहस्थ आश्रम का महत्व शेष तीनों आश्रमों- ब्रह्मचर्य आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम से अधिक है। इसका सीधा-सा कारण यह है कि गृहस्थ आश्रम अन्य तीनों आश्रमों का पालन करता है।
ब्रह्मचर्य आश्रम में शिक्षा ग्रहण की जाती है। विद्यार्थी अभी आजीविका कमाने के योग्य नहीं होता। इसलिए वह अपना भरण-पोषण नहीं कर सकता और अपने माता-पिता पर आश्रित रहता है।वानप्रस्थ आश्रम अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर सामाजिक कार्यों में जुटने का समय होता है। सारी आयु संघर्ष करने के उपरान्त घर-परिवार की कमान अपने योग्य बच्चों को सौंपकर ईश्वर की ओर उन्मुख होने का प्रयास करना आवश्यक होता है। अत: रिटायर्ड लाइफ व नाती-नातिनों के साथ जीवन का आनन्द उठाना एक अलग प्रकार का ही अनुभव होता है।
संन्यास आश्रम में जाने पर घर-परिवार का परित्याग करके समाज को दिशा देने का कार्य किया जाता है। संन्यासी स्वाध्याय करके मनन करते हैं व ईश्वर की उपासना में जुटे रहते हैं। इस समय वे अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर लेते हैं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ये पूज्यनीय व्यक्ति गृहस्थियों पर ही आश्रित रहते हैं। ये संन्यासी एक स्थान पर अधिक समय नहीं रुकते।
गृहस्थी का मूल आधार पति-पत्नी होते हैं।इन दोनों के सम्बन्धों में जितनी अधिक मधुरता होती है, घर-परिवार में उतना ही सौहार्द होता है।अब प्रश्न यह उठता है कि पति-पत्नी के सम्बन्ध कैसे होने चाहिए? 'रघुवंशम्' महाकाव्य में संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास ने भगवान शिव और भगवती पार्वती को आदर्श पति-पत्नी मानते हुए उनकी स्तुति की है-
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये।
जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।
अर्थात् जिस प्रकार शब्द और अर्थ आपस में मिले हुए होते हैं, उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। वैसे ही माँ भगवती और भगवान शिव की एक-दूसरे के बिना कल्पना करना सम्भव नहीं है। संसार के माता-पिता शिव और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ।
हमारे भारत में आदर्श पति-पत्नी के उदाहरण स्वरूप शिव-पार्वती, राम-सीता आदि का उल्लेख किया जाता है। उन्हें आदर्श मानते हुए हम उनकी पूजा-अर्चना करते हैं।
गृहस्थी की गाड़ी सुचारू रूप से चलाने वाले पति-पत्नी का आपसी व्यवहार सन्तुलित, दुराव-छिपाव रहित, निष्ठापूर्ण, सामंजस्य पूर्ण और परस्पर मित्रवत् होना चाहिए। यही एक आदर्श स्थिति है। दोनों को अपने-अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर एक-दूसरे का सच्चा हमसफर बनना चाहिए। यदि गुरु नानक देव जी के शब्दों में कहें तो उचित होगा-
एक ने कही दूसरे ने मानी।
नानक कहें दोनों ज्ञानी।
इस तरह के परिवारों में सुख, शान्ति व समृद्धि का वास होता है। इन घरों की तुलना स्वर्ग से की जाती है। इन घरों के बच्चे आज्ञाकारी व यशस्वी होते हैं। हम सभी प्रबुद्ध जन मन से विचार करेंगे तो ऐसा समझ में आएगा कि आधुनिक परिवेश में आज सद्गृहस्थियों की बहुत आवश्यकता है। सामाजिक ढॉंचा चरमराने न पाए इसका हमें ही ध्यान रखना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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