रविवार, 30 अप्रैल 2017

दूसरों की बुराई करने से बचो

मानवीय कमजोरी है कि जब वह किसी भी तरह का पापकर्म करता है अथवा धार्मिक, सामाजिक, न्यायिक आदि किन्हीं नियमों का उल्लंघन करता है, तब उसे आनन्द की अनुभूति होती है। उसे लगता है कि मानो उसने कोई किला फतह कर लिया है। अपनी तथाकथित सफलता पर परिणाम की परवाह न करते हुए वह अपनी पीठ थपथपाने से नहीं चूकता।
         इसके अतिरिक्त जब भी कोई व्यक्ति किसी दूसरे के पाप-कर्म का बखान उसकी बुराई करने की नीयत से करता हैं तब उसे और भी प्रसन्नता होती है। हालाँकि अपनी बुराई करने वाला उसे अपना सबसे बड़ा शत्रु प्रतीत होता है। उसे वह किसी भी शर्त पर सहन नहीं कर सकता और उसका चेहरा भी नहीं देखना चाहता। यहाँ उसका दोहरा चरित्र परिलक्षित होता है।
         मनुष्य इस सत्य से अनजान रहना चाहता है कि जिस व्यक्ति के पापकर्मों के किस्सों को वह दुनिया के सामने बड़े ही गर्व से मजे लेकर, नमक-मिर्च लगाकर सुनाता है, उसका कुछ अंश बुराई करने वाले उसके खातों में भी जुड़ जाता है। पाप-कर्म की घटना का यदि बुराई करने के भाव से प्रकटीकरण किया जाए तो इस क्रिया से आनन्द अथवा सन्तुष्टि मिलती है। परन्तु यह खुशी स्थायी नहीं हो सकती। इसका परिणाम भोगना वास्तव में बहुत भयंकर होता है।
         मनुष्य को समय रहते सावधान हो जाना चाहिए। प्रायः लोग सारा जीवनकाल यही सोचने में बिता देते हैं कि उन्होंने अपने इस जीवन में ऐसा कोई भी पापकर्म नहीं किया, फिर उन्हें न जाने किन कर्मों का फल मिल रहा है? उनके जीवन में इतना अधिक कष्ट क्यों आ रहा है? अन्य दूसरे सभी लोग कितने सुखी हैं और उसके हिस्से में केवल कष्ट ही बचे हैं? समझ नहीं आता कि ईश्वर का यह कैसा न्याय है? वह आखिर चाहता क्या है? कौन से जन्म का बदला उससे ले रहा है? आदि।
      मन में उठने वाले इतने सारे प्रश्नों का हल मनुष्य को स्वयं ही ढूँढना होता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये कष्ट और कहीं से नहीं आते बल्कि लोगों की बुराई करने के कारण मनुष्य के पाप-कर्मो से आए होते हैं। बुराई करते ही यह मनुष्य के जमाखाते यानी अकाऊँट में ये तत्काल ही ट्रांसफर हो जाते हैं। फिर समयानुसार फल देते रहते हैं। यह प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है।
      यानी मनुष्य अपना स्वभाव छोड़ नहीं सकता और इसके दुष्परिणाम को भोगने के लिए उसे तैयार रहना चाहिए। इससे उसे संसार की कोई भी शक्ति नहीं बचा सकती। यह तो वही बात हुई कि पहले मजा और फिर बाद में सजा। मनुष्य को यथासम्भव यही प्रयत्न करना चाहिए कि वह किसी की निन्दा-चुगली से बचे और दूरी बनकर रखे।
       इन्सानी कमजोरी है कि वह चटखारे लेकर या रस लेकर ऐसा कुकृत्य करता रहता है। वह भला इस आनन्द को क्योंकर त्यागे। यह तो उसका टाइमपास मनोरंजन होता है। उसके फल का भुगतान आज नहीं तो कल उसे अवश्य ही करना पड़ता है। तब वह चीख-पुकार मचाता है। अपने भाग्य सहित सबको लानत-मलातन करता है। इनसे भी बढ़कर परमपिता परमात्मा को पानी पी-पीकर कोसता है।
         दूसरों की निन्दा-चुगली भी विष्ठा के समान होती है। इस विष्ठा को देखकर हर मनुष्य नाक-भौ सिकोड़ लेता है। उससे बचकर निकलने का प्रयास करता है कि कहीं वह गन्दगी उसे छू न जाए। जाने-अनजाने इस विष्ठा भक्षण से बचना चाहिए। मनुष्य की यह आदत सदैव निन्दनीय कहलाती है। ऐसे मनुष्य को लोग केवल मात्र मनोरंजन का माध्यम समझते हैं। मन से उससे दूरी बनाए रखना चाहते हैं।
      इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि जो व्यक्ति दूसरों की बुराई आपके समक्ष कर रहा है, वही कल दूसरों के सामने आपकी कमियों को भी मजे लेकर उजागर कर देगा। उस समय लोगों की व्यंग्यात्मक नजरों से आप किसी भी प्रकार से बच नहीं सकेंगे। अतः उस विचित्र कशमकश वाली स्थिति से निपटने के लिए स्वयं को सदा तैयार रखिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 29 अप्रैल 2017

कचरे जैसे लोगों से बचें

संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैँ जो कचरे के ढेर की भाँति होते हैं। ऐसे लोगों को कूढ़-मगज कहा जाता है। वे ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा, चिन्ता, निराशा आदि नकारात्मक विचारों का बहुत-सा कूड़ा अपने मस्तिष्क में भरकर रखते हैं। यद्यपि इसका जीवन में न तो कोई महत्त्व होता है और न ही कोई आवश्यकता होती है। जब उनके दिमाग में वह अधिक हो जाता है तब वे उसे दूसरों पर फैंकने का मौका ढूँढ़ने लगते हैं।
        ऐसे लोगों से सदा ही दूरी बनाकर रखनी चाहिए ताकि उनकी गन्दगी से अपने दामन पर कभी छींटे न पड़ सकें। उनकी मूर्खतापूर्ण गन्दगी को एक बार यदि किसी ने स्वीकार कर लिया तो हो सकता है वह भी उनकी ही भाँति बनने लग जाए और फिर उसे लोगों पर गिराने के लिए वह भी अवसर खोजने लगे।
        मनुष्य की यह जिन्दगी बहुत ही अमूल्य और ख़ूबसूरत है। उसे इन मूर्खों के कारण कभी बोझिल नहीं बनना चाहिए। सज्जनों को उनके सदा सद्व्यवहार के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए और दुर्जनों के उनके दुर्व्यवहार के लिए  क्षमा कर देना चाहिए। यह सूत्र अपनाने वाले अपने जीवन की किसी बाजी में कभी मात नहीं खाते।
         कभी-कभी सड़क पर स्वयं आराम से गाड़ी चलते हुए जा रहे हों, उस समय कोई दूसरा चालक तेज गति से अथवा गलत तरीके से अचानक ही सामने आकर तेजी से ब्रेक लगा देता है। तब अपनी गाड़ी उससे टकराते-टकराते बच जाती है। ऐसे में उस तथाकथित मूर्ख चालक से उलझने या गाली-गलौज करने से अच्छा है कि स्वयं पर काबू रखते हुए, उसे भुनभुनाता छोड़कर वहाँ से निकल जाओ।
        इससे स्वयं को बहुत आनन्द आता है और अपनी मानसिक शान्ति बनी रहती है। हाँ, उस मूढ़मति को उसकी गलती का अहसास अवश्य करना चाहिए ताकि वह भविष्य में वैसी गलती न करने के लिए  सजग रहे। यदि सड़क पर खड़े होकर मारपीट करने लगें या झगड़ा कर लिया जाए तो दूसरे के भेजे में समझदारी की बात नहीं समा सकती। न ही इसे समझदारी नहीं कह सकते हैं कि सड़क पर भौंकने वाले कुत्तों के साथ गाड़ी से उतरकर भौंकना आरम्भ कर दिया जाए। उन्हें उनके रास्ते जाने देना चाहिए।
          जिस मनुष्य के पास जो होता है वह दूसरों को वही बाँटता है। जो व्यक्ति सुखी होता है वह सबको सुख बाँटता है और जो दु:खी होता है वह दुःख बाँटता है। इसी प्रकार जो ज्ञानी होता है वह ज्ञान का प्रसार करता है और मूर्ख दूसरों के साथ अपनी मूर्खता साझा करने का प्रयास करता है। दिशाहीन भ्रमित व्यक्ति सब लोगों को भ्रम में रखता है।
         स्वयं भयभीत रहने वाला मनुष्य सबको डराने-धमकाने का कार्य करता है। समाज का दबा-कुचला मनुष्य भी सबको दबाकर रखना चाहता है। सूर्य की तरह चमकने वाला इन्सान ही संसार को दिशा-निर्देश देता है। एवंविध एक सफल व्यक्ति सबको सफलता का मन्त्र देता है और वहीं असफल व्यक्ति किसी का मार्गदर्शक नहीं बन पाता।
          बहुत से मनोरोगी  हमारे आस-पास खुले में घूमते रहते हैं, सभी अस्पताल में भर्ती नहीं किए जाते। मनुष्य को अपनी सोच का दायरा विस्तृत करते हुए सदा ही सकारात्मक विचारों को बढ़ाना चाहिए। अन्यथा उसके मस्तिष्क में नकारात्मक विचारों का कूड़े-कचरा ठीक उसी तरह भरने लगता है जैसे खाली पड़े हुए खेत में फसल न बोने पर वहाँ खरपतवार उगने लगते हैं।
         समाज में रहते हुए प्रत्येक सुधी मनुष्य का नैतिक दायित्व बनता है कि वह निराशा के गर्त में डूबे लोगों में आशा की ज्योति जलाने का कार्य करे। ऐसा करने से यदि किसी का जीवन संवर जाएगा तो वह इस उपकार के प्रतिकार स्वरूप आजन्म ऋणी हो जाएगा। इस सुकृत्य से अपने मन को भी सन्तोष मिलेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

दुःख सेंध लगाते

दुख चोरों की तरह सेंध लगाकर हमारे घर में घुस आते हैं और हमारे जीवन में उथल-पुथल मचा देते हैं। चाहे हम अपने घर को कितना ही मजबूत किले की तरह बना लें या चाहे सारी खिड़कियाँ व दरवाजे बंद कर लें। फिर भी पता नहीं कहाँ से ये घर में घुसने का मार्ग खोज लेते हैं और सबसे छिपते हुए नजरें बचाकर चले आते हैं। घर आकर शांति से मेहमानों की तरह नहीं बैठते बल्कि सारे घर को और वहाँ रहने वाले सभी को अस्त-व्यस्त कर डालते हैं।
        ये दुख बड़ा ही कष्ट देते हैं। इंसान को अपने जाल में ऐसा फंसा लेते हैं कि उससे बचने का कोई रास्ता नहीं सूझता। मनुष्य सोचता ही रह जाता है कि उसे किस गुनाह की सजा मिल रही है।
      कुछ दुख हमारी अपनी नादानियों या गलतियों के कारण हमें मिलते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आलस्य, झूठा अहम, अपने दायित्वों का भली-भाँति निर्वाह न करना, लापरवाही बरतना, अनजाने में ही समाज विरोधी कार्य कर बैठना, समुचित आहार-विहार की ओर ध्यान न देना आदि हमारे आने वाले दुखों का कारण  बनते हैं। ये सभी कारण हैं जिनका फल हमें शीघ्र ही यानि तत्काल, कुछ समय के उपरान्त या इसी जीवनकाल में मिल जाता है।
       इनके अतिरिक्त कुछ दुख ऐसे भी होते हैं जो इस जीवन काल में हमें अपने प्रारब्ध अथवा भाग्य के कारण भोगने पड़ते हैं। सृष्टि की रचना अरबों साल पहले हुई ऐसा हमारे सद्ग्रन्थों का कहना है। हमारे इस भौतिक शरीर में विद्यमान आत्मा ने भी न जाने कितने ही रूप धारण किए होंगे।
       हर जन्म में जीव कुछ-न-कुछ अपराध करता है जिसका फल उसे भोगना ही होता है। जिन दोषों का फल वह भोग लेता है वे समाप्त हो जाते हैं। परन्तु जिन दुष्कर्मों का फल हमें नहीं मिलता वे संचित(इकट्ठे) होकर जन्म जन्मान्तर तक हमारे साथ ही चलते रहते हैं।
       ऐसी कपोल कल्पना है कि मृत्यु के देवता यमराज के पास हमारे सारे कर्मों का लेखा-जोखा रखने के लिए कोई बही-खाता है जो चित्रगुप्त के पास रहता है। ये हम लोगों को अपराध या गलत काम न करने से डराने के लिए रची गई है। खैर, ये संचित कर्म हमारे साथ ही रहते हैं जिनके अनुसार हमारा भाग्य या प्रारब्ध बनता है।
       उसी के अनुसार ही दुख समयानुसार हमारे जीवन में आते हैं और समझाते हैं कि भविष्य के लिए यह चेतावनी है। अब संभल जाओ और अपने जीवन में सत्कर्म करने चाहिएँ।
     अपने दुख हम चाहें भी तो कम नहीं कर सकते। जब तक उनको हम भोग नहीं लेते तब तक उनसे मुक्ति नहीं मिलती। इसका कारण है जो भी कर्म हम करते हैं उनका फल तो भोगना पड़ता है। इसीलिए कहा गया है-
         'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।'
अर्थात अच्छे या बुरे जो भी कर्म हम करते हैं उनको भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। ये कर्मफल पवित्र जल में डुबकी लगाने, तीर्थों की यात्रा करने या तथाकथित गुरुओं की शरण में जाने से नहीं कटते।
      दुख के समय कोई भी हमारा सहायक नहीं होता सब लोग नजरें फेर लेते हैं। उस समय ईश्वर की उपासना, सुधी जनों का साथ व वेदादि सद् ग्रन्थों का अध्ययन हमें उस कष्ट से मुक्त होने तक मानसिक शांति और उसे सहने की शक्ति प्रदान करते हैं।
        इसलिए उस कष्टदायक काल में तथाकथित ज्योतिषियों एवं तान्त्रिकों के पास जाकर अनावश्यक धन व समय की बरबादी से बचना चाहिए। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास को ही हमें अपना एकमात्र आश्रय बनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

बड़ा हुआ तो क्या हुआ

बड़े होने का अर्थ केवल आयु में या लम्बाई (कद) में बढ़ना नहीं अपितु अपने अंतस् में गुणों का संग्रह करना है। ज्यों-ज्यों मनुष्य की आयु बढ़ती है उसके अनुभवों के खजाने में वृद्धि होती जाती है।महापुरुषों का कथन है कि समाज के मार्गदर्शन के लिए अपने विचारों को सबके साथ साझा करना।
     यदि मनुष्य आयु में वृद्ध हो पर उसमें समझदारी न हो तो वह सम्मान के योग्य नहीं होता। उसके अल्प ज्ञान के कारण लोग उसकी अवहेलना करते हैं क्योंकि वह व्यक्ति किसी का दिशानिर्देश नहीं कर सकता। वह स्वयं अपने पर और दूसरों पर बोझ की तरह होता है।
       ऐसे ही लोगों के लिए कवि ने कहा है-
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥
     इस दोहे का अर्थ है कि खजूर के पेड़ की तरह बड़े अर्थात् लंबे होने का कोई लाभ नहीं। ऐसा पेड़ पथिक को छाया नहीं दे सकता और उसका फल भी इतनी दूर यानी ऊँचाई पर लगता है जिसे हाथ बढ़ाकर कोई तोड़ नहीं सकता। इस वृक्ष के फल खाकर कोई अपनी भूख शांत नहीं कर सकता।
       पेड़ की उपयोगिता तभी तक है जब तक वह विश्राम करते यात्री को छाया दे। और भूख से परेशान व्यक्ति को फल खिलाकर उसका पेट भरे। खजूर का पेड़ बहुत ज्यादा लंबा होने के कारण ये दोनों ही परोपकार के कार्य नहीं कर सकता। इसलिए इस पेड़ उचित गौरव नहीं मिलता।
      इसी प्रकार आयु बढ़ने पर उस व्यक्ति को सम्मान नहीं मिलता जो विद्वत्ता व व्यवहारिक ज्ञान से परे है। जिसके पास बैठकर किसी को सद् परामर्श या ज्ञान न मिले तो वह इस धरा पर बोझ की तरह ही है।
     जहाँ तक हो संभव हो हर प्रकार की समृद्धि व योग्यता बटोरते हुए छायादार व फलदार वृक्ष की तरह स्वयं को बनाएं खजूर के पेड़ की तरह नहीं ताकि समाज में आप एक सम्मानित स्थान बना सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 26 अप्रैल 2017

सफलता और धन का द्वार प्रेम

जिस घर-परिवार के सदस्यों में सदा प्रेम, सौहार्द और अपनापन बसता है वहाँ पर धन और सफलता का वास स्वतः हो जाता है। इसका कारण है कि प्रेम कभी अकेला नहीं रहता। जहाँ-जहाँ प्रेम जाता है, वहाँ-वहाँ उसके पीछे धन और सफलता भी बिन बुलाए आ जाते हैं। यदि मानो तो इन तीनों का जमावड़ा मनुष्य की सबसे बड़ी दौलत होता है। इसे सम्हालकर रखना सभी का प्रमुख कर्त्तव्य होता है।
         जिस घर में प्रेम के लिए स्थान नहीं होता वहाँ यदि दुनिया की सारी दौलत का भण्डार लगा दिया जाए तो भी वह व्यर्थ हो जाता है। उसका सबसे बड़ा कारण आपसी सौहार्द का अभाव होता है। जब वहाँ हर सदस्य दूसरे की विपरीत दिशा में चलेगा और अपनी मनमानी करेगा तब घर-परिवार को देखने वाला कोई नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में इन भौतिक वस्तुओं के लिए तब आपस में छीना-झपटी होने लगती है। इस तरह बहुत कुछ टूटकर या बिखरकर रह जाता है, जिसका अहसास समय बीतते होता है।
         आज हमारी संकीर्ण प्रवृत्ति के चलते प्रेम, प्यार, सौहार्द और अपनापन जैसे शब्द मानो शब्दकोश की शोभा बनने लगे हैं। हमसे दूर होकर ये शब्द मानो अपने मायने खोने लगे हैं। इसीलिए घृणा, स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष आदि का साम्राज्य चारों ओर प्रसारित होने लगा है। प्रेम का प्रदर्शन कुछ लोग इतनी सफाई से करते रहतै हैं कि सामने वाला इन्सान बस मूक दर्शक बन, ठगा-सा देखता ही रह जाता है।
       सत्य तो कभी छिप ही नहीं सकता। अतः जब यह मुखौटा चेहरे से उतर जाता है तब मनुष्य का एक अलग-सा ही घिनौना रूप सबके समक्ष प्रकट हो जाता है। उस समय आपसी रिश्तों में सड़ान्ध होने लगती है और फिर उनमें दुर्गन्ध आने लगती है। तब वे रिश्ते नासूर की तरह कष्टदायी बन जाते हैं, उनका उपचार करना हर व्यक्ति के लिए आवश्यक हो जाता है।
         कुछ लोग उन सम्बन्धों से मुक्त होने का भरसक प्रयास करने लगते हैं। उस समय बिना कुछ कहे घर-परिवार टूटने की कगार पर आ जाता है और इस तरह सभी बन्धु-बान्धव भी बिखरने लगते हैं यानी वे एक-दूसरे से किनारा करने के बहाने तलाशने में जुट जाते हैं। यह स्थिति किसी भी सहृदय सज्जन के लिए बहुत ही असहनीय बन जाती हैं। वह इन परिस्थितियों को देखकर बहुत व्यथित होता है।
         यदि घर-परिवार तथा बन्धु-बान्धवों में प्रेम और विश्वास बना रहता है तो उनके समान भाग्यशाली इस असार संसार में कोई और नहीं हो सकता। उन सब लोगों में यह आत्मविश्वास बना रहता है कि किसी भी प्रकार की हर परिस्थिति में वे अपनों का सहयोग मिलने से सुरक्षित रहेंगे। यह आशा मनुष्य को किसी भी विपरीत स्थिति से टकरा जाने का साहस देती है। इसलिए उसे सफल होने से दुनिया की कोई ताकत भी रोक नहीं सकता।
         इस प्रकार सफलता मिलती रहती है। यदि कभी कोई असफल हो भी जाता है, उसे अपनों का इतना प्रोत्साहन मिलता है कि अन्ततः उसे सफलता का स्वाद चखने के लिए अवश्य मिलता है। जब सबके समर्थन से सफलता मिलती है तो फिर धन को आने का मार्ग स्वतः प्रशस्त हो जाता है। वह स्वाभाविक रूप से मनुष्य के पास आने लगता है। प्रेम, सौहार्द एवं एकता के बल पर मनुष्य को हर प्रकार का ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
         बड़े बुजुर्ग कहा करते हैं कि यदि घर-परिवार में मेल-मिलाप बना रहता है त़ो उस घर में कोई सेंध नहीं लगा सकता। उन्हें फलने-फूलने से संसार में कोई शक्ति रोक नहीं सकती। उनका उन्नति करना हर प्रकार से आवश्यक होता है। इसीलिए कहा है कि प्रेम को छोड़कर यदि अकेली सफलता अथवा अकेला धन मनुष्य के पास आ जाए तो उसे उतना मानसिक सन्तोष नहीं मिल पाता। परन्तु अकेला प्रेम ही मनुष्य को सब कुछ प्रदान कर सकता है। अतः इस पूँजी को यत्नपूर्वक सहेजकर रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

हृदय ब्रह्म का रूप

हृदय शब्द की व्याख्या करते हुए बृहदारण्यक उपनिषद् कहती है कि हमारा हृदय ही ब्रह्म है, यही प्रजापति है अर्थात् यही सब कुछ है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह हृदय इस मनुष्य जीवन का संचालक है। इसकी तीन सन्तानें हैं- देव, मनुष्य और असुर।
           हृदय शब्द तीन अक्षरों से बना है- हृ+द+य। वैदिक व्याकरण में इनका अर्थ बताया है- हृ का अर्थ है 'हरति' अर्थात् लाना। द का अर्थ है 'ददाति' अर्थात् देना और य का अर्थ है 'याति' अर्थात् जाना।
         जो इस रहस्य को समझ लेते हैं कि हृदय ही सब कुछ है यानि कि वही ब्रह्मा है, वही प्रजापति है। अपने और पराए सभी उसे उपहार लाकर देते हैं। जो इसे पूरी तरह जान लेता है वही स्वर्गलोक को जाता है। कहने का तात्पर्य है कि वह सभी प्रकार से सुखी रहता है।
         हम सब जानते है कि हृदय मनुष्य के लिए कितना आवश्यक है। यह जब तक  ठीक से कार्य करता रहता है, तब तक ही मनुष्य स्वस्थ रहता है। जहाँ इसमें विकार आया वहीं से परेशानी आरम्भ हो गई। यह लेता है, देता है और चलता है।
          इसका कार्य रुधिर का लेना और देना होता है। यह शरीर से अशुद्ध रक्त को लेकर फेफड़ों द्वारा शुद्ध करके शरीर को वापिस लौटा देता है। इसी उद्देश्य को लेकर यह निरन्तर गतिमान् रहता है। यह न दिन देखता है और न रात, बस चलता ही रहता है। इस प्रकार हृदय शब्द के अर्थ से रुधिर की गति अथवा बल्ड सर्कुलेशन का भाव आ जाता है।
          यदि यह हमारी तरह सोचने लगे कि वह चलते-चलते, अपना काम करते हुए थक गया है, अब उसे आराम करना चाहिए तो वहीं, उसी पल इस मनुष्य जीवन का अन्त हो जाता है। कहते हैं न कि मृतक का हार्ट फेल हो गया।
          अभी ऊपर इसकी तीन सन्तानों की हमने चर्चा की थी। पहली सन्तान है देव। देव संयमी होते हैं। ये सदा ही मनुष्य को संयम करना सिखाते है, मर्यादा का पालन करने की शिक्षा देते हैं। ये मनुष्य को खानपान और आचार-व्यवहार आदि हर स्थान में जीवन को संतुलित रखने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। जो लोग अपनी जीवन शैली नियमानुसार चलाते हैं उन्हें दुखों और कष्टों का सामना अपेक्षाकृत कम करना पड़ता है। उनका खानपान ऋतु के अनुसार होता है, वे समय पर सोते हैं और जागते हैं। वे सदा स्वास्थ्य के नियमों का पालन करते हैं।
          दूसरी सन्तान है मनुष्य। ये कभी देवों की तरह संयमी बन जाते हैं तो कभी असुरों की तरह क्रूर बन जाते हैं। इनका ढुलमुल रवैया इन्हें स्वयं का मित्र और शत्रु बना देता है। जब ये दैवीवृत्ति की तरह स्वास्थ्य के नियमों का पालन करते हैं तो अपने मित्र बन जाते हैं उस समय उनका शरीर नीरोग रहता है। परन्तु जब असुरों की तरह अपने प्रति लापरवाह हो जाते हैं तो सभी नियमों की अनदेखी करते हैं। तब शरीर रोगी हो जाता है और मनुष्य कष्ट पाता है। डाक्टरों के पास इलाज के लिए जाता हुआ धन व समय की बरबादी करता है।
          इसकी तीसरी सन्तान हैं असुर। वे हर नियम को, हर बन्धन को तोड़ने के पक्षधर होते हैं। उनका वश चले तो सारे एक्सपेरिमेंट इसी जीवन में अपने शरीर पर कर डालें। मानव शरीर में जब आसुरी वृत्ति बलवती हो जाती है तब आँख, नाक, कान, जिह्वा आदि सभी इन्द्रियाँ बेलगाम घोड़ों की तरह ही अनियन्त्रित हो जाती हैं। सबकी मनमानी इस अमूल्य शरीर का सत्यानाश कर देती है।
           खाने-पीने, सोने-जागने यानि कि आहार-विहार में हर तरह की लापरवाही हमारे हृदय की गति के लिए घातक हो जाती है। शरीर दिन-प्रतिदिन रोगों का घर बनता जाता है। एक समय ऐसा आता है जब मनुष्य ईश्वर से प्रार्थना करने लगता है कि वह इस शरीर से उसे मुक्त कर दे।
           अपने इस हृदय रूपी ब्रह्म या प्रजापति को सम्मान देना हमारा कर्त्तव्य है। इसकी चिन्ता और सुरक्षा ही हमारे स्वस्थ जीवन की कुँजी है। इसलिए किसी भी प्रकार की असावधानी हमारे जीवन में सेंध लगा सकती है। इससे बचना चाहिए और सजग रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 22 अप्रैल 2017

फूँक-फूँककर कदम रखें

इतनी गम्भीरता मनुष्य में होनी चाहिए कि जो भी विष अथवा अमृत उसे इस संसार में रहते हुए मिल जाए उसका पान करने या आत्मसात करने का कौशल उसे आना ही चाहिए। तभी वह एक सफल और योग्य व्यक्ति बन सकता है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि इन्सानी स्वभाव है कि वह अपने साथ घटित होने वाली घटनाओं को कदापि विस्मृत नहीं कर सकता। चलचित्र की भाँति वे उसके मानसपटल पर चलती रहती हैं।
         इस जीवन से जो भी मिले, उसे पचाने की कला सीख लेनी चाहिए। यदि मनुष्य के पास इतनी सामर्थ्य है कि उसे दो समय का भोजन सरलता से मिल सकता है तो उसके लिए उसका पाचनतन्त्र स्वस्थ होना चाहिए अन्यथा भोजन के न पच पाने से उस पर मोटापे की पर्तें चढ़ने लगती हैं। उसका सुन्दर शरीर जिस वह मान करता है, वह बेडौल होने लगता है। फिर असमय ही अनेक व्याधियाँ उसे घेरने लगती हैं।
          अथक परिश्रम करने के उपरान्त जब मनुष्य के पास जब अपार धन, दौलत अथवा समृद्धि आने लगती है तब उसके व्यवहार में आने वाला परिवर्तन प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगता है। मनीषी कहते हैं कि पैसा बोलता है। इसका अर्थ यही लगाया जा सकता है कि एक-एक करके सुख-सुविधा के साधन घर में जुटाए जाने लगते हैं। जो निश्चित ही हर किसी की नजर में आते हैं।
        उस समय मनुष्य का दिमाग सातवें आसमान पर होता है। अपने अतिरिक्त सभी उसे सभी लोग कीड़े-मकौड़ों की तरह दिखाई देते हैं। अपने अहं को तुष्ट करने के लिए वह अनेक उपाय करता रहता है। गुड़ पर मक्खियों की तरह स्वार्थी लोग उसके आसपास मण्डराते रहते हैं। उसका प्रशस्ति गान करते हैं। उसे महान बताकर उसका अहंकार बढ़ाते हैं।
 अपना कार्य निकल जाने पर उससे किनारा कर लेते हैं। ऐसी अवहेलना उससे सहन नहीं हो पाती। उन्हें वह अपना अघोषित शत्रु मानने लगता है। यदि उसका वश चल सके तो समाज में उनका हुक्का पानी बन्द करवा दें अथवा फिर उन्हें ऐसे अन्धेरे कुएँ में धकेल दें जहाँ से वे कभी वापिस न लौट सकें।
         इस बात का दुख उन्हें आजन्म ही सताता है कि अज्ञानवश उन्होंने ने स्वार्थी लोगों का पोषण किया। यदि वे अपनी इस निराशा को नियन्त्रित कर लेते हैं तो सुखी रहते हैं। इसके विपरीत अपनी मूर्खता को न पचा पाने से उनकी निराशा बढ़ती है। कभी-कभी इस प्रकार अनावश्यक तनाव से मनुष्य को अवसाद भी हो जाता है। यह वास्तव में घर-परिवार और बन्धु-बान्धवों के लिए एक चिन्ता का कारण अवश्य बन जाता है।
        सौभाग्यवश जब सुख-समृद्धि, सत्ता, शक्ति आदि में से कुछ भी मनुष्य की झोली में आ जाता है तब उसे अहंकार का दामन छोड़कर सहृदयता और सरलता को अपनाना चाहिए। यद्यपि यह मार्ग कठिन है परन्तु असम्भव नहीं है। इस रास्ते पर चलता हुआ वह अपने खाते में पुण्यों या सत्कर्मों की वृद्धि करता है। सन्मार्ग से भटक जाने पर वह पापकर्मों को अपने लिए एकत्र करता चलता है।
          निस्सन्देह विवेक मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र होता है। उस पर उसे आँख मूँदकर विश्वास करना चाहिए। इसके द्वारा दिए गए सद्परामर्श के अनुसार चलने से उसे कदाचित ही असफलता का मुँह देखना पड़े। हाँ, उसके बताए मार्ग को अनदेखा करके अवश्य ही वह अपने लिए संकटों को न्यौता देने का कार्य कर बैठता है।
       मनुष्य को सावधान रहते हुए फूँक-फूँककर अपना प्रत्येक कदय उठाना चाहिए। किसी भी कार्य को करने से पहले उसके हर पक्ष पर विचार करना आवश्यक होता है। अन्यथा फिर पश्चाताप ही शेष बचता है। उन सब अपरिहार्य स्थितियों से बचना मनुष्य का पहला कर्त्तव्य होना चाहिए। मनुष्य अपनी मूर्खताओं के मुँह के बल गिरता है और अपनी समझदारी से वह सदा आगे ही बढ़ता जाता है।
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