सन्त समाज का आईना
सन्त समाज का आईना व मार्गदर्शक होते हैं। साधु-सन्तों की जाति नहीं पूछी जाती बल्कि उनका ज्ञान परखा जाता है। इस विषय में कबीरदास जी ने कहा है-
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
अर्थात् साधु लोगों की जाति न पूछकर उनके ज्ञान की जानकारी लेनी चाहिए। उदाहरण देते हुए कहते हैं कि तलवार का मोलभाव करना चाहिए, उसकी म्यान का नहीं।
जिसे हम वास्तव में सन्त कहते हैं वह संसार के बन्धनों से मुक्त होता है। ऐसा सन्त झूठ-फरेब, ईष्या-द्वेष, मोह-माया आदि सांसारिक बन्धनों में नहीं बॅंधता। वह सभी मनुष्यों को अपने समान ही समझता है। वह किसी आडम्बर या अपने नाम की इच्छा नहीं रखता। ऐसा सच्चा सन्त ही समाज का आभूषण कहलाता है। वह अनाम रहकर आत्मोन्नति के लिए समाज से कटकर जंगलों, पर्वतों या गुफाओं साधना करते हुए कैवल्य या मोक्ष प्राप्त करता है। और यदि वह समाज में रहता भी है तो भौतिक ऐश्वर्यों का त्याग करके समाज की भलाई के कार्य करते हुए इस संसार से विदा लेता है।
कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में मनस्वी जनों को परिभाषित किया है।
कुसुमस्तबकस्यैव द्वे वृत्ती तु मनस्वीनाम्।
सर्वेषां मूर्ध्नि वा विराजयेत् वने वा विशीर्यात्।
अर्थात् कवि कहते हैं कि वास्तव में मनस्वी सन्त फूलों के गुच्छे की तरह होते हैं। वे जब शहर में रहते हैं तो सबके सिरों पर विराजमान होते हैं। यानी लोग उन्हें अपने सिर ऑंखों पर बिठाते हैं। यदि वे जंगलों में तपस्या करते हैं तो बिना किसी से प्रशंसा की अपेक्षा किए या किसी की नजर में आए नष्ट हो जाते हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्त करते हैं।
सन्त समाज में अपने सत्चरित्र और गुणों से सर्वत्र अपनी सुगन्ध फैलाते हैं। सदा सन्तों को हम उनके सद् गुणों, संयम, आचार-व्यवहार, उनकी कथनी-करनी के एकरूप होना आदि गुणों से पहचान सकते हैं। इनके विपरीत चरित्र वाले साधु-सन्त नहीं हो सकते।
सन्त का जीवन जब क्रियात्मक और संयमी नहीं होगा तब तक उसके उपदेश का किसी पर प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए सन्त को पहचान कर, जाँच-परखकर उस पर विश्वास करना उचित होता है। दूसरे लोगों की चिकनी-चुपडी बातों में न उलझकर अपने विवेक पर भरोसा करना चाहिए। आपकी तर्क की कसौटी पर जो खरा उतरे उसे सन्त मान अनुसरण करें अन्य सभी को छोड दें।
जो सन्त समाज को सही दिशा नहीं दे सकता अथवा दिग्दशर्क नहीं बन सकता तो ऐसा वह त्याज्य है व सम्मान प्राप्त करने के योग्य नहीं हो सकता। सन्त की कोई उपाधि नहीं होती। न ही उसके लिए कोई विशेष मापदण्ड होता है। उसके लिए किसी विद्वत परिषद के गठन की भी कोई आवश्यकता नहीं होती।
सन्त यदि केवल पुस्तकीय ज्ञान या कुछ सिद्धियों के बल पर जन सामान्य को प्रभावित करता है परन्तु यदि उसका आचरण अनुकरणीय नहीं है तो वह सर्वथा त्याज्य है। पुस्तकीय ज्ञान तो गधे पर लादे बोझ की तरह होता है। यदि उसे पढ़कर उस पर मन, वचन व कर्म से आचरण न किया जाए तो वह भार बन जाता है। तभी 'पंचतन्त्र' में कवि ने कहा है-
ज्ञानं भार: क्रियां विना।
अर्थात् यदि जीवन क्रियात्मक न हो तो ज्ञान भार बन जाता है।
साधु-सन्तो की कसौटी उनके सद् गुण और उनका सदाचरण होती है। अपने विवेक रूपी निकष पर कसकर ही सन्तों को अपने सिर का ताज बनाएँ और अपने जीवन को धन्य करने का यत्न करें।
चन्द्र प्रभा सूद
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