बुधवार, 31 दिसंबर 2014

नववर्ष की मगल कामना

सभी मित्रजनों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ। यह नया साल आप सभी के जीवन की खुशियों में चार चाँद लगाए। किसी भी प्रकार के दुखों व कष्टों से ईश्वर सबकी रक्षा करे। बीते वर्ष के अधूरे कार्यों को पूरा करते हुए आनन्दपूर्वक भविष्य की सुखद योजनाओं को क्रियान्वित करें।
        अपने घर-परिवार व बन्धु-बान्धवों सहित नववर्ष को मंगलमय बनाने में नए उत्साह से जुट जाएँ। बीते वर्ष की गलतियों को न दोहराने का प्रण लें। नववर्ष में कुछ नया कर दिखाने का संकल्प लें। ईश्वर से प्रार्थना है कि वर्ष 2015 में हमारा यह परिवार दिन दुगुनी रात चौगुनी उन्नति करते हुए सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाए।
       एक बार फिर आप सबको नववर्ष की मंगल कामनाएँ।

मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

मौन

मौन की अपनी एक भाषा होती है। यह मनुष्य का एक बहुत बड़ा गुण है और मुखरता अवगुण। यदि मनुष्य संकेतों से बात करे और मौन को अपना ले तो बहुत से विवाद स्वयं ही समाप्त हो जाएँगे। हमारे बड़े-बजुर्गों ने ये कहावते कही हैं-
  एक चुप सौ सुख और एक चुप सौ को हराए।
चुप रहकर अनेकों समस्याओं को आसानी से सुलझाया जा सकता है।
          हमारे मुँह में विद्यमान जीभ कहने को चाहे कितनी ही लचीली है या कठोरता से रहित है पर उसके द्वारा दिया गया घाव बहुत गहरा वार करता है। सुनने वाला बाण के प्रहार से भी अधिक घायल हो जाता है। अन्य घाव तो भर जाते हैं पर वाणी का घाव भरना नामुमकिन तो नहीं पर कठिनता से अवश्य भरता है।
        यही वाणी राज भी कराती है और बरबाद भी करती है। इतिहास साक्षी है ऐसे नष्ट होते साम्राज्यों का। हम यदि अब महाभारत का युद्ध ही देखें तो वह द्रौपदी के कड़वे वचन बोलने से हुआ जिसे रोका जा सकता था। उसका दुष्परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। उस समय विद्वान बड़ी संख्या में न मारे जाते तो अनेकों कुप्रथाएँ व रूढ़ियाँ हमारे देश में डेरा न जमातीं। दुर्योधन की स्थिति देखकर यदि द्रौपदी मौन रह जाती तो देश बरबादी की ओर न जाता।
       घर-परिवार में भी कलह-क्लेश का कारण भी अनर्गल प्रलाप ही होता है। सभी  लोग मिलजुलकर यदि प्यार से रहें और एक-दूसरे की गलतियों को नजरअंदाज कर मौन रह जाएँ तो निश्चित ही हमेशा पारिवारिक सामंजस्य बना रहता है। गुरू नानक जी कहते हैं-
    एक ने आखी दूजे ने मानी नानक आखे दौवें ग्यानी।
इसका अर्थ है एक-दूसरे की बात यदि बिना हील-हुज्जत के मान लें तो कहने व सुनने वाले दोनों ही समझदार कहलाएँगे। यह स्थिति तभी बनेगी जब हम एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करेंगे तो व्यर्थ विवाद नहीं करेंगे।
      
हो सकता है चुप रहने वाले को आम लोग डरपोक या दब्बू कहकर अपमानित करने का यत्न करें परन्तु वे इसकी शक्ति से अपरिचित नादान कहे जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त घर-परिवार में भी उन्हें यह कह कर नकार दिया जाए कि इसे तो कुछ कहना नहीं होता।पर वह कुछ न कहना व्यर्थ की बकवाद से तो कहीं बेहतर है। सभी लोग यह तो अवश्य कहकर उनकी प्रशंसा करेंगे कि अमुक व्यक्ति फालतू नहीं बोलता पर पते की बात करता है।
        हमारे ऋषि-मुनि कठोर तप किया करते थे। मौनव्रत भी धारण करते थे। कई-कई दिनों, महीनों या वर्षों तक मौन संसार से दूर साधना में लीन रहते थे। इसे एकांत साधना कहते हैं।
     यह सत्य हैं कि जो मौन की साधना जो करता है उसे सिद्धि प्राप्त होती है। उसकी वाणी में इतनी शक्ति आ जाती है कि उसके मुँह से निकला हर वाक्य ब्रह्मवाक्य बन जाता है अर्थात् सत्य हो जाता है। मौन को अपनाने से मनुष्य की आत्मिक शक्ति की वृद्धि होती है।
        यह आवश्यक नहीं कि हम घरबार छोड़कर संयासी बन जाएँ और जंगलों के एकांत में मौन साधना करें। घर में रहते हुए अपने दैनंदिन कार्य करते हुए भी हम मौन साधना कर सकते हैं।
        मौन हर स्थिति में लाभदायक होता है। इसे अपनाकर मनुष्य कभी भी दुखी नहीं हो सकता। अपने आप को और अपनों को सुख-शांति प्रदान करने का यह अचूक रामबाण उपाय है। अनेकों विवाद या तो होंगे ही नहीं या फिर स्वतः समाप्त हो जाएँगे।

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

देवासुर संग्राम

देवासुर संग्राम के विषय में वेदादि ग्रन्थों में प्रायः वर्णन मिलता है। यह देवासुर संग्राम आखिर है क्या? यह जिज्ञासा मन में उठनी स्वाभाविक है। भाष्यकार इस देवासुर संग्राम का शाब्दिक अर्थ करते हैं देवताओं और राक्षसों का युद्ध।
         अब सोचना यह है कि ये देवता और राक्षस कौन थे और इनमें हर समय युद्ध क्यों होता रहता था? इनको लड़ने के अतिरिक्त क्या और कोई कार्य नहीं था? यदि देवता झगड़ते रहते थे तो फिर वे कैसे देवता थे? राक्षसों की और देवताओं की आपस में शत्रुता का कारण क्या था?
       ऐसे प्रश्नों का मन में उठना आवश्यक है। हम तो अभी तक यही जानते व मानते हैं कि देवता दिव्य गुणों से युक्त  परोपकारी व संयमशील होते हैं। इनके विपरीत राक्षस या दुष्ट मानवोचित गुणों से रहित निर्दय होते हैं। फिर इन दोनों की शत्रुता व मित्रता की बात गले से नहीं उतरती।
      ये सभी जिज्ञासाएँ यदि हमारे मन को उद्वेलित करें तो कोई आश्चर्य नहीं। यह तो मानव मन की स्वभाविक प्रक्रिया है। यहाँ इस विषय में हम कह सकते हैं कि यह देवासुर संग्राम मात्र प्रतीकात्मक वर्णन है।
      वास्तव में यह युद्ध हमारे अंतस में हमेशा होता रहता है। हमारे मन में उठने वाले सद् विचारों और कुविचारों अर्थात दैवी वृत्तियों और आसुरी वृत्तियों का अंतर्द्वंद्व ही वास्तव में देवासुर संग्राम है। दोनों ही विचार हार नहीं मानना चाहते इसीलिए मनुष्य द्वन्द्व की स्थिति में रहता है। करणीय और अकरणीय के अंतर को समझने की कशमकश में रहता है।
       हमारे मन के सुविचारों को देवता माना है और कुविचारों को असुर की संज्ञा दी गई है। हमें आयुपर्यन्त यह संग्राम करते रहते हैं। कभी हम विजयी होकर ऊँचाइयाँ छूते हैं और कभी पराजित होकर शर्मसार होते हैं। यह खेल जीवनभर चलता ही रहता है।
     समाज में रहते हुए मनुष्य बहुत से लोगों से मिलता है। कुछ से प्रभावित होता है और कुछ पर वह अपनी छाप छोड़ देता  है। इस प्रकार आपसी सौहार्द से जीवन व्यतीत होता है।
      हम स्वयं अपनी बात अब करते हैं। चौबीसों घंटे अपने-अपने दायित्वों का निर्वहण करते समय अनेकानेक चाही-अनचाही स्थितियों का सामना करते हैं। उन्हीं के परिणाम स्वरूप विचार मंथन निरंतर चलता रहता है।
      हमारे मन में सुविचार और कुविचार परस्पर संघर्ष करते हैं। जब सुविचारों की अधिकता होती है और वे कुविचारों पर हावी हो जाते हैं अर्थात् मन में आए हुए सुविचार जब कुविचारों को जीत लेते हैं तो मनुष्य सन्मार्ग पर चलता है और धीरे-धीरे देवतुल्य हो जाता है। समाज उसे देवता की संज्ञा देकर पूजता है।
        इसके विपरीत यदि हमारे मन के कुविचार सुविचारों पर हावी हो जाते हैं  या जीत जाते हैं तो मनुष्य कुमार्ग अर्थात् गलत रास्ते पर चल पड़ता है। यहीं से उसका पतन आरंभ होता है। यह गिरावट कहाँ  तक जाएगी कहना कठिन होता है। समाज में उसे हेय दृष्टि से देखता है। ऐसे कुमार्गगामी व्यक्ति का सभी परित्याग करते हैं। वह घर-परिवार व बन्धु-बान्धवों के लिए शर्मिंदगी का कारण बनता है।
        इसलिए समझदार मनुष्य को चाहिए कि वह क्षणिक प्रलोभन में न फँसकर अपने अंदर मौजूद अच्छाइयों को पहचाने और उन्हें छोड़े नहीं। अपने मन में आने वाले कुविचारों को झटक दे। तभी उसका तथा समाज का उत्थान संभव है।

रविवार, 28 दिसंबर 2014

माँ

माँ से बढ़कर दुनिया में और कोई नहीं हो सकता। ईश्वर ने माँ के रूप में अनमोल उपहार मानव को दिया है। वह मनुष्य की सबसे बड़ी ताकत होती है। बच्चे के जन्म से अपनी मृत्यु तक हमेशा अपने आशीर्वाद से मालामाल करती है।
       हमारे ऋषि-मुनियों ने माँ की महत्ता और बलिदान को समझते हुए उसे देवता का सम्मान दिया और कहा- 'मातृदेवो भव' अर्थात् माता को देवता मानो। भगवान की तरह ही अपनी माँ की भी पूजा करो। ईश्वर की उपासना माँ के रूप में की जाए तो वह हमारी करुण पुकार से शीघ्र द्रवित होता है। तभी दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती के रूप में सारी शक्तियाँ माँ में ही ईश्वर ने समेट दी हैं।
        भगवान की तरह माँ की पूजा का यह तात्पर्य नहीं कि उसकी मूर्ति बनाकर मंदिर में सजा दो और प्रातः-सायं धूप-अगरबत्ती दिखाकर उसकी पूजा करो या शंखनाद करते हुए उसकी प्रशस्ति में गीत गाओ। इसका सीधा सा अर्थ है उसका सम्मान करो, उसकी इच्छा को शिरोधार्य करो। उसकी हर छोटी-बड़ी आवश्यकता को यथासंभव पूरा करने का यत्न करो। कहते हैं माँ के चरणों में स्वर्ग है।
        माता का मनुष्य पर बहुत बड़ा ऋण है। इस संसार में जीव को लाकर इस योग्य बनाती है कि वह अपना सिर उठाकर समाज में जी सके। अपनी एक पहचान बना सके वह नौ मास तक अपने गर्भ में रखकर अपने रक्त से उसको पुष्ट करती है। उसके इस उपकार का ऋण सारी आयु उसकी सेवा करके भी नहीं चुकाया जा सकता।
      वह अपने संतान की खुशी में खुश होती है और उसके कष्ट में तार-तार। अपने सारे सुखों को तिलांजली देकर संतान का पालन-पोषण करती है। बालपन में बच्चे को सुखे का सुख देकर प्रसन्नतापूर्वक स्वयं गीले में सो जाती है। बच्चे को पालते समय अपने सारे कष्ट नजरअंदाज कर देती है।
      माँ पिता के न रहने पर भी अकेले रहकर भी संतान को कलेजे से लगाकर पालती है।
वह अपने बच्चों को माता व पिता दोनों का प्यार देती है। उनकी हर छोटी-बड़ी आवश्यकता को यथासंभव पूरा करती है। उसे अपने ससुराल से कुछ मिले तो ठीक और न मिले तो परवाह नहीं करती बच्चों को अच्छा जीवन देने में।
       इसके विपरीत पिता माँ के परलोक सिधारते ही प्रायः बच्चों के लिए पराए हो जाते हैं। बच्चे दरबदर की ठोकरें खाने के लिए विवश हो जाते हैं।
        जिन्दगी टीवी के सीरियल गोहर की स्थिति को देखकर मन यह सब लिखने का विचार प्रबल हो गया और मैं यह लिखने से स्वयं को रोक न पाई।
        यह केवल सीरियल की बात नहीं है परन्तु समाज में प्रायः ऐसी घटनाएँ यदाकदा दिखाई देती हैं जो मन को अंदर तक हिलाकर उद्वेलित करती हैं। हमारे बड़े-बजुर्ग कहते हैं- 'माँ के मरते ही पिता भी पराया हो जाता है।'
         बड़ विचित्र है ऐसा व्यवहार। जो बच्चे माता-पिता की आँखों के तारे होते हैं, जिनको न देखें तो दिल बेचैन हो जाता है और जिनका जीवन संवारने में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते वे माँ की मृत्यु के बाद कैसे पराए हो जाते हैं? पिता पर बोझ बन जाते हैं और वह उनसे अपना पिण्ड छुड़ाने के उपाय करने लगता है।
       यहाँ सभी सुधीजनों से आग्रह करती हूँ कि जब तक माँ जीवित है अपने दिलोजान से उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करें, उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए अपनी सामर्थ्य के अनुसार सेवा अवश्य करें। उसके जीते जी जीवन काल में यदि न पूछा तो मृत्यु के पश्चात आडंबरों का कोई लाभ नहीं होगा। मंदिरों में जाकर पत्थर की मूर्तियों की पूजा करते हो पर घर में जीवित बैठे देवताओं(माता-पिता) की पूजा करें। इससे ईश्वर तो प्रसन्न होते ही हैं मन को शांति व घर में बरकत भी रहती है। चारों ओर समाज में यश फैलता है। श्रवण कुमार की तरह युगों तक अमरता मिलती है। सभी तीर्थों का फल उसकी सेवा करने वाले को मिलता है।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

फैशन का जनून

फैशन का जनून हर युग में रहा है। स्वयं को दूसरों से अलग दिखाने की होड़ लोगों में लगी रहती है। मानव मन की स्वाभाविक कमजोरी है कि वह सबसे सुन्दर दिखना चाहता है। नित-नये वस्त्राभूषणों की तलाश करता रहता है। ये सभी वस्त्राभूषण व प्रसाधन सामग्री उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगाते हैं।
          ईश्वर ने इस संपूर्ण सृष्टि को बहुत सुन्दर रंगों से तराशा है। एक-एक जीव-जंतु, फल-फूल, पेड़-पौधे को अनोखा सौंदर्य प्रदान किया है। सारी प्रकृति अपनी सुन्दरता से हमें मोह लेती है। जिधर भी नज़र डालते हैं उसका सौंदर्य बोध हमें आश्चर्यचकित कर देता है हम मन्त्र मुग्ध रह जाते हैं।
       इंसान भी इसी तरह सौंदर्य की प्रतिमा बन चहकना चाहता है। इसी कारण नित-नये सौंदर्य प्रसाधनों की बाजार में भरमार हो रही है। बाजारीकरण के इस युग में कंपनियाँ दिन-प्रतिदिन जनमानस को आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के विज्ञापन देते हैं। उन्हें हम टीवी पर देख सकते हैं। समाचार पत्रों व सड़क के किनारे लगे होर्डिंग्स पर भी ये विज्ञापन देखे जा सकते हैं।
       कंपनियाँ अपने उत्पादों को प्रचारित करने के लिए फैशन शो का आयोजन करवाती रहती हैं। युवा पीढ़ी को प्रभावित होने से नहीं रोक सकते। इस दौड़ में शामिल होकर वह धन व शरीर की हानि करती है। शरीर की हानि से तात्पर्य है कि सौंदर्य प्रसाधनों का अत्यधिक प्रयोग त्वचा को खराब करता है। इससे कैंसर जैसी बिमारियाँ गले लगाने को हमेशा तैयार रहती हैं।
       युवाओं को इस अंधानुकरण से बचना चाहिए। इस बात का ध्यान उन्हें रखना चाहिए कि ये प्रसाधन मनुष्य के प्रकृतिक सौंदर्य को नष्ट करते हैं। फैशन के अनुरूप पहनना-ओढ़ना मानवीय कमजोरी है। इससे बचना नामुमकिन तो नहीं पर मुश्किल अवश्य है।
       फैशन करते समय इस बात ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि वह फूहड़ न दिखाई दे। इसका कारण है हर फैशन हर व्यक्ति पर नहीं जँचता। अपने रंग-रूप के अनुसार यदि कलात्मक तरीके से फैशन किया जाए तो मनुष्य सुन्दर व आकर्षक दिखाई देता है लोग उसके सौंदर्यबोध की प्रशंसा करते हैं अन्यथा वह हँसी का पात्र बनता है। लोग भद्दे मजाक करने से बाज नहीं आते। इस छींटाकशी से व्यक्ति का मन दुखी होता है और लोगों का मनोरंजन होता है।
      हर फैशन की भी मर्यादा होती है। अपनी आयु व शरीर के अनुसार फैशन से मनुष्य शालीन दिखाई देता है।
        सुरुचिपूर्ण फैशन कलाकारों, कवियों, चित्रकारों और समाज के सौंदर्य बोध का प्रभावी अंग है। फैशन यदि उत्तेजक व अश्लील न हो तो सर्वत्र सराहनीय होता है।  यदि फैशन फूहड़ या अंग प्रदर्शन का माध्यम बन जाए तो वह समाज में स्वीकार्य नहीं होता। ऐसे लोगों के लिए अभद्र टीका-टिप्पणी की जाती है।
       आधुनिकता के नाम पर हर मर्यादा व मान्यताओं को तोड़ा नहीं जा सकता। आधुनिकता का दंश हमें कहीं का नहीं छोड़ता। अपना घर तो उजड़ता ही है और जग हँसाई भी होती है।
         फैशन की रफ्तार सरपट भागने वाली होती है। पता ही नहीं चलता कब वह आया और कब गया। पलक झपकते ही पुराना हो जाता है। इसीलिए वही-वही डिज़ाइन थोड़ा रूप बदलकर थोड़े समय बाद हमारे सामने आ जाते हैं या कभी उसी रूप में भी। इसलिए फैशन की यह अंधी दौड़ हर किसी को पागल बना देती है।
       फैशन के इस भूत ने युवा पीढ़ी को जकड़ लिया है। इसके चक्कर में वे अपनी सभ्यता व संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। यह स्थिति किसी भी समाज के लिए घातक होती है। समय रहते अपनी जिम्मेदारियों को नहीं को छोड़ यदि इस अंधी दौड़ में बढ़ते जाएँगें तो फिर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

शक

शक का बीज जब मन में रोप दिया जाता है तो समझिए गए काम से। शक का पौधा ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है हमारा सुख-चैन सब छीन लेता है। हमारी नींद गायब हो जाती है और परेशानी हमारा दामन थाम लेती है।
          कहते हैं कि इस शक की बीमारी का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था जो हर मर्ज की दवा करते थे।
        शक का कीड़ा जब मन-मस्तिष्क में कुलबुलाने लगता है तो मनुष्य हर किसी को संदेह की दृष्टि से देखने लगता है। वह किसी पर भी विश्वास नहीं करता। पति अपनी पत्नि व बच्चों पर अविश्वास करता है। पत्नी अपने पति व बच्चों पर विश्वास नहीं करती। सभी एक-दूसरे को शक की नज़र से देखते हैं। मित्रों, सहयोगियों, भाई-बहनों, अपने व्यापारिक साथियों, नौकरों- चाकरों, ड्राइवरों आदि पर संदेह करने का तात्पर्य है सभी पर अविश्वास। सभी पर अविश्वास तो फिर विश्वासपात्र किसे बनाएँगे?
        अपने भाई-बंधुओं पर विश्वास न कर पाना भी एक प्रकार की बिमारी है। यह दीमक की तरह इंसान को भीतर से खोखला कर देती है। यदि अधिक बढ़ जाए तो मनुष्य मानसिक रोगी हो जाता है। उस विकट स्थिति में उसका उपचार करवाना आवश्यक हो जाता है।
         टीवी में हम देखते हैं व समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि इस नामुराद बिमारी के कारण तलाक हो जाते हैं। पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, भाई-बहन, मित्र व बिज़नेस पार्टनर आदि एक दूसरे की हत्या कर देते हैं या किराये के लोगों से खून करवा देते हैं और फिर कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते, बचने के उपाय में पैसा बरबाद करके भी सारी आयु जेल की सलाखों के पीछे बिताते हैं। इससे दूसरे का परिवार तो बिखरता ही है और अपना परिवार भी कष्ट भोगता है। जग हसाई अलग होती है तथा घर-परिवार सभी के लिए मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है।
     आपसी अविश्वास के कारण एक-दूसरे की जासूसी तक करवाते हैं लोग। इसलिए प्राइवेट जासूसों का जाल फैलता जा रहा है। सोचने की बात यह है कि क्या यह समस्या का समाधान हो सकता है?
एक बार यदि शक का घुन रिश्तों में लग जाए तो वे दरकने लगते हैं उनमें स्वभाविक प्रेम बिखर जाता है जो चिन्ता का विषय है।
        कभी-कभी अधिक विश्वास भी संदेह का कारण बन जाता है। इसके कारण मन-मस्तिष्क में द्वन्द्व की स्थिति बनती है। मनुष्य नकारात्मक विचारों से घिर जाता है। मन में चिन्ता, भय व संशय फन फैलाने लगते हैं। मनुष्य कुतर्क करने लगता है व यदाकदा बुरी आदतों का शिकार भी हो जाता है।
        योग हर प्रकार के संदेह में मुक्ति दिलाता है। विश्वास व संदेह के मध्य वाली अवस्था संशय का विरोध करता है।
        संदेह के कारण हम वो सफलता नहीं प्राप्त कर सकते जो हम पा सकते हैं। क्योंकि इंसानी कमजोरी है कि शक हो जाने पर वह हाथ में आए काम को छोड़  देता है। मन में आए संशय को दूर करने के लिए सर्वत्र सफलता की कामना करनी चाहिए। संदेह को यदि गले लगाकर रखेंगे तो दुनिया आगे बढ़ जाएगी और हम दौड़ में पिछड़ जाएँगें।
       संदेह से पीछा छुड़ाना बहुत सबके लिए ही बहुत आवश्यक है। उसके लिए स्वयं में विश्वास जगाना चाहिए। संदेह के स्थान पर यदि विश्वास रखें तो हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होगी।

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

अपरिग्रह

अपरिग्रह से तात्पर्य है आवश्यकता से अधिक संग्रह न करके जरूरत के अनुसार करना। यह अपरिग्रह हमें मितव्ययिता सिखाता है। जिसका तात्पर्य है कि हम हमेशा अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखें उन्हें इतना अधिक न बढ़ाएँ कि जीवन भर अपना सुख-चैन गँवा कर मारामारी करनी पड़े।
         हर धर्म अनावश्यक रूप से संग्रह न करने का परामर्श देते हैं। यह संग्रह धन, संपत्ति, गाड़ी, वस्त्र, आभूषण आदि किसी भी वस्तु का हो सकता है। संग्रह प्रवृत्ति की जब अति हो जाती है तो मनुष्य घर-परिवार, बंधु-बांधवों व समाज से कट जाता है। बस अपने को झोंक देता है। इस खबत में घर-परिवार, बंधु-बांधवों यहाँ तक की अपने बच्चों को भी भूल जाता है। और यह जनून कभी-कभी पागलपन की हद तक भी पहुँच जाता है।
       जब मनुष्य पर अति संग्रह की भावना हावी हो जाती है तब वह पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, अच्छा-बुरा सब भूल जाता है। वह जायज-नाजायज हर हथकंडा अपनाता है। उसी का परिणाम है आज समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, रिश्वतखोरी, बेइमानी, धोखा धड़ी एक दूसरे का गला काटने में भी परहेज न होना आदि। इंसान इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स, प्रापर्टी टैक्स और एक्साइज ड्यूटी बचाने के तरह-तरह के प्रपंच करने से बाज नहीं आता।
       तथाकथित धर्मगुरु जन साधारण को अपरिग्रह का उपदेश देते हैं पर स्वयं धन-संपत्ति का संग्रह करते हैं या दिन-प्रतिदिन देश-विदेश में उसे बढ़ाने की कोशिश में भोले-भाले लोगों से छल-प्रपंच करने में लगे रहते हैं। आखिर वे लोग क्योंकर भूल जाते हैं कि उनकी खबर लेने वाला वह ईश्वर की आँखें उन्हें हरपल व हरक्षण देखती रहती हैं। उनका अपना जमीर भी उन्हें कचोटता होगा पर शायद वे इतने खुदगर्ज बन जाते हैं कि अपनी अंतरात्मा की आवाज़ भी वे अनसुनी कर देते हैं। ऐसे उनके कथन का प्रभाव लोगों पर नहीं हो सकता।
अपरिग्रह का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम घर-बार छोड़ कर साधु बन जाएँ और जंगलों में जाकर तपस्या करें। बल्कि अपरिग्रह की प्रवृत्ति हमें दुखों से बचाना चाहती है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि अपनी आवश्यकताओं को सीमित करके हम अपना जीवन सुखी बना सकते हैं। अपने ऊपर परेशानियों को कम लादेंगे तो टेंशन व अन्य बिमारियों से बचे रहेंगे।
          इसीलिए हमारे संतकवि ईश्वर से प्रार्थना करते हैं-
साईं इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाए।
मैं भी भूखा न रहूँ साधु भी भूखा न जाए॥
यह है अपरिग्रह का सटीक विचार।
       संग्रह करने की मनाही कदापि नहीं है। अपने घर-परिवार की आवश्यकताओं को भली-भाँति पूरा कर सकें तथा अपने अच्छे-बुरे समय के लिए तो अपने पास होना चाहिए। यदि ऐसा न हो तो फिर जिन्दगी की धूप-छाँव किस का मुँह देखेंगे? तब कोई भी सहायक नहीं होता।
        यदि मनुष्य दृढ़ता पूर्वक अपनी आवश्यकताओं को सीमित करे तो आर्थिक विषमता समाप्त की जा सकती है।जीवन शांतिपूर्ण व सुखमय हो सकता है। इसका अर्थ है निरंतर श्रम करके समाज से उतना ग्रहण करें जितनी आवश्यकता है। शेष समाज के भलाई के कार्यों में लगाना चाहिए।
        हमारी संस्कृति में इसे अपनाने पर बल दिया है। महात्मा बुद्ध व भगवान महावीर ने अहिंसा के साथ-साथ अपरिग्रह पर बल दिया है जिसकी आज के युग में बहुत सार्थकता है। विचारकों ने हमेशा परिग्रह का तिरस्कार करके अपरिग्रह को महत्त्व दिया है।
       यह हम पर निर्भर करता है कि हमें जीवन में सुख-शांति चाहिए या मारा-मारी वाली दुख-परेशानियों से भरी जिन्दगी।