शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

रुचिकर सुनने की चाहत

रुचिकर सुनने की चाहत

हमें जो रुचिकर लगता है वही हम सुनना चाहते हैं। हम यह कदापि नहीं चाहते कि कोई व्यक्ति हमारी आलोचना करे। इसे हम एक इन्सानी कमजोरी कह सकते हैं कि मनुष्य अपने प्रिय-से-प्रिय व्यक्ति का भी हस्तक्षेप अपने किसी भी मामले में पसन्द नहीं करता। उस समय उसे ऐसा लगता है कि कोई दूसरा व्यक्ति अनावश्यक ही हमारी स्वतन्त्रता में बाधक बन रहा है। यह बात हमें किसी भी तरह से सह्य नहीं होती। तब हम उस व्यक्ति की शक्ल भी नहीं देखना चाहते।
             मनुष्य स्वयं चाहे दूसरों पर कितनी ही छींटाकशी क्यों न कर ले, उन्हें भला-बुरा कह ले परन्तु जब उसकी बारी आती है तो वह क्रोधित हो जाता है। वह सोचता है कि फलाँ व्यक्ति की हिम्मत कैसे हुई कि उसका विरोध करे? अपने विरोधियों को वह गाली-गलौज करता है। उन्हें पानी पी-पीकर कोसता है। ऐसा तो कदापि नहीं हो सकता कि जो अच्छा है, मीठा है वह सब हमारे हिस्से में आएगा और जो कटु है, कड़वा है वह दूसरे के हिस्से में रहेगा। बड़े-बुजुर्ग कहते हैं- 
          बिना आईने के मनुष्य अपना चेहरा 
          नहीं देख सकता।
अर्थात् अपनी असलियत जानने के लिए उसे दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है।
          हमें तो लोगों के वही विचार अच्छे लगते हैं जिनसे हमारी प्रशंसा होती हो। इसी प्रकार वहीं व्यक्ति अच्छा लगता है जो हमारे लिए अच्छी-अच्छी बातें कहे।  हमारी सोच रही होती है कि घर-परिवार में, भाई-बन्धुओं में और समाज में हमारा कोई भी विरोध करने वाला न हो। सभी लोग हमारी प्रशस्ति में कसीदे पढ़ते रहें। हमारे अन्दर जो भी बुराइयाँ हैं, उन्हें अनदेखा करके सब लोग केवल हमारी अच्छाइयों के प्रशंसक बनें। यह प्रशंसा चाहे दूसरे लोग स्वार्थवश चापलूसी ही क्यों न हो।
          इस सबको सोचने में, कल्पना करने में बहुत आनन्द आता है। परन्तु यदि हम इसे वास्तविकता के धरातल पर देख सकें तो कह सकते हैं कि यह कदापि सम्भव नहीं हो सकता। प्रत्येक मनुष्य में अच्छाई और बुराई दोनों का समावेश होता है। यदि मनुष्य में बुराई न हो तो वह देवतुल्य बन जाएगा। इस सत्य को जितनी जल्दी स्वीकार का लिया जाए, उतना ही मनुष्य के लिए अच्छा हो जाएगा। तब उसे अपनी अच्छाइयों को संवारने और बुराइयों को दूर करने में महारत हासिल हो जाएगी।
          हम भगवान तो हैं नहीं कि हममें कोई बुराई नहीं होगी। हम इन्सान हैं, गलतियाँ करना हमारा स्वभाव है। हम समय-समय पर गलतियाँ करते रहते हैं और फिर बार-बार उसके लिए क्षमा याचना करते हैं। जब हम पूर्ण नहीं हैं तो हमारी आलोचना होना भी स्वाभाविक है। हम इस समस्या से कभी बच नहीं सकते। ईश्वर जो पूर्ण है, हम लोग उस पर भी दोषारोपण करने से नहीं चूकते तो फिर दूसरों से यह आशा किस प्रकार रख सकते हैं कि हमारी मूर्खताओं के बावजूद भी वे हमें अपमानित नहीं करेंगे।
        अपनी टीका-टिप्पणी होने पर मनुष्य को कभी घबराना नहीं चाहिए। विपरीत परिस्थिति होने पर उसे सदैव डटकर सामना करना चाहिए, अपने आलोचकों को सम्मान देना चाहिए। ये वही लोग हैं जो उसकी कमियों को चुन-चुनकर दूर करने में उसकी सहायता करते हैं। यदि मनुष्य इसे सकारात्मक दृष्टिकोण से देखे तो वह अपने अन्दर विद्यमान कमजोरियों को नियन्त्रित  करके अपने भावी जीवन को सफल बना सकता है। इन निन्दकों को कबीरदास जी ने शुभचिन्तक कहा है-
       निन्दक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
      बिन पानी-साबुन बिना निर्मल करे सुभाय॥
अर्थात्  इस दोहे में कबीर दास यह समझा रहे हैं कि जो व्यक्ति आपकी निन्दा करता है, जो व्यक्ति हर समय आपके भीतर कमियॉं तलाशता है, उसे हमेशा अपने पास रखना चाहिए। क्योंकि एक वही है जो बिना साबुन या बिना पानी के आपके स्वभाव को निर्मल बना सकता है। आपके भीतर की हर कमी को दूर कर सकता है।
             वास्तव में निन्दक लोग मनुष्य के अन्तस के दोषों को दूर करने में सहायक होते हैं। इसलिए इनसे घृणा करने के बजाय उन्हें अपना हितैषी मानना चाहिए। यदि मनुष्य ऐसा सोच ले तो उसे अपनी निन्दा होने पर दुख नहीं होगा बल्कि उसे उन सब लोगों की तुच्छ मानसिकता के विषय में सोचकर कष्ट होगा जो अपना मूल्यवान समय अनावश्यक ही दूसरों की बुराई करने में बर्बाद करते हैं। तब अपनी प्रशंसा सुनकर उसे न तो प्रसन्नता होगी और न ही अपनी निन्दा सुनकर वह कभी विचलित होगा।
          वास्तव में अक्सर हम उन लोगों की कम्पनी में रहना पसन्द करते हैं जो हमारे प्रिय होते हैं जो हमारी तारीफ करते हैं या हमारे भीतर सिर्फ गुणों को ही खोजते हैं। अपने प्रति हुए ऐसे व्यवहार पर हम लोग आनन्दित रहते हैं। अपनी आलोचना की चिन्ता किए बिना, उससे सदा ही प्रेरणा लेकर हम नित्य ही उन्नति के शिखर पर पहुँच सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

अफवाहों पर ध्यान नहीं देना चाहिए

अफवाहों पर ध्यान नहीं देना चाहिए 

अफवाहों पर हमें बिलकुल ध्यान नहीं देना चाहिए। अफवाहें फैलाने वाले बेसिर-पैर की बातों को उड़ाते रहते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि फैलाई गयी सारी खबरों में सच्चाई हो। कभी-कभी उनकी सत्यता की परख करने पर परिणाम शून्य होता है। उस समय हमारे मन को कष्ट होता है कि काश हमने इन अफवाहों को सुनकर व्यक्ति विशेष के लिए राय न बनाई होती। तब तक सब हाथ से निकल जाता है। हमने जो भी लानत-मलानत करनी होती है वह हम कर चुके होते हैं।
          ये अफवाहें हमारे लिए रास्ते का काँटा बन जाती हैं। यदि हम गम्भीरता से विचार करें तो आज इस भौतिकतावादी युग में सब कुछ सम्भव है। लोगों को दूसरों की छिछालेदार करने में अभूतपूर्व सुख मिलता है। उन्हें मिथ्या आत्मतोष मिलता है कि उन्होंने दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लोग अपने विरोधियों पर कीचड़ उछाल करके उन्हें अपमानित करने के अवसर से नहीं चूकते। परन्तु ऐसा दुष्कृत्य करने वाले वे भूल जाते हैं कि कल जब उनकी बारी आएगी तो फिर उन्हें कैसा लगेगा?
        इन कुत्सित अफवाहों से हम अपना ध्यान थोड़ा हटा करके तर्कशास्त्र की इस उक्ति पर हम विचार करते हैं। तर्कशास्त्र का मानना है- 
           यत्र यत्र धूम: तत्र तत्र वह्नि:
अर्थात् जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँ-वहाँ अग्नि अवश्य होती है। यदि आग जलेगी तो धुआँ भी होगा। वह धुआँ दूर-दूर तक उड़कर जाता है। दूर तक उड़ते हुए उस धुँए के कारण यदि किसी को जलती हुई आग नहीं दिखाई देती तो उसका यह अर्थ हम कदापि नहीं लगा सकते कि कहीं भी आग नहीं जल रही है।
            अपने इस सूत्र को सिद्ध करने के लिए तर्कशास्त्र उदाहरण देता है कि एक मोटा-सा देवदत्त नामक व्यक्ति है जो दिन में नहीं खाता। इसका सीधा-सा यही अर्थ निकलता है कि देवदत्त खाना खाता ही नहीं है। अब प्रश्न यह उठता है कि फिर वह जीवित कैसे रहता है?
            इस पर तर्क या विवाद करते हुए शास्त्र कहता है कि यदि वह देवदत्त दिन में नहीं खाता तो निश्चित ही रात को खाता होगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति बिना खाए बहुत समय तक जीवित नहीं रह सकता। यदि वह स्वस्थ है तो पक्की बात है कि वह सबसे नजर बचाकर छिपकर खाता है या फिर रात को खाता है। इसे कह सकते हैं तर्क की कसौटी पर परख कर विश्वास करना।
            एक बात और मैं आपके सामने रखना चाहती हूँ जिससे आप सभी सहमत होंगे। मीडिया के इस युग में कम्प्यूटर के फोटोशाप के द्वारा किसी भी तरह के चित्र अथवा वीडियो बनाए जाते हैं। इसी प्रकार वायस मिक्सिंग करके आडियो भी बनाए जा रहे हैं। इन सबसे किसी को भी बदनाम किया जा सकता है। इस प्रकार आँखों से देखी पर भी विश्वास करना बहुत घातक हो सकता है।
          मीडिया द्वारा परोसे जा रहे उन्माद से बचना चाहिए। सामान्य सामाजिक दृष्टिकोण से चीजों को देखने-समझने की कोशिश करनी चाहिए। केवल किसी पक्ष या विपक्ष के नजरिए से नहीं देखना चाहिए। सोशल मीडिया यानी व्हाट्सएप, फेसबुक, इन्स्टाग्राम आदि जैसे प्लेटफॉर्मों पर तेजी से फैलने वाले इन समाचारों पर ऑंख मूॅंदकर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए। बहुधा शरारती तत्व इन्हें फैलाने का कार्य करते हैं। 
            किसी भी अशान्ति या गलतफहमी की स्थिति में बिना सोचे अपनी प्रतिक्रिया देने के स्थान पर शान्त रहकर संयम का प्रदर्शन करना चाहिए। इस विषय में भेड़चाल सदैव हानिकारक होती है।अपनी आँखों से देखी हुई और कानों से सुनी हुई किसी भी बात को आँख मूँदकर मानने से पहले उस पर अच्छी तरह विचार-विमर्श कर लेना चाहिए। उसे अपने विवेक की कसौटी पर कस लेना चाहिए तभी उसे मानना चाहिए। अन्यथा अनर्थ की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
          अन्त में यदि कहा जाए तो हमें अफवाहों को नजरअंदाज करना चाहिए। यदि  ऐसा लगे कि कोई इन्हें फैला रहा है अथवा किसी संदिग्ध गतिविधि की जानकारी मिले तो तुरन्त स्थानीय पुलिस अथवा सम्बन्धित अधिकारियों को सूचित करना चाहिए। स्वयं होकर कोई कार्यवाही नहीं करनी चाहिए और न ही उसे फैलाना चाहिए। ये अफवाहें हमारे अपने लिए, देश, धर्म और समाज के लिए घातक हो सकती हैं। इसलिए सदा सावधानी बरतना बहुत आवश्यक होता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 10 दिसंबर 2025

दूसरों का मूल्यांकन

दूसरों का मूल्यांकन

दूसरों का मूल्यांकन करने का अर्थ होता है किसी व्यक्ति विशेष के विषय में पूर्ण जानकारी जुटाए बिना अपनी धारणाओं, अनुभवों‌ और पूर्वाग्रहों के आधार पर हम अपनी राय बना लेते हैं। उसी के अनुरूप हम किसी निष्कर्ष पर पहुॅंच जाते हैं और कोई निर्णय ले लेते हैं। हमें अपने ऊपर इतना विश्वास होता है कि हम किसी दूसरे की व्यक्ति की योग्यता, उसके चरित्र अथवा उसकी नियत का आकलन करने लगते हैं। वास्तव में यह एक स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया है। 
          यह सामाजिक परिस्थितियों को समझने में हमारी सहायता करती है। हमारी सोच कभी-कभी नकारात्मक भी हो सकती है। दूसरों का मूल्यांकन करते समय हमें ऐसा प्रतीत होने लगता है कि फलाँ व्यक्ति में तो ऐसी कोई विशेष योग्यता नहीं है, हमें जिसकी चर्चा अवश्य करनी चाहिए। इस सत्य से हम मुॅंह नहीं मोड़ सकते कि संसार में कोई भी व्यक्ति दूसरे को योग्य कहकर उसकी प्रतिष्ठा नहीं करना चाहता।
           अपने घर की ओर नजर डालते हैं, वहाँ आपका बेटा अथवा बेटी इतने योग्य हो सकते हैं कि दफ्तर में उनके अधीन अनेक कर्मचारी हों। आफिस में उनका अनुशासन इतना अधिक हो कि कोई कर्मचारी गलत काम करने का साहस न कर सकता हो। वे स्वयं भी दिन-रात कार्य करते हुए, अपने अधीनस्थों से वैसा ही कार्य करवाते हों जैसा वे चाहते है। उनके विरोधी भी उनका लौहा मानने के लिए विवश हो जाते हों।
          ऐसे योग्य बच्चों के माता-पिता को यही लगता है कि उनके बच्चे बेशक बहुत पढ़-लिख गए हैं और बड़े हो गए हैं परन्तु फिर वे भी अभी नादान हैं, बहुत भोले हैं। उन बेचारों को तो दुनियादारी की बिल्कुल भी समझ नहीं है। अपनी ओर से वे उन्हें सदैव अपनी छत्रछाया में संरक्षित करना चाहते हैं। अपने बच्चों के लिए आयुपर्यन्त ही संवेदनशील बने रहना चाहते हैं।
            प्राय: पति भी अपनी पत्नी के विषय में सोचता है कि उसकी पत्नी तो मूर्ख है उसे दुनियादारी की क्या समझ है? यह भी हो सकता है वह यदि उसकी योग्यता के विषय में सोचने लगे तो उसे स्वयं ही समझ में आ जाए कि उसकी सोच बहुत गलत थी। उसकी पत्नी में तो बहुत से गुण हैं यानी कि वह मल्टी टेलेंटेड औरत है। वह घर और बाहर दोनों ही मोर्चों पर सफल है। जितनी कुशलता व लगन से वह अपने दफ्तर के कार्य निपटाती है उसी ही निष्ठा से घर-गृहस्थी व बच्चों के कामों को भी करती है। अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए अनावश्यक ही नित्य नए बहाने नहीं बनाती।
           प्रायः पत्नियाँ भी अपने पतियों के विषय में इसी प्रकार के नकारात्मक विचार रखती हैं। उन्हें भी ऐसा लगता है उसके पति को कोई समझ नहीं है। न वह घर का कार्य कर पाता है और न बाहर के दायित्वों का निर्वहन कर सकता है। हाँ, घर पर जितना समय रहता है अशान्ति ही फैलाता रहता है। इसलिए दोनों एक-दूसरे के प्रति असहिष्णु हो जाते हैं और हर समय ही अपने साथी को सहन न कर सकने का रोना रोते रहते हैं।
             पति और पत्नी घर में एक-दूसरे को नासमझ मानकर परस्पर दोषारोपण करते रहते हैं। उन दोनों में से कोई भी अपने मन से यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता कि उनका अपना जीवनसाथी किन्हीं विशेष योग्यताओं वाला हो सकता है। जिसके कारण उसका सम्मान उसके अधीनस्थ करते हैं। उसके सम्पर्क में आने वाले उसके काम करने के तरीकों से बहुत प्रभावित हो जाते हैं। अपने फील्ड में लोग उसकी कार्यशैली और उसकी पर्सनेलिटी से ईर्ष्या करने के लिए विवश हो जाते हैं। 
            मित्र, बन्धु-बान्धव,भाई-बहन आदि भी अपने सम्बन्धियों के प्रति सकारात्मक विचार नहीं रखते। उनकी कल्पना से परे की बात होती है कि उनका प्रियजन इतना महत्त्वपूर्ण व्यक्ति है जो बड़े-से-बड़े चैलेंज जीतकर आज इतना प्रतिष्ठित हो गया है। उससे मिलने के लिए भी समय लेना पड़ता है और प्रतीक्षा करनी होती है। उन्हें यह यह सब उसका अहं प्रतीत होता है।
             हमें किसी की भी वेशभूषा अथवा रहन-सहन से उसके प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं पालना चाहिए। उसका मूल्यांकन करते समय सचेत रहना चाहिए। किसी को भी कमतर नहीं समझना चाहिए। दूसरे का मूल्यांकन करते समय उसकी योग्यता और पद आदि को ध्यान में रखना बहुत ही आवश्यक है।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 9 दिसंबर 2025

हम बच्चों की तरह मासूम बनें

हम बच्चों की तरह मासूम बनें

हम बड़े बच्चों की तरह मासूम बनकर क्यों नहीं रह सकते? यह यक्ष प्रश्न हमारे समक्ष मुँह बाये खड़ा है जिसका हल हम सबको मिलकर सोचना है। बच्चे बहुत सरल हृदय होते हैं। उनके मन में कोई छल-कपट नहीं होता। उनके मन में हम बड़े ही ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, कुटिलता आदि भावों को भरते हैं। कल्पना कीजिए यदि सभी बड़े लोग बच्चों की तरह सरल व सहज स्वभाव के हो जाएँ तो बहुत-सी बुराइयों का अन्त हो जाएगा अथवा वे पनपेंगी ही नहीं।
             तब किसी प्रकार के लड़ाई-झगड़े अथवा दंगे-फसाद की नौबत ही नहीं आएगी। यदि पलभर के लिए हम विवाद करेंगे या झगड़ा करेंगे तो अगले ही पल गले में बॉंहे डालकर घूमते हुए नजर आएँगे। ऐसी स्थिति के विषय में सोचकर मन को बहुत ही सुकून मिलता है। यदि धर्म, जाति, वर्ग एवं वर्ण आदि के पचड़ों में न पड़कर हम अपनी स्वयं की अथवा अपने देश की भलाई के कार्य कर सकें तो देश और समाज का भला हो सकता है।
            सरल स्वभाव के होते हुए हम हर प्रकार की  धोखाधड़ी, रिश्वतखोरी, छल-फरेब, मारकाट, जालसाजी आदि से मुक्त हुए समाज की सहज ही कल्पना कर सकते हैं। सबसे बड़ी आतंकवाद की जो समस्या है, उससे भी विश्व को राहत की साँस मिल सकती है। हालाँकि यह सोच हम सब के लिए एक बहुत ही आदर्शवादी स्थिति की है जिसकी हम कल्पना मात्र ही कर सकते हैं। इस पर चलना हम कभी भी गंवारा नहीं करते। यह राह तो कठिनाई से भरी हुई है।
            जिन बच्चों के लिए बड़े लोग एक-दूसरे से टकराकर दुश्मनी मोल ले लेते हैं, वही बच्चे अगले क्षण सिर जोड़कर घूमते हुए नजर आ जाते हैं। इन बच्चों की दुनिया बड़ी अलग तरह की होती है जिसमें सबके लिए प्यार भरा होता है। एक-दूसरे की बाहों में बाहें डाले अथवा हाथ पकड़कर वे घूमते रहते हैं। किसी प्रकार के नफरत की वहाँ पर कोई गुँजाइश नहीं होती। बच्चे एक-दूसरे से यदि रूठते हैं तो कुछ ही समय पश्चात पहले ही की तरह दोस्त बन जाते हैं। उनके मध्य कोई अहं का मुद्दा नहीं बनता कि किसने‌ पहले सुलह की।
            उन्हें बड़ों की तरह न तो स्टेटस की चिन्ता होती है और न ही वे इन्सान-इन्सान में फर्क करते हैं। उनके लिए धर्म, जाति, रंग-रूप आदि का अन्तर कोई मायने नहीं रखता। उन्हें तो बस प्यार की भाषा समझ में आती है। जो भी उन्हें प्यार करता है, वे बच्चे उसी की अंगुली थामकर चल पड़ते हैं। बच्चों के शब्दकोश में 'अपना-पराया' जैसे कोई भी शब्द नहीं होते। हम बड़े अपने तुच्छ स्वार्थों के कारण ही ऐसा खतरनाक जहर उनके कोमल हृदयों में भर देते हैं जिससे बड़े होते हुए उनके मन भी प्रदूषित होने लग जाते हैं। उनका भोलापन तो हमारी मूर्खता से नष्ट हो जाता है और तब वे हमारे बताए हुए रास्ते से दुनिया की रेस में शामिल हो जाते हैं।
            बच्चों की मासूमियत हमें इसी से दिखाई देती है कि जब वे हर बात को समझने के लिए कब, क्या, क्यों, कैसे आदि प्रश्नों के माध्यम से हल ढूँढते हैं। मासूम से चेहरे पर गोल-गोल आँखे करके बच्चे सहज रूप से अपनी भोलीभाली जिज्ञासाओं को शान्त करने का यत्न करते रहते हैं। अपने बड़ों की डाँट-फटकार की उन्हें कोई परवाह नहीं होती। परेशान हुए बिना अथवा परवाह किए बिना वे बस बारबार अपने प्रश्नों की झड़ी हर किसी के आगे लगा देते हैं। वे इस बात से बेखबर रहते हैं कि जिनसे उन्होंने पूछा है, वे उनके प्रश्न का उत्तर दे भी पाएँगे अथवा नहीं।
            बच्चों की मासूमियत उनकी प्राकृतिक अवस्था है जो उन्हें दुनिया के प्रति एक अनोखी दृष्टि देती है। परन्तु उन्हें सही परवरिश की, वातावरण की तथा उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है ताकि वे अपनी मासूमियत के साथ-साथ समझदार और जिम्मेदार बन सकें। आधुनिक टेक्नोलॉजी और सामाजिक दबाव के कारण बच्चों की मासूमियत बहुत अधिक प्रभावित हो रही है। इस स्थिति में माता-पिता की भूमिका अपने बच्चों के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है। 
           बच्चे मासूम होते हैं क्योंकि उनका दिमाग दुनिया को समझने के लिए पूरी तरह विकसित नहीं होता। वे वर्तमान में जीते हैं और उनमें दुनियादारी की समझ कम होती है। इस कारण उनके व्यवहार में स्वाभाविक भोलापन होता है। उनकी यह मासूमियत माता-पिता के मार्गदर्शन और सामाजिक परिवेश से आकार लेती है। समय के साथ अनुभव और समझदारी के साथ बदलती है। उनके बचपन का यह दौर प्रायः प्रसन्नता, उम्मीद और पवित्रता से भरा होता है। 
            यदि हम सब तेरे मेरे वाली इस संकीर्ण मनोवृत्ति से छुटकारा पा सकें तो मानव जीवन सफल हो जाएगा। तब सभी राष्ट्र अपने बहुत से आपसी झगड़ों से मुक्त हो सकेंगे। अनावश्यक सैनिक खर्च में कटौती करके वे उस धन को अपने राष्ट्र की प्रगति करने में व्यय कर सकते हैं। अपने देश को निरन्तर उन्नति के मार्ग पर ले जा सकते हैं। अपने-अपने देशों को खुशहाल बना सकते हैं। इससे भाईचारा तो बढ़ेगा ही और विश्व सबके रहने के लिए एक खूबसूरत स्थान बन जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 8 दिसंबर 2025

प्रकृति का नियम

प्रकृति का नियम

दिन के बाद रात और रात के बाद दिन यही प्रकृति का नियम है। यह विधान बहुत कठोर है। इसमें कहीं भी नरमी अथवा सुविधा का स्थान नहीं है। सृष्टि के आरम्भ से ही ईश्वर ने यह विधान हमारे लिए बनाया है। सूर्य प्रातःकाल होते ही उदय होता है तब दिन होता है। जब चन्द्रमा प्रकट होता है तब रात्रि होती है। संध्या समय होने पर सूर्य अस्त हो जाता है और प्रातः होने पर चन्द्रमा विदा ले लेता है। इस क्रम कोई भी परिवर्तन आजतक नहीं हुआ और न ही कभी आने वाले समय में होगा।
           सूर्य व चन्द्रमा के उदित और अस्त होने का यह क्रम निर्बाध रूप से निरन्तर चलता रहता है। इसमें कहीं कोई त्रुटि नहीं होती। न ही उन दोनों को कोई प्रतिदिन कोई काम पर जाने का आदेश देता है और न ही कोई अलार्म उन्हें जगाता है। कभी इन दोनों ने यह नहीं सोचा कि हम प्रतिदिन अपनी ड्यूटी करके थक गए हैं, चलो इन्सानों की तरह चार दिन की छुट्टी करके हम भी आराम कर लें अथवा देश-विदेश में कहीं भी घूम आएँ या किसी हिल स्टेशन की सैर कर आएँ। 
          कल्पना कीजिए यदि ऐसी स्थिति कभी आ जाए तब क्या होगा? सूर्य के उदय न होने पर चारों ओर बर्फ का साम्राज्य हो जाएगा। हम गरमी और प्रकाश पाने के लिए छटपटाएँगे। दिन नहीं होगा और चारों ओर अन्धकार की चादर बिछी हुई दिखाई देगी। नदियों और नालों का सारा पानी जम जाएगा। हम पानी की एक-एक बूँद के लिए तरसेंगे। पानी नहीं होगा तो अनाज उत्पन्न नहीं होगा। तब हम दाने-दाने के लिए मोहताज हो जाऍंगे। खाने के लिए हमें परेशानी हो जाएगी।
          इसी प्रकार चन्द्रमा के न होने पर रात नहीं होगी। उसकी शीतलता से हम वंचित हो जाएँगे। सूर्य का प्रचण्ड प्रकोप हमें सहना पड़ेगा। इस प्रकार इन दोनों में से किसी एक के भी अवकाश पर चले जाने से सारे मौसमों और सारी ऋतुओं का चक्र गड़बड़ा जाएगा।
            एवंविध सूर्य और चन्द्रमा के न होने की अवस्था में सारी सृष्टि में 'त्राहि माम्' वाली परिस्थिति उत्पन्न हो जाएगी। इसी प्रकार अन्य प्राकृतिक संसाधनों के न होने पर भी संसार की स्थिति बहुत ही बिगड़ जाएगी। ईश्वर ने हम मनुष्यों को हर प्रकार का सुख और आराम देने के लिए सारा मायाजाल अथवा आडम्बर रचा है। 
          हमारे लिए उस मालिक ने दिन और रात बनाए हैं। इसका उद्देश्य यही है कि अपने स्वयं के लिए और घर-परिवार के दायित्वों को पूर्णरूपेण निभाने के लिए दिन भर जीतोड़ परिश्रम करो। जब थककर चूर हो जाओ तब रात हो जाने पर चैन की बाँसुरी बजाते हुए घोड़े बेचकर सो जाओ। अगली प्रातः तरोताजा होकर फिर से अपने काम में ने उत्साह से जुट जाओ। 
          मनुष्य सारा दिन हाड़ तोड़ मेहनत करके जब थकहार कर घर आता है तब उसे आराम करने की बहुत आवश्यक होता है। अगर ईश्वर ने रात न बनाई होती तो मनुष्य सो नहीं पाता। नींद न ले पाने के कारण अनिद्रा से परेशान होकर वह अनेक बिमारियों से ग्रस्त हो जाता। फिर डाक्टरों के चक्कर लगाते हुए बहुमूल्य समय व धन की बरबादी होती। 
            इसी कड़ी में हम कह सकते हैं कि यदि ईश्वर ने दिन न बनाया होता तो चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार होता। हमें अपने कार्य करने‌ के लिए कुछ भी नहीं सुझाई पड़ता। हम इधर-उधर ठोकरें खाने के लिए विवश हो जाते। अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए क्या कर‌ पाते? यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न हमारे सम्मुख आ खड़ा होता। उस स्थिति की कल्पना करने मात्र से ही मन परेशान हो जाता है। वास्तव में इसे अकल्पनीय ही कहा जा सकता है।
          सूर्य का उदय होना हमें नवजीवन का सन्देश देता है और उसका अस्त होना जीवन के अन्तकाल का परिचायक है। सूर्य और चन्द्रमा दिन और रात के प्रतीक हैं जो हमें समझाते हैं कि जीवन में दुखों एवं कष्टों से पूर्ण रात कितनी भी लम्बी हो जाए, उसके बाद प्रकाश अवश्य आता है। सूरज और चन्दा की तरह जीवन में भी दिन और रात की तरह सुख एवं दुख की आँख मिचौली चलती रहती है। इसलिए जीवन में हार न मानते हुए आगे बढ़ते चले जाना चाहिए। यही प्रकृति की इस रचना का हम मनुष्यों के लिए सन्देश है।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 7 दिसंबर 2025

ताली एक हाथ से नहीं बजानी

ताली एक हाथ से नहीं बजती

'ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती' यह हिन्दी भाषा का एक प्रसिद्ध मुहावरा है। इसका अर्थ हम यह कर सकते हैं कि किसी भी कार्य को करने के लिए दो लोगों की भागीदारी अथवा जिम्मेदारी की आवश्यक होती है। कोई भी झगड़ा, विवाद या महत्त्वपूर्ण कार्य केवल एक व्यक्ति के कारण कभी नहीं हो सकता। यानी मित्रता अथवा शत्रुता, प्रेम, घृणा या विवाद सब दो पक्षों की सहभागिता से ही होते हैं। इसके लिए आपसी सहयोग अथवा मतभेद दोनों ही आवश्यकता होती है। 
            यह कथन बिल्कुल सत्य है कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है। हम अपने दोनों हाथों का प्रयोग करते हैं तभी ताली बजा सकते हैं। अन्यथा यह कोरी कल्पना बनकर रह जाती है। हाँ, यह भी सत्य है कि एक हाथ से हम मेज को थपथपाकर अपनी सहमति अथवा प्रसन्नता अवश्य प्रदर्शित कर सकते हैं। 
           किसी भी समस्या या घटना में गलती केवल किसी व्यक्ति विशेष की नहीं होती, दोनों ही पक्षों की कुछ-न-कुछ हिस्सेदारी होती है। सच्ची सफलता और अच्छा रिश्ता बनाए रखने के लिए दोनों पक्षों का सहयोग आवश्यक होता है। प्रेम, दोस्ती या झगड़ा ये सभी दो लोगों के बीच ही सम्भव हो सकते हैं। एक व्यक्ति अकेला कुछ भी नहीं कर सकता।पति-पत्नी के झगड़े में किसी एक को पूरी तरह से गलत ठहराना अनुचित है। किसी काम को सफल बनाने के लिए भी दो साथियों का मिलकर काम करना जरूरी होता है।
          यह तो हो ही नहीं सकता कि किसी एक की गलती के कारण झगड़ा हो जाए या वैमन्स्य हो जाए। जब तक दोनों लोग आपस में न टकराएँ तब तक दुश्मनी की नौबत नहीं आ सकती। इसलिए सावधानी रखनी आवश्यक है। घर, परिवार अथवा समाज में लोगों के व्यवहार को देखते-परखते हुए ही हम इसका अनुभव कर सकते हैं। भाई-बहन, पति-पत्नी, मित्रों अथवा सम्बन्धियों आदि में यदि मनमुटाव या झगड़ा होता है तब हम एक-दूसरे को दोष देकर अपना-अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं। यदि दोनों पक्षों की बात निष्पक्ष होकर सुन ली जाए तो पता चल जाता है कि गलती दोनों की होती है। 
           झगड़े की स्थिति में यदि एक व्यक्ति चुप लगा जाए तो दूसरा कब तक बकझक करेगा। आखिर वह भी यह कहकर चुप हो जाएगा कि यह तो कुछ बोलता नहीं, कौन दीवारों से सिर फोड़े? समस्या तभी बढ़ती है जब दोनों ही बराबर की टक्कर दें। कोई भी व्यक्ति अपने आपको छोटा कहलाना पसन्द नहीं करता। इसलिए कोई भी पक्ष झुकने के लिए तैयार नहीं होता। सब एक-दूसरे को देख लेने की धमकी देते रहते हैं। तभी ऐसी कटु स्थितियॉं बनती है।
          इसी प्रकार कार्यक्षेत्र में भी आपसी कटुता के कारण ही बॉस व कर्मचारियों के बीच मनमुटाव बढ़ता रहता है। इस कारण वहाँ पर कामबन्दी, तालाबन्दी अथवा धरने- प्रदर्शनों आदि की नौबत आती है। देश में अथवा विश्व में अपरिहार्य स्थितियॉं भी दो दलों अथवा दो देशों के कारण है बनती हैं। उनका परिणाम अथवा खमियाजा सभी को भुगतना पड़ता है।
             रिश्तों में अलगाव की स्थिति के लिए भी दोनों ही व्यक्ति जिम्मेदार होते हैं। एक का पक्ष लेकर दूसरे पर दोषारोपण करना अनुचित होता है। सभी समझदार लोगों को जागरूक रहना चाहिए और दूसरों को भी सचेत करना चाहिए। रिश्तों में यदि झूठे अहं को छोड़कर दोनों थोड़ा-सा गम खा लें तो बिखराव के कारण होने वाली बिनबुलाई समस्याओं से बचा जा सकता है। यह तो हो सकता है कि किसी एक की गलती दूसरे पर भारी पड़ जाती है। पर कमोबेश स्थिति यही होती है कि दोष दोनों का ही होता है। यह चर्चा हमारे भौतिक सम्बन्धों की होती है। 
           प्रकृति को हम दोष देते नहीं थकते कि वह हम पर अत्याचार करती है। कभी बाढ़ आ जाती है, कभी भूकम्प आ जाते हैं, कभी अतिवृष्टि होती है, कभी अनावृष्टि होती है, बीमारियाँ फैल रही हैं, हमारा पर्यावरण दूषित हो रहा है आदि। परन्तु क्या हमने कभी अपने गिरेबान में झाँककर देखते हैं कि इन सारी प्राकृतिक आपदाओं के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। हमने स्वयं ही इन सब मुसीबतों को न्यौता दिया है।
             प्रकृति से हम स्वयं छेड़छाड़ करते हैं। हम खुद को बहुत विद्वान और महान मानते हैं। तभी प्राकृतिक संसाधनों का हम आवश्यकता से अधिक दोहन करते हैं। जब हम अपनी इन हरकतों से बाज नहीं आएँगे तो उसका दण्ड कोई दूसरा नहीं हमें स्वयं को ही तो भोगना पड़ेगा। आज तक मुझे यह समझ नहीं आया कि फिर हम इतनी हाय तौबा क्योंकर करते हैं। स्वयं के आचरण पर लगाम क्यों नहीं लगाते?
             हमें प्रयास यही करना चाहिए कि जीवन में छोटी-मोटी कटुताओं को अनदेखा कर दिया जाए। उन्हें अनावश्यक तूल देकर आपसी सम्बन्धों की बलि न चढ़ाई जाए। सन्बन्धों को तोड़ने के लिए ताली को दोनों हाथों से नहीं बजानी चाहिए बल्कि उनमें मधुरता लाने का यथासम्भव प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 6 दिसंबर 2025

अच्छाई और बुराई सगी बहनें

अच्छाई और बुराई सगी बहनें

अच्छाई और बुराई दोनों को हम सगी बहनें कह सकते हैं। ये दोनों बहनें होते हुए भी रंग-रूप तथा स्वभाव में एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। इन्हें हम एक ही सिक्के के दो पहलू भी कह सकते हैं। ये दोनों बहनें कभी भी एक-दूसरे के गले नहीं मिल सकतीं यानी कि एकसाथ किसी एक स्थान पर मिल-जुलकर नहीं रह सकतीं। हैरानी की बात यह है कि ये दोनों ही दो सांसारिक बहनों की तरह अपना सुख-दुख भी नहीं बाँट सकतीं। अपनापन तक नहीं जता सकतीं।
          दूसरे शब्दों में कह यह सकते हैं कि अच्छाई को घर में निवास देना हो तो बुराई से दामन छुड़ाना आवश्यक होता है। इसके विपरीत यदि बुराई को प्रश्रय देना हो तो पहले मनुष्य को अच्छाई से मुँह मोड़ना पड़ता है। यदि कभी हमें इन दोनों के रंग को दर्शाना हो तो हम अच्छाई के लिए सफेद रंग का प्रयोग करते हैं और बुराई के लिए काले रंग का। कहने का तात्पर्य यही है कि अच्छाई उज्ज्वलता का प्रतीक मानी जाती है। जबकि बुराई कालिमा का रूप कही जाती है।
          सीधा स्पष्ट-सा यह व्यवहार हमें समाज में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। नाटकों, फिल्मों आदि में हम देखते हैं कि अच्छे लोग प्रतीक के रूप में सफेद वस्त्र पहनते हैं और दुष्टों को काले वस्त्र पहनाए जाते हैं। टीवी में रामायण, महाभारत तथा कई और अन्य सीरियलस में हम सबने इस प्रकार के वस्त्र विन्यास को देखा था। अच्छाई को समाज में देवाता के रूप में पूजा जाता है। इसके विपरीत बुराई से सभी घृणा करते हैं, उसमें लिप्त व्यक्ति को देखकर नाक-मुंह सिकोड़ने लगते हैं।
            रामलीला आदि धार्मिक नाटकों के मंचन में भी अच्छाई और बुराई के अन्तर को दर्शाने के लिए ऐसे ही प्रयोग किए जाते हैं। इस प्रयोग को देखते ही हम जान लेते हैं उजले वस्त्र पहना व्यक्ति चरित्रवान है और काले वस्त्रों को धारण करने वाला व्यक्ति विलेन है। इससे हमें इन दोनों के अन्तर को भली भाँति समझ लेना चाहिए। इसके साथ ही समाज का इनके प्रति जो रवैया है, उसे भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। मोटे तौर पर यह है अच्छाई और बुराई को पहचानने का एक तरीका।
           हमारे सामने यदि अच्छाई अथवा बुराई में से एक को चुनने का विकल्प रखा जाए तो हम में से अधिकांश लोग अच्छाई के पक्षधर ही होंगे और इसके साथ ही जाना चाहेंगे। ये लोग बुराई से घृणा करने वाले होते हैं। परन्तु बुराई इतनी आकर्षक होती है कि उसकी मोहिनी से बचना बहुत कठिन होता है। समझदार व्यक्ति उसके लटकों-झटकों के जाल में नहीं फंसते। परन्तु मन की दुर्बलता वाले लोग इसके बहकावे में शीघ्र आ जाते हैं और अपने लिए गड्ढा खोद लेते हैं।
        जो लोग अच्छाई वाले कठिन मार्ग का चयन करते हैं उनका रास्ता लम्बा तथा कठिनाइयों से भरा होता है। उस पथ पर चलते हुए उन्हें अनेक प्रकार की परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। उनमें पास हो जाने पर वे सदा सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं। ऐसे लोग समाज में सम्माननीय स्थान प्राप्त करते हैं। अच्छाइयों की अधिकता होने के कारण ये महापुरुष सत्त्वगुण वाले कहलाते हैं। इन्हें लोग देवतुल्य मानते हैं। यही लोग समाज के दिग्दर्शक बनते हैं। जन साधारण इनके पद चिह्नों पर चलकर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं।
          बुराई का रास्ता सरल व आकर्षण होता है। यहाँ बहुत से अवगुण एवं दोष अपने पास बुलाने के लिए षडयन्त्र रचते रहते हैं। इनके झाँसे में आ जाने वाले लोग अपना मार्ग भटक जाते हैं। तब वे अपनी अच्छाई को छोड़कर कुमार्ग पर चल पड़ते हैं। वहॉं पर उन्हें कदम-कदम पर न्याय व्यवस्था से दो-चार होना पड़ता है। समाज विरोधी कार्य करने वालों को उनके अपने घर-परिवार के लोग त्याग देते हैं। समय बीतने पर वे अकेले रह जाते हैं। उस समय उन्हें इस गलत रास्ते पर आने का पश्चाताप होता है। यह सत्य है कि समय बीत जाने पर उसका कोई लाभ नहीं होता।
            वास्तव में अच्छाई का रास्ता लम्बा और चुनौतियों से भरा हुआ होता है। यह मार्ग कॉंटों से युक्त होता है। इस पर पर चलता हुआ मनुष्य अपना धैर्य खोने लगता है। जो लोग बिना डरे, बिना घबराए अपने मार्ग पर आगे बढ़ते रहते हैं वे निस्सन्देह सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ते जाते हैं। इसके विपरीत बुराई का मार्ग तड़क-भड़क वाला व दिखने में सरल प्रतीत होता है। शार्टकट हमेशा नुकसान पहुँचाता है। इसलिए इस पथ पर चलने से पहले हमें इसके दूरगामी दुष्परिणामों पर निश्चित ही विचार कर लेना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद