बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

पति-पत्नी का रिश्ता

पति-पत्नी एक ही रथ के दो पहिए हैं जिसमें दोनों का महत्त्व बराबर है। किसी एक को भी महान की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। दोनों ही अपना-अपना योगदान देते हैं, परिवार को चलाने में। किसी एक के न होने पर सब गड़बड़ हो जाता है। पति और पत्नी का रिश्ता जन्म-जन्मान्तर यानि सात जन्मों का होता है, ऐसा हमारी भारतीय संस्कृति मानती है। इसीलिए कहते हैं कि जोड़ियाँ ऊपर से बनकर आती हैं। इस रिश्ते को सही तरीके से निभाना पति और पत्नी दोनों का ही दायित्व होता है। इसमें चूक होने की गुँजाइश कदापि मान्य नहीं होती।
          स्कूल में पढ़ते समय अंग्रेजी भाषा की एक कहानी पढ़ी थी। उसमें जिम और डैला दोनों पति-पत्नी थे। वे सुविधा सम्पन्न नहीं थे। वे अभावग्रस्त जीवन व्यतीत कर रहे थे। जिम के पास सुन्दर-सी सोने की एक घड़ी थी पर उसकी चेन सोने की नहीं थी। डैला चाहती थी कि जिम की घड़ी में सोने की चेन हो। डैला के बाल बहुत सुन्दर थे जिनके लिए जिम एक सोने का क्लिप खरीदना चाहता था। दोनों ही अपनी आर्थिक स्थिति के कारण बहुत मजबूर थे। चाहकर भी सोने की चेन अथवा सोने का क्लिप खरीदना उनके बूते से बाहर था।
           समय बीतते जिम का जन्मदिन आया। उस दिन डैला ने जिम की घड़ी के लिए सोने की चेन उपहार स्वरूप खरीदने की सोची। परन्तु पैसे तो उसके पास नहीं थे। वह पार्लर गई और उसने अपने सुन्दर बाल बेच दिए। उन पैसों से उसने घड़ी के लिए सोने की चेन खरीदी। उधर जिम ने अपनी पत्नी को रिटर्न गिफ्ट देने के लिए अपनी घड़ी बेच दी और उसके लिए सोने का क्लिप खरीद लिया।
          शाम के समय उन्होंने एक-दूसरे को सोने की चेन और क्लिप भेंट किए। अपनी-अपनी पूँजी को गँवाकर भी वे एकदम-दूसरे के प्रति समर्पण भाव से विभोर हो उठे।
           ऐसा समर्पण भाव पति-पत्नी के मध्य होना आवश्यक होता है। उन दोनों में आपसी प्रेम और विश्वास होना आवश्यक है। इसके बिना आपस में सामञ्जस्य नहीं स्थापित किया जा सकता। उन दोनों को दो जिस्म और एक जान की तरह जीवन व्यतीत करना चाहिए। तभी उनके जीवन में खुशियाँ बरकरार रह सकती हैं।
           दोनों के सुख-दुख भी साझे होने चाहिए। उन दोनों के मध्य किसी स्थिति में तीसरे की गुँजाइश नहीं होनी चाहिए। आपसी विश्वास गृहस्थ जीवन की पहली सीढ़ी है। दोनों को सहनशीलता अपनानी चाहिए। यदि दोनों में से कोई एक अपने साथी से विश्वासघात करता है तब रिश्ते दरकने लगते हैं। उसका अन्त अलगाव होता है। उनका अलग होना घर-परिवार को तोड़ देता है। मासूम बच्चे बिना किसी दोष के सबसे अधिक कष्ट भोगते हैं।
           अपने-अपने पूर्वाग्रह त्याग करके उन्हें भावी जीवन के लिए योजनाएँ बनानी चाहिए। उन दोनों का व्यवहार परस्पर सहृदयतापूर्वक होना चाहिए। मन, वचन और कर्म से इस पावन रिश्ते को निभाना चाहिए। इससे आपसी मनमुटाव बिल्कुल नहीं होता। पति-पत्नी दोनों में प्रेम और विश्वास दिन-प्रतिदिन बढ़ता है।
           इस प्रकार का व्यवहार जब उन दोनों के बीच होता है तब उनके मध्य की सभी दूरियाँ समाप्त हो जाती हैं और उनके हृदयों के तार जुड़ जाते हैं। जिसे हम दूसरे शब्दों में टेलीपेथी कह सकते हैं। यही टेलीपेथी उनके जीवनों के जुड़ाव का प्रमाण होती है। उन्हें इसे सिद्ध करने के लिए किसी शपथ को खाने की आवश्यकता नहीं होती।
           पति-पत्नी में ऐसी प्रगाढ़ता सफल दाम्पत्य जीवन का मूल मन्त्र होती है। ऐसा घर सबके लिए एक उदाहरण बन जाता है। वहीं स्वर्ग जैसी सुख-शान्ति होती है। धन-वैभव की यदि कभी कमी भी हो तो उनके व्यहार में कोई परिवर्तन नहीं आता। वे एकजुट होकर संकटों से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार रहते हैं।
         हर माता-पिता को अपने बच्चों में ऐसे संस्कार बचपन से ही देने चाहिए कि कैसी भी परिस्थिति हो वे अपने जीवन साथी के साथ, सारा जीवन एक-दूसरे की कमियों को अनदेखा करते हुए, राजी-खुशी व्यतीत करके सबके समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करें। इसी में सबका सुख-चैन निहित है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

कुलीन का सदाचरण

कुलीन अथवा अच्छे कुल में जन्म लेने वाले किसी मनुष्य को अपरिहार्य परिस्थितियों में भी अपने सद्गुणों का परित्याग कभी नहीं करना चाहिए। उसे कदापि अपने कुल के संस्कारों के विपरीत कार्य नहीं करना चाहिए। उसका शील-व्यवहार अपने कुल के अनुरूप ही दूसरों के लिए आदर्श होना चाहिए। उसे हर स्थिति में अपने धैर्य को बनाए रखना चाहिए तथा अपने विवेक का सहारा लेते हुए कदम आगे बढ़ाना चाहिए।
          आम जन ऐसे ही कुलीन सदाचारी, परोपकारी मनुष्यों का मुँह ताकते हैं। कुलीन व्यक्ति कभी दुराचरण नहीं कर सकता, यह अवधारणा सबके मन में बसी रहती है। सच्चाई यही है कि अच्छा कुल वही मन जाता है जिसमें रहने वाले प्रत्येक सदस्य का आचार-व्यवहार दूसरों के लिए आदर्श होता है। वहाँ सभी मिल-जुलकर रहते हैं। चन्दन की तरह उनकी सुगन्ध सर्वत्र फैलती रहती है। वहाँ छोटे बड़ों का मन करते हैं और बड़े उन्हें संरक्षण देते हैं। यानी आपसी प्यार-मुहब्बत वहाँ बना रहता है। यदि किसी सदस्य को समस्या का सामना करना पड़ जाता है तो सब मिलकर उसका हल खोज लेते हैं। किसी को कानों-कान खबर भी नहीं हो पाती। हर व्यक्ति उनके साथ अपना सम्बन्ध बनाने के लिए आतुर रहता है।
           कुलीन मनुष्य के विषय में निम्नलिखित श्लोक में बहुत ही सुन्दर शब्दों में चित्रण किया गया है-
        छिन्नोऽपि  चन्दनतरुर्न  जहाति   गन्धम्।
        वृद्धोऽपि  वारणपतिर्न  जहाति  लीलाम्।।       
        यन्त्रार्पितो   मधुरतां   न   जहाति   चेक्षुः।                                                                                       
        क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः।।                                                                                                                       
अर्थात जिस प्रकार काटे जाने पर भी चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्ध का त्याग नहीं करता, वृद्धावस्था को प्राप्त होने पर भी गजराज अपनी क्रीड़ा नहीं छोड़ता, कोल्हू में पेरे जाने के बाद भी ईख (गन्ना) अपनी मधुरता का त्याग नहीं करती, इसी प्रकार कुलीन मनुष्य भी दरिद्रता अथवा विपन्नता की स्थिति आ जाने पर अपने शीलता या चारित्रिक के गुणों का त्याग नहीं करता।
         इस श्लोक में उदाहरण सहित अपनी बात को कवि ने स्पष्ट किया है। चन्दन की सुगन्ध जंगल में दूर-दूर तक फैलती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि चन्दन का वृक्ष काट दें तो वह सबको महकना छोड़ देगा। हम देखते हैं कि चन्दन के छोटे से टुकड़े को वर्षों बाद भी घिसो तो भी वह सुगन्ध और शीतलता देता है। इसी प्रकार हाथी चाहे वृद्ध हो पर जलक्रीड़ा करना नहीं छोड़ता। नदी के जल में वह स्नान करता है, अपनी सूँड में पानी भरकर फव्वारे की तरह छोड़ना नहीं भूलता। अपने आसपास हम गन्ने के रस की मशीने देखते हैं। वहाँ उसे इतना निचोड़ लिया जाता है कि उसमें शायद ही रास की कोई बूँद बचती है। फिर भी उसके शेष में मिठास राह जाती है, वह समाप्त नहीं होती।
          कवि ने ये सभी सार्थक उदाहरण दिए हैं। यह सत्य है कि कुलीन व्यक्ति समय व परिस्थितियों के द्वारा कितना भी प्रताड़ित क्यों न किया जाए, वह अपने कुल के संस्कार नहीं छोड़ता। यह मैं भगवान श्री राम का उदाहरण भी देना चाहती हूँ। अगले दिन प्रातः उन्हें राज्य मिलना था, परन्तु उनकी सौतेली माता केकैयी के कहने पर उन्हें वन में जाना पड़ा। चाहते तो पिता के कथनानुसार वे विद्रोह कर सकते थे। उनकी आज्ञा का पालन करने से इन्कार कर सकते थे। अपने कुलनुरूप उन्होंने व्यवहार किया यानी वे सारी अयोध्या को रोता छोड़कर चौदह वर्ष के लिए वन में चले गए। वहाँ भी अनेक कष्टों का उन्होंने सामना किया। अपने कुल को कलंकित नहीं किया। इसीलिए इतने युगों के बीत जाने पर भी उन्हें स्मरण किया जाता है। लोग उन्हें भगवान मानकर उनकी पूजा करते हैं।
          कहने का तात्पर्य यही है कि कुलीन लोग कैसी भी स्थिति में हों अपने कुल के आदर्शों का त्याग नहीं करते। वे अपने उन मूल्यों के लिए अपने जीवन की बाजी तक लगा देने में भी नहीं हिचकिचाते। इतिहास भर पड़ा है ऐसे महानुभावों के चित्रण से। अतः अपने सदाचरण से ही कुलीन होने की पुष्टि की जा सकती है।
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सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

प्राप्त वस्तु का मूल्य नहीं

कटु सत्य है मनुष्य के जीवन का कि वह जिस भी वस्तु को प्राप्त करने की कामना करता है या हसरत रखता है, उसे पाने के लिए दिन-रात एक कर देता है। परन्तु जब उसे पा लेता है तो उसके लिए उसका महत्व कुछ भी नहीं रह जाता। वह वस्तु मानो उसके लिए सामान्य-सी हो जाती है। हो सकता है वह फिर उसे देखे ही नहीं। उसके बाद कुछ नया पाने का जुनून उस पर सवार हो जाता है। इस प्रकार यह क्रम अनवरत चलता रहता है। यानी जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त वह इस चक्र से कभी मुक्त नहीं हो पाता।
         इन्सान का मन भी बालक के मन की तरह हर दिन कुछ नया खिलौना चाहता है। उसके पास चाहे ढेर खिलौने हों, पर जब भी वह कोई नया खिलौना अपने मित्र के पास या बाजार में घूमते हुए देखता है, उसे पाने के लिए मचलने लगता है। माता-पिता से उसे दिलाने की जिद करता है। हो सकता है कि माता-पिता की हैसियत ही न हो उसे खरीदने की या उसकी उसे आवश्यकता ही उसे न हो। परन्तु जब वे उसे उसका मनचाहा खिलौना खरीदकर देते हैं तो वह उसे पाकर ऐसे प्रसन्न हो जाता है मानो उसने कोई जंग जीत ली हो या फिर कारू का खजाना उसके हाथ लग गया हो। दो-चार दिन ही वह उससे खेलता है, फिर उससे बोर होने लगता है। कुछ बच्चे पुनः मुड़कर उस खिलौने की ओर नहीं देखते और कुछ शरारती बच्चे उसे तोड़-मरोड़कर इधर-उधर फैंककर बरबाद कर देते हैं। उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं होता कि माता-पिता ने किन आवश्यक खर्चों में कटोती करके, कितना पैसा उस पर खर्च किया है।
          मनुष्य की इसी प्रवृत्ति का बयान करती हुई यह एक कथा है जो हम में से बहुत मित्रों ने सुनी होगी।
          शिकार की खोज में जंगल में घूमते हुए एक शिकारी भटक गया। उसे कहीं भी रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। बहुत प्रयास करने के उपरान्त भी उसे जंगल से बाहर निकलने का मार्ग नही मिल सका। इस तरह जंगल में इधर-उधर घूमते हुए उसे कई दिन हो गए। उसने कुछ भी नहीं खाया था। भूख-प्यास से व्याकुल होकर वह छटपटाने लगा था। भूख उसकी सहनशक्ति से अब बाहर हो रही थी। अपनी क्षुधा शान्त करने के लिए वह फल तलाशने लगा।
         उसे निराशा होने लगी थी और ऐसा लगने लगा था कि अब उसके बचने की कोई आशा नहीं रह गयी है। तभी अचानक उसे एक सेब का पेड़ नजर आया। उसने तुरन्त ही कुछ सेब तोड़कर अपने पास रख लिए। पहला सेब खाते ही मानो उसमें जीवनी शक्ति का सञ्चार हो गया। उसकी प्रसन्नता का कोई पारावार न रहा। ईश्वर का धन्यवाद करते हुए उसने अपनी कृतज्ञता ज्ञापन की।
           दूसरा सेब खाते समय उसकी खुशी कम हो गई। धीरे-धीरे पाँचवें सेब को खाते समय तक उसकी खुशी समाप्त ही होती गई। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि पाँचों सेबों में किसी प्रकार के स्वाद की कमी थी या वे खराब थे। इसका स्पष्ट अर्थ यही था कि भूख से तड़प रहे शिकारी को पहला सेब खाकर लगा कि वह मानो जी उठा है। अब उसकी क्षुधा शान्त हो रही थी, उसका पेट भरने लगा था। उसके पश्चात वाले सेब भी हालाँकि उसकी भूख को शान्त कर रहे थे, पर उसकी भूख कम होते हुए समाप्त हो रही थी। इसलिए धीरे-धीरे सेबों का आनन्द भी कम हो रहा था।
        हम सब लोग भी उस शिकारी की भाँति ही हैं। जिस वस्तु को हम व्याकुलता की स्थिति तक पाना चाहते हैं, जब उसे कठोर परिश्रम करके पा लेते हैं तब ऐसा लगने लगता है कि अमुक वस्तु को पा लेना कोई असाधारण बात नहीं। इसे पा लेना तो हमारे बाँए हाथ का खेल था। तब परिश्रम से कमाई गई वह वस्तु विशेष से साधारण हो जाती है। उसके प्रति हमारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। इस जीवन में हमें ईश्वर की ओर से निरन्तर उपहार मिलते रहते हैं। इससे और और पाने का हमारा मोह नित्य प्रति बढ़ता ही जाता है। इन उपहारों के दाता के प्रति हमारी कृतज्ञता भी धीरे-धीरे कम होने लगती है। हमें लगता है कि ईश्वर जो भी हमें देता है, उस पर तो हमारा हक है। इस प्रकार अपने झूठे अहं के कारण हम उसकी उपेक्षा करने लगते हैं।
          वास्तव में होना तो यही चाहिए कि हमें इस जीवन में आने वाला हर दिन, हर पल बीते हुए किसी भी दिन या पल की तरह ही मूल्यवान प्रतीत होना चाहिए। बिनमाँगे मनुष्य को अपनी नेमतों से सदा मालामाल करने वाले ईश्वर और अपने इस जीवन के प्रति उसे सदा कृतज्ञ होना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 25 फ़रवरी 2018

महानता रूपी गुण

किसी व्यक्ति विशेष का एकाधिकार महानता रूपी विशिष्ट गुण पर नहीं होता। हर व्यक्ति को महान बनने का पूरा अधिकार है। जो भी मनुष्य इस महानता के मार्ग पर चलना चाहता है उसे अपनी नित्य प्रति की जीवनशैली में थोड़ा-सा परिवर्तन करना पड़ता है। यानि स्व से पर अथवा व्यष्टि से समष्टि की ओर बढ़ना होता है।
           दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उसे अपने हृदय को संकुचित करने के स्थान पर विशाल बनाना होता है। केवल अपने घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों के साथ-साथ उसे प्राणिमात्र का हितसाधक बनना होता है। इस संसार के सभी जीवों को उसे अपने कुटुम्ब के सदस्य की तरह ही मानना होता है।
             जीवन में आगे बढ़ने और सफल होने के लिए मनुष्य को फूँक-फूँककर कदम रखना होता है। दूसरों को नीचा दिखाने के स्थान पर वह सबकी उन्नति की कामना करनी होती है। दूसरों की सफलता से ऐसा मनुष्य जलता नहीं है बल्कि प्रसन्न होता है। दूसरों के धन को मिट्टी के ढेले के समान समझता है। इसलिए वह उसे हड़प करने के बारे में मन से भी नहीं सोचता। वह जो भी ग्रहण करता है, उसे बादल की तरह संसार को लौटा देने के लिए कटिबद्ध रहता है।
            दूसरों की निन्दा-चुगली करने के स्थान पर वह अपने समय का सकारात्मक उपयोग करता है। सदा सद् ग्रन्थों का स्वाध्याय करता है। परोपकार के कार्यों में समय व्यतीत करता है। सबको जीवन में प्रयत्नपूर्वक आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है।
            महान लोग अपने जीवन में लक्ष्य निर्धारित करके उसे पूर्ण करने के लिए जुट जाते हैं। अपने जीवन को यज्ञमय बनाते हैं। उनका सारा जीवन समाज, देश और धर्म के सुधार कार्यों में ही व्यतीत होता है। हमेशा समाज में फैली हुई कुरीतियों के प्रति लोगों को सावधान करते रहते हैं।
           अपने जीवन को सदा ही सामाजिक, नैतिक और धार्मिक नियमों के अनुसार चलाने वाले ये लोग दूसरों से भी उन नियमों का पालन करने की अपेक्षा करते हैं। तभी ये समाज में अग्रणी बनकर दिशादर्शन का कार्य बखूबी निभाते हैं।
         किसी भी मनुष्य की व्यथा कथा से ये सहृदय लोग आहत हो जाते हैं। उसके कष्ट को दूर करने का यथासम्भव प्रयास करते हैं। ये महापुरुष पूर्णरूपेण विश्वसनीय होते हैं। दूसरों के रहस्यों को खजाने की तरह गुप्त रखते हैं।
            महान लोगों का सबसे बड़ा गुण होता है निर्विकार और निरहंकार रहना। ये महानुभाव हर किसी की परवाह अपने-पराए के भेदभाव से परे रहकर करते हैं। उनके मन में कर्त्तापन का अभिमान कदापि नहीं आता। इसलिए ये सरल व कोमल होते हैं। इन लोगों के साथ कोई कितना भी  दुर्व्यवहार कर ले, उन्हें भला-बुरा कह ले, उसे दण्ड देने के स्थान पर क्षमा कर देने में विश्वास रखते हैं। इसीलिए इन्हें क्षमाशील कहा जाता है।
            ये महानात्मा इस संसार के सभी कार्य-व्यवहार करते हुए भी जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहते हैं। अपनी धुन में मस्त ये लोग राग-द्वेष से दूर रहते हैं। किसी को भी इनके संयमित व्यवहार से छल-कपट अथवा किसी प्रकार के षडयन्त्र की बू तक नहीं आती।
            अपने अंतस् में महानता का गुण समेटे ये महानुभाव सदा 'सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय' अर्थात् सब लोगों के हित के कार्य करना और सबके सुख की चिन्ता करने को ही अपने जीवन का परम उद्देश्य बना लेते हैं। जो भी इन गुणों को आत्मसात कर लेता है, वह भी महान हो जाता है। जिस पथ पर ये चलते हैं, उसी मार्ग के उन पदचिह्नों पर आने वाली पीढ़ियाँ चलकर अपने जीवन को धन्य बनाती हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

मुँह देखे की माया

'सब जीते जी की माया है' या 'मुँह देखे की माया है' ऐसी उक्तियाँ हमें प्रायः सुनने को मिल जाती हैं। इनके पीछे छिपा सार बहुत ही गम्भीर और मन को कष्ट देने वाला होता है। अपनों से जाने-अनजाने दूरी बन जाती है परन्तु सामने पड़ जाने पर ऐसे प्रदर्शित किया जाता है कि उस व्यक्ति विशेष से बढ़कर इस दुनिया में कोई और सगा है ही नहीं। उस समय मनुष्य का मन आह्लादित होने के स्थान पर मनन करने के लिए विवश हो जाता है।
           बहुत विचित्र है इस दुनिया का दस्तूर है कि कोई व्यक्ति कितना भी प्रिय हो, उसके बिना जीने की कल्पना करना भी चाहे कठिन हो, उसकी मृत्यु के बारे में सोचने मात्र से ही बेशक दिल दहल जाता हो। परन्तु वास्तविकता कुछ अलग ही बयान करती है। अपना प्रियतम व्यक्ति जब काल के गाल में समा जाता है, तब उसे कुछ समय भी सहन करना दुश्वार हो जाता है। उसे घर से निकालने के लिए मनुष्य बेसब्र हो जाता है।
          उस समय कोई हमदर्द या सगा नहीं रह जाता। जिसे काँटा चुभने पर या जरा-सी चोट लगने पर हम बेचैन हो जाते हैं, सारा घर सिर पर उठा लेते हैं, उसी लाश बन चुके व्यक्ति को शमशान में ले जाकर, शीघ्र ही उसे अग्नि के सुपुर्द करने में हम समय नहीं लगते। तब उसे अपने उसी घर से ही बेदखल कर देते हैं जिसे उसने बहुत ही हसरतों से बनाया होता है। यह वही समय होता है जब अपने लोग ही पूछ्ने लगते हैं कि अभी और कितना समय लगेगा इसके संस्कार में। इससे विचित्र और क्या हो सकता है इस संसार में?
         अपना कहे जाना वाला मनुष्य भी ऐसी अवस्था में पराया हो जाता है। उसके साथ किसी को भी सुहानुभूति शेष नहीं बचती। उससे छुटकारा पाने का हर सम्भव प्रयास देखते-ही-देखते शीघ्र कर लिया जाता है। फिर कहते हैं-
               आज मरे कल दूसरा दिन।
मनुष्य नहीं, उसकी यादें शेष अवश्य बच जाती हैं। उन्हें अपने हृदय में संजोकर रख लिया जाता है।
         मनुष्य को अपने जीवनकाल में ऐसे कार्य कर लेने चाहिए कि उसकी मृत्यु के बाद भी लोग उसका नाम सम्मान से लें, हिकारत से नहीं। जो लोग अपने जीवन में कुछ विशेष नहीं कर पाते बल्कि उनका जीवन समाज के लिए भार बन जाता है, वे जीते-जी मर जाते हैं। ऐसे लोग दूसरों को कष्ट देते हैं, उनको पीड़ा देकर सुख का अनुभव करते हैं। ये देश, धर्म, घर-परिवार और समाज के विरोधी कार्य करने में परहेज नहीं करते। अमानवीय कार्य करने वालों का नाम भी कोई अपनी जिह्वा से नहीं लेना चाहता। ऐसे लोगों का होना-न-होना एक बराबर होता है।
           इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपना जीवन जीने में असमर्थ रहते हैं यानी सारा जीवन अभावों में जीते हैं। वे न अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण कर पाते हैं और न ही अपने परिवारी जनों की आवश्यकताओं को। ऐसे लोगों का जन्म भी इस संसार में भार की तरह होता है। ये लोग समाज में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाते। इसलिए इनका जीवन मृत तुल्य कहलाता है।
        इनके अतिरिक्त कुछ लोग मर कर भी अमर हो जाते हैं। ये वही लोग होते हैं जो अपना जीवन देश, धर्म, समाज को समर्पित कर देते हैं। सहृदय, परोपकारी, दयावान लोग इस संसार की वास्तविक पूँजी होते हैं। अपने सद् कृत्यों के कारण मरणोपरान्त भी युगों-युगों तक याद किए जाते हैं। अपने आदशों का पालन करने वाले ये लोग वास्तव में जीवन जीते हैं। इन्हीं लोगों की बदौलत समाज चलता है।
         जीवन उन्हीं लोगों का सफल होता है जो समाज के दिग्दर्शक बनते हैं। आने वाली पीढ़ियाँ उनके कार्यों के कारण युगों तक उन पर मान करती हैं। जीवन और मृत्यु शाश्वत हैं। इन दोनों को मात देकर अमर हो जाने वाले ही महापुरुष कहलाते हैं। ऐसे ही लोगों का जन्म धरा पर सफल होता है।
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शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

धन का सदुपयोग

आयुपर्यन्त भागदौड़ करके बहुत ही मेहनत से जीवन में हम धन कमाते हैं। उस धन का सदुपयोग करते हुए अपने पारिवारिक, धार्मिक व सामाजिक दायित्वों को निभाते हैं। बच्चों को समाज में उनका उचित स्थान दिलाने के लिए भरसक यत्न करते हैं। हम अपने उद्देश्यों में बहुत सीमा तक सफल भी होते हैं।
        अपनी सारी जिम्मेवारियों को निभाते हुए हम भारतीय यह कदापि नहीं भूलते कि धूप-छाँव या अपने अच्छे-बुरे समय के लिए थोड़ा धन बचा कर रखना चाहिए। इससे भी बढ़कर हम यह चाहते हैं कि वृद्धावस्था के लिए भी हमारे पास कुछ धन सुरक्षित रहे जिससे पराश्रित न होना पड़े। अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी का मुँह न ताकना पड़े या फिर बच्चों के समक्ष भी हाथ न फैलाना पड़े। अपने सिर पर छत भी ईश्वर की कृपा से बनी रहे।
        हमारी भारतीय विचारधारा बहुत गहराई से जीवन के हर मोड़ पर हमारा मार्ग प्रशस्त करती है। यही कारण है जिस समय पूरा विश्व मंदी के दौर से गुजर रहा था उस समय अमेरिका जैसे वैभवशाली देश के कई बैंक डूब गए थे। हमारे देश में चाहे गरीबी का प्रतिशत अधिक है फिर भी हमारी अर्थ व्यवस्था चरमराई नहीं। थोड़ी परेशानी तो अवश्य हुई पर देश मंदी में भी उभर गया। उसका कारण था देशवासियों की छोटी-बड़ी बचतें जो लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार करते रहते हैं।
        इस बचत अभियान की बदौतल ही हम अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं। कुछ चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए वाली सोच वाले भी होते हैं जो खाने-पहनने हर जगह कंजूसी करते हुए बस जोड़ने में ही लगे रहते हैं।
       कुछ लोग चोरी-डकैती, भ्रष्टाचार, दुराचार, नीति-अनीति का मार्ग अपनाकर दूसरों का गला काटकर भी धन बटोरने की जुगत करते रहते हैं। हर प्रकार के टैक्स की चोरी से भी बाज नहीं आते।
      वे कहते हैं हमने अपनी पीढ़ियों की सुरक्षा का प्रबंध कर लिया है पर वे भूल जाते हैं-
       पूत कपूत तो कि धन संचै पूत सपूत तो का धन संचै।
अर्थ यह है कि संतान योग्य होगी तो हम से भी अधिक कमा लेगी और यदि नालायक निकली तो सब बरबाद कर देगी। इसलिए जो सच्चाई व ईमानदारी से कमाया जाए अर्थात जो सात्विक कमाई होती है बरकत उसी में होती है।
       धन कमाकर हम धन-संपत्ति बढ़ाते जाते हैं। भौतिक पदार्थों यानी कि गाड़ी, वस्त्र, जूते-चप्पल, पर्स और ऐशोआराम के साधन हम जुटाते रहते हैं जिन सबका उपभोग भी हम नहीं कर पाते।
         हमारी मृत्यु के पश्चात सब कुछ यहीं रह जाता है। हमारा जमा धन जिसकी जानकारी पत्नी-बच्चों को हो तो ठीक नहीं तो बैंक में ही पड़ा रहता है। जब तक जीवित रहते हैं तब तक हमें लगता है कि हमारे पास जो पैसा है वह कम है और उसे बढ़ाने के चक्कर में कोल्हू का बैल बन जाते हैं।
         धन से हम भौतिक पदार्थों- कपडे़, जेवर, जूते, धन-संपत्ति, ठाठबाट, गाड़ी, नौकर-चाकर आदि जुटा सकते हैं परन्तु स्वास्थ्य, प्रसन्नता, रिश्ते-नाते  आदि नहीं खरीद सकते। जीते जी इन सब पर भी ध्यान देना आवश्यक है अन्यथा मन में मलाल रह जाता है।
           धन जीवन जीने के लिए बहुत आवश्यक है उससे से बहुत कुछ कर सकते हैं पर उसे सिर पर न सवार होने दें। रावण की तरह अहंकार को अपने पास भी न फटकने दें। तभी सही मायने में जीवन का आनन्द ले सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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