बुधवार, 30 सितंबर 2020

अपनों से बिछोह

 अपनों से बिछोह

अपने प्रियजन से बिछोह या वियोग हृदय की गहराई तक विदीर्ण कर देता है। अपनों का साथ एक सुखद अहसास करवाता है। उनसे बिछुड़ जाने की कल्पना मात्र से जी हलकान होने लगता है। मनुष्य को अपना परिवार, अपने बन्धु-बान्धव अपनी जान से भी प्यारे होते हैं। वह उनसे कुछ दिन की दूरी बनाने से ही परेशान हो जाता है, फिर उनसे सदा के लिए बिछुड़ जाने के विषय में वह सोच ही नहीं सकता।
          मनुष्य को इस जीवन में धन-वैभव, सुख-समृद्धि, भाई-बन्धु, पति या पत्नी, सन्तान आदि जो भी मिलता है, वह ईश्वर का दिया हुआ उपहार ही होता है। मनुष्य को जो कुछ मिल जाता है, उस पर वह अपना एकाधिकार समझने लगता है। यानी वे उसकी पर्सनल प्रॉपर्टी हो जाते हैं। उन्हें वह किसी भी मूल्य पर अपने से अलग नहीं होने देना चाहता। फिर हमेशा के लिए खो देना, तो कभी भी नहीं।
         सृष्टि का नियम है कि जिस जीव ने यहाँ जन्म लिया है, उसे अपने पूर्वजन्मों के कर्मफल स्वरूप प्राप्त अपनी आयु को भोगकर, इस असार संसार से विदा होना पड़ता है। फिर भी मनुष्य इस सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहता। उसके सभी सगे-सम्बन्धी और वह स्वयं सोचता है कि वह पट्टा लिखवाकर आया है। वह इस दुनिया से विदा नहीं होगा। पर ऐसा हो नहीं पाता है।
           यह सृष्टि अपने नियम से चलती रहती है। जीव का आवागमन यहाँ होता ही रहता है। जो कुछ भी मनुष्य का है, वह ईश्वर का दिया हुआ। इस सत्य को अनदेखा करता हुआ मनुष्य अपनी कही जाने वाली कोई वस्तु उसे वापिस नहीं करना चाहता। वह अमानत में खयानत करना चाहता है। भौतिक जगत में यदि मनुष्य किसी से कोई वस्तु या धन आदि उधार स्वरूप लेता है, तो निश्चित अवधि के उपरान्त उसे वापिस करना पड़ता है।
            ईश्वर की दी हुई किसी वस्तु को निश्चित अवधि के उपरान्त भी यह मनुष्य बिल्कुल लौटाना नहीं चाहता। उस समय मनुष्य अधीर हो जाता है। वह दुखी होता है रोता है, चिल्लाता रहता है। पर वह भूल जाता है कि नेमत भी तो उसी ने ही दी थी। सदा के लिए तो मालिक ने उसे वह नहीं सौंपी थी। कभी तो उसने उसे वापिस लेना ही था।
            अपना कोई प्रिय जन जब हमसे बिछुड़कर यानी इस असार संसार को छोड़कर परलोक गमन करता है या ईश्वर की शरण में जाता है, तो वह वियोग किसी भी मनुष्य को असह्य पीड़ा दे जाता है। वह उसे जीवन पर्यन्त भूल नहीं सकता। उसे याद करके रोता रहता है, आहें भरता रहता है। यह मनुष्य की मजबूरी है कि उसे मृतक का दाह संस्कार करना पड़ता है, नहीं तो वह उसे मम्मी बनाकर अपने पास ही रख लेता।
          वैसे तो मनुष्य सदा अपने मुख से यही कहता है-
  मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सब तोर।
  तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोर।।
यानी मनुष्य कहता तो यही है कि है प्रभु! सब कुछ तुम्हारा है, मेरा कुछ भी नहीं है। तेरी वस्तु तुझे सौंपते हुए मेरा क्या लगता है? 
          यानी मनुष्य की कथनी और करनी में अन्तर होता है। वह कहता कुछ और हैं, पर करता कुछ और है।
          मनुष्य सांसारिक लोगों के साथ तो छल-फरेब, दुराव-छिपाव कर सकता है, पर ईश्वर के साथ उसका यह व्यवहार नहीं चल सकता है। यहाँ तो सीधा सा गणित चलता है। जितना जिस बन्धु-बान्धव के साथ मनुष्य का लेन देन का सम्बन्ध होता है, उतना ही उनको साथ निभाना होता है। उसके उपरान्त यह जुदाई निश्चित होती है। मनुष्य के चाहने अथवा न चाहने से कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला।
          यह संसार रिश्तों की मण्डी है। यहाँ रिश्ते अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार मिलते हैं। जो रिश्ता इस जन्म में साथ छोड़कर बिछुड़ गया, वह फिर किसी अन्य जन्म में, किसी न किसी रूप में मिल जाता है। बस हम उस समय यह सब समझ नहीं पाते। इस संसार में रहते हुए हम कुछ समय के लिए एक-दूसरे से दूर जाते हैं और फिर वापिस मिलते हैं, उसी प्रकार परलोक गमन करने पर भी होगा। इसलिए अपनों से वियोग को मनुष्य को यही सोचकर सहन करना चाहिए कि इस संसार में रहते हुए फिर किसी जन्म में और किसी रूप में हमारा मिलना सम्भव हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

मूर्ख लाइलाज

 मूर्ख लाइलाज

'मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा' यह उक्ति कहकर मनीषी मनुष्य को आगाह करते हैं कि मूर्ख व्यक्ति से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए। उसे समझदार बनाने का कितना भी प्रयास कर लिया जाय, कितना ही माथा फोड़ा जाए, उस पर कोई असर नहीं होता। वह मूर्ख का मूर्ख ही बना रहता है। अपना ही दिमाग खराब हो जाएगा, परन्तु वह सुधरने का नाम नहीं लेता। उससे दूरी बना लेना ही श्रेयस्कर होता है।
         महाराज भर्तृहरि ने 'नीतिशतकम्' ग्रन्थ में कहा है-
शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो
 नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ।
 व्याधिर्भेषजसंग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्
अर्थात् अग्नि को जल से बुझाया जा सकता है, तीव्र धूप में छाते द्वारा बचा जा सकता है, जंगली हाथी को भी एक लम्बे डंडे(जिसमे हुक लगा होता है ) की मदद से नियन्त्रित किया जा सकता है, गायों और गधों से झुंडों को छड़ी से नियन्त्रित किया सकता है। अगर कोई असाध्य बीमारी हो तो उसे भी औषधियों से ठीक किया जा सकता है। यहाँ तक की जहर दिए गए व्यक्ति को भी मन्त्रों और औषधियों की मदद से ठीक किया जा सकता है। इस दुनिया में हर बीमारी का इलाज है, लेकिन किसी भी शास्त्र या विज्ञान में मूर्खता का कोई इलाज नहीं है।
          इस श्लोक के माध्यम से कवि कह रहे हैं कि मूर्ख की मूर्खता का कोई इलाज नहीं हो सकता। अपनी बात को पुष्ट करने के लिए उन्होंने यहाँ कई उदाहरण दिए हैं। किसी स्थान पर यदि आग लग जाए तो उसे जलने के लिए ऐसे नहीं छोड़ दिया जाता, बल्कि उस अग्नि को पानी डालकर बुझाया जा सकता है। आजकल फायरब्रिगेड को आग लगते ही फोन कर दिया जाता है। वह उसी समय आ जाती है और वह पानी की बौछारों के द्वारा आग को बुझा देती है। इस तरह आग बुझ जाती है।
          सूर्य जब अपनी युवावस्था यानी दोपहर के समय होता है, तब उसका प्रकाश और गर्मी अपने उत्कर्ष पर होते हैं यानी बहुत तीव्र होते हैं। उस समय ऐसा प्रतीत होता है, मानो मनुष्य का सिर जलने लगता है। उस समय यदि व्यक्ति छाते का उपयोग कर लेता है, तो वह उस छाते के कारण तीव्र धूप में जलने से बच सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो मनुष्य गर्मी से राहत पा सकता है। 
           जंगली हाथी को पकड़ने के लिए अंकुश या एक लम्बा डण्डा जिसमें एक हुक लगी हुई होती है, उसका सहारा लेकर उसे नियन्त्रित किया जाता है। इन जंगली हाथियों को सवारी करने के लिए, उनसे और काम करने के लिए या फिर सर्कस आदि में करतब दिखने के लिए पालतू बनाया जाता है। इसीलिए इन्हें इस प्रकार पकड़ा जाता है। फिर उन्हें ट्रेनिंग देकर उनसे कार्य करवाए जाते हैं।
          गायों को जब चराने ले जाते हैं या फिर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं, तब उन्हें चराने वाला छड़ी का उपयोग करता है, जिससे वे इधर-उधर न चली जाएँ। अथवा किसी वाहन से टकराकर घायल न हो जाएँ। इसी प्रकार गधों का मालिक से भी उनके झुंडों को छड़ी से ही नियन्त्रित करता है। इसका उद्देश्य भी यही होता है कि गधे भागकर कहीं और न चले जाएँ।
         मनुष्य को यदि कोई असाध्य बीमारी हो जाती है, तो उसे योग्य डॉक्टर के पास लेकर जाते हैं। वह उचित औषधियों के उपचार द्वारा उस मनुष्य को स्वस्थ कर देता है। इससे भी बढ़कर यदि किसी व्यक्ति को यदि विष या जहर दे दिए गया हो, तो उसे उचित इलाज के द्वारा निश्चित ही ठीक किया जा सकता है। उस व्यक्ति को मन्त्रों की सहायता से भी ठीक कर दिया जा सकता है।
          इतने सारे उदाहरणों को देने के पश्चात कवि कहते हैं कि इस दुनिया में हर बीमारी का इलाज किया जा सकता है और रोगी स्वस्थ भी हो जाता है। परन्तु किसी भी शास्त्र या विज्ञान में मूर्खता का कोई इलाज नहीं है। मूर्ख व्यक्ति को कितना भी बुद्धिमान बनाने का प्रयास कर लो, वह अपनी मूर्खता को नहीं छोड़ता। ऐसे मूर्ख के साथ माथापच्ची करने के स्थान पर उससे किनारा कर लेना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 28 सितंबर 2020

पैर से छूना वर्जित

 पैर से छूना वर्जित

भारतीय संस्कृति मानवीय मूल्यों की थाती है। वह पग-पग पर मनुष्य को अनुशासित करती है। हमारी संस्कृति जीवन मूल्यों को अपनाने पर बल देती है। यही कारण है कि विश्व की प्राचीनतम भरतीय संस्कृति अपने अमूल्य संस्कारों की बदौलत आज तक बची हुई है। यह कदम-कदम पर मनुष्य को ठोकर खाने से बचाने का प्रयास करती रहती है। जो लोग इन संस्कारों को अपनाते हैं, वे महान बन जाते हैं।
          आज हम चर्चा करेंगे कि किन लोगों को पैर से स्पर्श करना वर्जित किया गया है। आचार्य चाणक्य हमें बता रहें हैं कि निम्न लोगों को अपने पैर से कदपि स्पर्श नहीं करना चाहिए-
पादाभ्यां न स्पृशेदग्निं गुरुं ब्राह्मणमेव च। 
नैव गां न कुमारीं च न वृद्धं न शिशुं तथा।।
अर्थात् इन सात को कभी पैर नहीं लगना चाहिए- अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गाय, कुमारी कन्या, वृद्ध पुरुष तथा अबोध बालक। इन्हें पैर से छूने का अर्थ है इनका अपमान करना है।
          अग्नि के विषय में सब लोग अच्छी तरह से जानते हैं। वह अपने पास आने वालों को भस्म कर देती है। वह छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, गोरे-काले या लिंग और जाति के भेद से परे है। वह किसी का भी पक्षपात नहीं करती। उसने उन सबको जला देने का अपना कार्य बड़ी अच्छी तरह से करना होता है। अपने पास आने वाले सबको वह जला देती है। अपनी सुरक्षा के लिए उसे पैर से कभी भी स्पर्श नहीं करना चाहिए।
           गुरु मनुष्य का सर्वांगीण विकास करता है। उसे विद्या का ज्ञान देता है। यदि किसी को सच्चे अर्थों में गुरु मिल जाए, तो वह उसे मुक्ति के मार्ग पर ले जाने का कार्य करता है। इसलिए गुरु को पिता भी कहा जाता है और देवता भी। वह पूजनीय तो होता ही है। ऐसे ज्ञानवान गुरु को कभी भी अपने पैर से नहीं छूना चाहिए। इस तरह करने से उसका अपमान होता है। मनुष्य को दोष तो लगता ही है और वह पाप का भागीदार भी बनता है।
            ब्राह्मण को हमारे शास्त्रों में देवता के समान माना जाता है। ब्राह्मण का यहाँ रूढ़ अर्थ नहीं है, बल्कि विद्वान व्यक्ति को कहते हैं। यह समाज को दिशा देने का कार्य करता है। इसका कार्य अध्ययन-अध्यापन करने का होता है। ऐसे विद्वान व्यक्ति को अपने पैर से छूने का निषेध शास्त्र करते हैं। इनका सदा सम्मान किया जाना चाहिए। इन लोगों का तिरस्कार कदापि नहीं करना चाहिए।
           गाय को भारतीय संस्कृति में माता कहा जाता है। इसकी माता के समान ही पूजा की जाती है। गोपाष्टमी इसी के नाम से मनाई जाती है। गाय के दूध, दही, घी और माखन आदि को खाकर मनुष्य पुष्ट होता है। इसका मूत्र में कई औषधीय गुण हैं। पुरातन काल में गोधन को सबसे बड़ा धन मन जाता था। जिसके पास अधिक गौवें होती थीं, वह उतना ही समृद्ध व्यक्ति माना जाता था। भगवान श्रीकृष्ण को इनसे बहुत प्यार था। इसीलिए इसे पैर से छूना वर्जित किया गया है।
          कुमारी कन्या भगवती देवी का रूप मानी जाती है। वर्ष में दो बार आने वाले नवरात्रों में इसकी पूजा करने का विधान है। वैसे भी कहा जाता हैं कि बड़े पुण्यों का उदय होने पर किसी गृहस्थ के घर कन्या का जन्म होता है। कन्या का विवाह करना बहुत ही पुण्यकारक माना जाता है। लोग इसके पैर छूकर, इसका आशीर्वाद लेते हैं। ऐसी कन्या का अपने पैर से कभी स्पर्श नहीं करना चाहिए।
            वृद्ध पुरुष अनुभवों की खान होते हैं। आयु की दृष्टि से वृद्ध होने के कारण इनका सम्मान करना चाहिए, तिरस्कार कदापि नहीं करना चाहिए। उन्होनें अपना पूरा जीवन व्यतीत किया होता है। इस अवस्था में वे आदरणीय बन जाते हैं। वैसे भी हमारी संस्कृति बुजुर्गों की सेवा-सुश्रुषा करने पर बल देती है। उन्हें देवता के समान ही पूजनीय मानती है। पैर से छूकर इनका अनादर नहीं करना चाहिए।
            अबोध बालक को भगवान का ही रूप कहा जाता है। उसे अभी इस संसार की हवा नहीं लगी होती। वह छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष आदि अवगुणों से रहित होता है। उसका हृदय शुद्ध और पवित्र होता है। वह सबको अपना समझता है, इसलिए जो उसे प्यार से बुलाता है, उसके पास चला जाता है। उनके साथ खेलता है, मस्ती करता है। ऐसे अबोध बालक को अपने पैर से नहीं छूना चाहिए।
           कहने का तात्पर्य यह है कि इन सबको पैर से छूना असभ्यता कहलाती है। ये सभी वन्दनीय होते हैं। इनका हृदय से सम्मान करना चाहिए। कैसी भी परिस्थिति हो सभ्य इन्सान को कभी भी अपने पैर से छूकर इनका निरादर नहीं करना चाहिए। यदि गलती से इन्हें पैर लग जाता, तो हमारे पूर्वज उसे अपने सिर पर लगाकर क्षमा याचना करते थे।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 27 सितंबर 2020

अपनी उन्नति

अपनी उन्नति 

अपनी उन्नति चाहने वाले मनुष्यों को सदा लक्ष्मी, कीर्ति, विद्या और बुद्धि के विषय में चर्चा करते रहना चाहिए।  निम्न श्लोक में कवि ने इनके विषय में बताया है कि ये किसका अनुसरण करती हैं-
       सत्यानुसारिणी लक्ष्मीः 
               कीर्तिस्त्यागानुसारिणी।
       अभ्याससारिणी विद्या 
               बुद्धिः कर्मानुसारिणी॥
अर्थात् लक्ष्मी सत्य का अनुसरण करती है, कीर्ति त्याग का अनुसरण करती है, विद्या अभ्यास का अनुसरण करती है और बुद्धि कर्म का अनुसरण करती है।
          लक्ष्मी सदा सत्य का अनुसरण करती है। उसे सत्य का साथ चाहिए होता है, झूठ का कभी नहीं। धन-दौलत कभी एक स्थान पर नहीं टिकते। आज यह किसी एक के पास है, तो हो सकता है कल उसे अँगूठा दिखाकर दूसरे के पास चली जाए। यानी आज धन-वैभव राजा के पास है, तो कल रंक के पास चला जाएगा। इसलिए कबीरदास जी ने कहा है-
        माया को महा ठगिनी हम जानी।
यानी लक्ष्मी बहुत धोखा देने वाली है। कहने का तात्पर्य यह है कि यह किसी की भी सगी नहीं है। यह अपने साथ कई बुराइयों को लेकर आती है। जब मनुष्य के पास इसकी अधिकता हो जाती है, तब उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ जाता है। उस समय वह सारी दुनिया को आग लगा देने और देख लेने की बात करता है।
           कीर्ति त्याग का अनुसरण करती है यानी देश, धर्म, घर-परिवार और समाज के प्रति त्याग करने वालों को यश मिलता है।पैसे और सत्ता के पीछे कीर्ति कभी नहीं भागती। परोपकारी लोग पीछे-पीछे चलते हैं और उनकी कीर्ति उनके आगे-आगे चलती है। यही इसकी विशेषता कही जाती है। कीर्ति पाकर जो लोग अहंकारी हो जाते हैं, वह उन्हें कदापि पसन्द नहीं करती। वह उनसे नाराज हो जाती है। तब उनकी कीर्ति अपयश में परिवर्तित हो जाती है।
          विद्या जितनी भी पढ़ लो, उसका अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास के बिना पता नहीं चलता कि कुछ समझ में आया अथवा नहीं। इसीलिए स्कूल या कालेज में पढ़ाने के उपरान्त बच्चों की परीक्षा ली जाती है। उससे पता चलता है कि विद्यार्थी कितने पानी में है। तभी मनीषी कहते हैं- 'अनभ्यासे विषं  विद्या।' अर्थात् यदि विद्या का अभ्यास न किया जाए, तो वह विष के समान हो जाती है।
           विद्या की परीक्षा लेते रहने से मनुष्य को ज्ञात होता रहता है कि उसने जो पढ़ा था, उसे कितना आत्मसात कर पाया है। वह ज्ञान उन चार विद्वान ब्राह्मणों को शेर का शिकार बना देता है, जो केवल ज्ञानार्जन करते हैं। कभी उसका अभ्यास नहीं करते। वह पुस्तकीय ज्ञान मनुष्य के किसी काम का नहीं होता जो समय आने पर उसका साथ न दे सके। उसे सहारा न बन सके। 
           बुद्धि कर्मानुसार प्रेरणा लेती है। उस पर हमेशा कर्म का अंकुश रहता है। बहुत बार हम देखते है कि मनुष्य अपेक्षा से विपरीत बर्ताव करने लगता है। हमें आश्चर्य होता है कि हमेशा विशिष्ट तरह व्यवहार करने वाला मनुष्य को अचानक ही क्या हो गया जो ऐसा बर्ताव कर रहा है। उसे उस प्रकार का व्यवहार करते हुए देखकर लोग कहते हैं -
        विनाशकाले विपरीत बुद्धि:। 
अर्थात् जब मनुष्य के विनाश का समय आता है, तब उसकी बुद्धि विपरीत आचरण करने लगती है।
          यहाँ वास्तव में कर्मफल सिद्धान्त ही लागू होता है । यह सत्य है कि हर एक व्यक्ति अपनी बुद्धि का उपयोग करने के लिए स्वतन्त्र है। परन्तु इस बात की कोई गारण्टी नहीं होती कि बुद्धि सदा ही  उचित निर्णय लेगी। यदि निर्णय उचित होगा, तो मनुष्य सफलता की ऊँचाई छू लेगा। यदि निर्णय में चूक हो गई तो मनुष्य को पटकनी अवश्य मिलती है। उसे धराशायी होने से कोई नहीं रोक सकता।
          श्लोक में कही गई बातों पर मनन करने से मनुष्य को निश्चित ही ज्ञान होता है। वह लक्ष्मी के व्यवहार को समझता हुआ धनार्जन तो करता है। कीर्ति को अपनी ही गलतियों से अपकीर्ति में परिवर्तित नहीं करता। विद्याध्ययन करके उसे कसौटी पर परखता रहता है। अपने ज्ञान का सदुपयोग करता है। अपनी बुद्धि को सदा उपयोगी कार्यों में लगता है। इस प्रकार करता हुआ मनुष्य निरन्तर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 26 सितंबर 2020

कर्मफल का खेल

कर्मफल का खेल

संसार कर्मों की मण्डी है। इस संसार को हम कर्म प्रधान कह सकते हैं। यानी मनुष्य जैसे कर्म करता है, तदनुरूप ही वह फल पाता है। इसीलिए हमारे सभी ग्रन्थ कर्मों की शुचिता पर बल देते हैं। चाहे रामचरित मानस हो या गीता हो, दोनों में ही कर्म को प्रधान बताया गया है। यह सत्य है कि कर्म करने के लिए हर मनुष्य स्वतन्त्र है, परन्तु उसका फल भोगने में नहीं। मनुष्य अपने कर्मो से ही अपने भाग्य को बनाता है और बिगाड़ता है। 
            'रामचरितमानस' में इस विषय पर तुलसीदास जी ने बहुत सुन्दर शब्दों में लिखा है-
       कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। 
       जो जस करहि सो तस फल चाखा॥
       सकल पदारथ हैं जग मांही। 
       कर्महीन नर पावत नाहीं॥ 
अर्थात् यह विश्व कर्म प्रधान है। जो जैसा करता है, उसे वापिस वैसा ही फल मिलता है। इस संसार में समस्त पदार्थ हैं, पर कर्महीन मनुष्य कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता।
          तुलसीदास जी कहते हैं कि यह विश्व कर्म प्रधान है। मनुष्य जैसा बोता है, वैसा ही काटता है। यानी जैसे कर्म वह करता है, उसे उनका वैसा ही फल मिल जाता है। यहाँ कोई भी हेराफेरी नहीं होती।यह सीधा-सा गणित है। अच्छे कर्म करने पर सुख-समृद्धि मिलती है। इसके विपरीत बुरे कर्म करने पर दुख और परेशानियाँ ही मिलती हैं। ईश्वर के इस संसार में अन्तहीन पदार्थ हैं, पर कर्महीन को कुछ भी नहीं मिल पाता।
         'वाल्मीकिरामायणम्' में आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने कहा है-
     कर्मफल-यदाचरित कल्याणि
                 शुभं वा यदि वाsशुभम्।                                                                       
      तदेव  लभते  भद्रे!
              कर्ता कर्मजमात्मन:  ll
अर्थात् मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। हे सज्जन व्यक्ति! कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
           इस श्लोक का कथन है कि मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार ही इस जीवन में खट्टा-मीठा फल खाने के लिए मिलता है। अपने कर्मफल के भोग से मनुष्य को किसी तरह छुटकारा नहीं मिल सकता। केवल उन्हें भोगकर ही वह उनसे मुक्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य के पास कोई ओर चारा नहीं है। मनुष्य यदि सोचे कि यहाँ उसकी प्रॉक्सी चल जाए और कोई अन्य कड़वा फल कहा ले, तो यह कदापि सम्भव नहीं है।
           कर्म सिर्फ शरीरिक क्रियाओं से ही सम्पन्न नहीं होता, बल्कि मन से, वचन से और कर्म से भी किए जाते हैं। जो आचार, व्यवहार मनुष्य अपने माता-पिता, बन्धु, मित्र, रिश्तेदार के साथ करता है, वह भी कर्म की श्रेणी में आता है। जब मनुष्य अच्छे कर्म करता है, तब उसका प्रतिफल भी अच्छा मिलता है और जब मनुष्य कुछ गलत करता है, तब परिणाम में कष्ट और परेशानियाँ मिलते है।
           इसीलिए मनीषी मनुष्य को सदा समझाते हुए कहते हैं-
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
अर्थात् जो भी शुभ अथवा अशुभ कर्म मनुष्य करता है, उनके फल का भोग उसे करना ही पड़ता है। 
           यहाँ उसकी इच्छा या अनिच्छा का कोई मूल्य नहीं होता और न ही उससे कुछ पूछा जाता है। अपने हिस्से के भोग चाहे वह हँसकर भोगे या रोते और कल्पते हुए भोगे। यह उस व्यक्ति विशेष पर ही निर्भर करता है। इन्हें भोगने के सिवाय उसके पास और कोई चारा नहीं होता। दूसरे शब्दों में कहें तो बबूल का पेड़ बोकर कोई मनुष्य मीठे आम के फल खाने की कामना नहीं कर सकता।
           यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह शुभ कर्म करना चाहता है या अशुभ। उसके फल के लिए फिर उसे तैयार रहना चाहिए। अपने किए गए कर्म के अनुसार उसे फल मिलना है, यह भी निश्चित है। इसलिए उसे समय की प्रतीक्षा करते रहना चाहिए। यथासमय उसे शुभ कर्मों का फल मिलता है, उसी प्रकार अशुभ कर्मों का भी फल मिलता है। मनुष्य शुभाशुभ कर्मों के फेर में सदा पड़ा रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

पति-पत्नी में अहम्

पति-पत्नी में अहम्

पति और पत्नी एक-दूसरे के पूरक होते हैं, प्रतिद्वन्द्वी कदापि नहीं होते। इसलिए उन दोनों को एक गाड़ी के दो पहिए कहा जाता है। इनमें से किसी एक के न होने की स्थिति में गृहस्थी की गाड़ी डगमगाने लगती है। वह गति नहीं पकड़ पाती। इन दोनों में जब सामञ्जस्य होता है, तब घर बहुत अच्छी तरह चलता है। यदि किसी कारण से दोनों में वैमनस्य की स्थिति उतपन्न हो जाए, तब सब कुछ गड़बड़ा जाता है।
           पति यदि अपने धन-वैभव पर अथवा उच्च पद पर या अच्छे वेतन पर या फिर अपने व्यवसाय पर घमण्ड करता है, तो यह उचित नहीं है। हमारी भारतीय संस्कृति में पुरुष को धन कमाने का दायित्व सौंपा गया है और पत्नी को उस कमाए गए धन की सुचारु व्यवस्था की जिम्मेदारी दी गई है। इसलिए पति का इस विषय में गर्व करना कोई मायने नहीं रखता। उसे अपनी कमाई पत्नी को सौंपनी चाहिए। दोनों को मिलकर अपनी गृहस्थी की पालना करनी होता है।
         आजकल के मँहगाई के इस युग में स्त्रियाँ पढ़-लिखकर नौकरी या व्यवसाय करने लगी हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि उनका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ जाए। वे किसी को अपने बराबर समझें ही नहीं। पति-पत्नी दोनों को मिलकर अपनी गृहस्थी का दायित्व वहन करना चाहिए। इसमें तेरे या मेरे की कोई गुँजाइश ही नहीं रह जाती। जो वे दोनों कमाते हैं, वह सब घर के लिए है। उसमें कुछ भी किसी की पर्सनल नहीं।
          पैसा सारे फसाद की जड़ है। यदि यह आवश्यकता से कम हो तो घर में सदा कलह-क्लेश रहता है। यदि यह जरूरत से अधिक हो जाए तो भी लड़ाई-झगड़ा होता रहता है। दोनों ही स्थितियाँ सही नहीं हैं। होना तो यह चाहिए की जितना भी धन घर में आता है, उसी के अनुसार गृहणी को उसकी व्यवस्था करनी चाहिए। प्रतिदिन की उठा-पटक से घर की शान्ति भंग होती है और घर नरक के समान कष्ट-क्लेश से भर जाता है।
        यदि पति या पत्नी अपने स्मार्ट होने का गर्व करते हैं, तो सर्वथा अनुचित है। इसका घर-गृहस्थी से कोई लेना देना नहीं होता। सुन्दरता या स्मार्टनेस कुछ समय बाद ढल जाती है। किसी बीमारी के कारण भी यह कमतर हो जाती है। घर चलाने के लिए केवल सुघड़ता की आवश्यकता होती है। अधिक खर्चीला होने से घर की आर्थिक स्थिति पर असर पड़ता है। इसलिए पति और पत्नी दोनों को ही सदा सावधान रहना चाहिए।
           पति अथवा पत्नी दोनों में किसी के भी विवाहेत्तर सम्बन्ध मान्य नहीं होते। यह नाजायज सम्बन्ध घर की चूलें हिलाकर रख देता है। ऐसे घरों में अलगाव की स्थिति बन जाती है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा मासूम बच्चों को भुगतना पड़ता है, जो इन सबसे अनजान होते हैं। इसका अर्थ यही है कि दोनों में परस्पर विश्वास का होना बहुत आवश्यक होता है। इन सम्बन्धों में सदा पारदर्शिता होनी चाहिए।
         पति और पत्नी का अहं कभी आड़े नहीं आना चाहिए यानी परस्पर टकराना नहीं चाहिए। दोनों को ही मित्रवत व्यवहार करना चाहिए। इस घमण्ड से किसी की भी जीत नहीं हो सकती। घर में जितना प्यार और मोहब्बत का वातावरण रहेगा, उतना ही वहाँ सुख-समृद्धि का साम्राज्य रहेगा। पति-पत्नी के मध्य 'मैं बड़ा या मैं बड़ी' वाली स्थिति कभी आनी ही नहीं चाहिए। दोनों की घर में बराबर की उपयोगिता होती है, किसी एक की नहीं।
          पति-पत्नी में न कोई छोटा होता है और न ही कोई बड़ा कहलाता है। दोनों ही गृहस्थी में समान पद पर हैं। दोनों के कार्यों में विविधता होती है। इसलिए उनमें किसी प्रकार का कोई अहं नहीं होना चाहिए। यह ठीक है कि हमारा समाज पुरुष प्रधान है। इससे पत्नी के सम्मान पर किसी तरह की कोई आँच नहीं आती। 'यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते' कहकर मनीषियों ने स्त्री के गौरव को सदा बढ़ाया ही है। 
          अन्त में मैं यही कहना चाहूँगी कि दोनों को अपने सम्बन्धों को बिना किसी पूर्वाग्रह के ईमानदारी और सच्चाई से निभाना चाहिए। तभी पति-पत्नी की वह जोड़ी समाज की दृष्टि में आदर्श कही जाती हैं। उनका घर सबके लिए एक उदाहरण बन जाता है। ऐसे घर में निवास करने के लिए देवता भी तरसते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 24 सितंबर 2020

घर सराय नहीं

 घर सराय नहीं

घर शब्द सुनते ही मन में एक कल्पना जन्म लेती है कि यह वह सुन्दर स्थान है, जहाँ पर माता-पिता तथा उनके बच्चे प्रसन्नता से रहते हैं। वहाँ होने वाली चहल-पहल से घर गुंजायमान रहता है। बच्चे माता-पिता से अपनी फरमाइशें रखते हैं और वे उन्हें जी जान से पूरा करते हैं। बच्चों का उनके साथ रूठने-मनाने का खेल अनवरत चलता ही रहता है। समय का पता ही नहीं चलता कि वह कहाँ बीत जाता है।
          यह ध्यान देने वाली बात है कि खाली ईंट-पत्थरों से बने हुए मकान को घर नहीं कहते। जब वहाँ परिवारी जनों में प्रेम का वातावरण होता है यानी परिवार के सभी सदस्य मिलकर प्रेमपूर्वक रहते हैं, तब वह घर कहलाता है। घर के सभी सदस्यों में जब परस्पर सामञ्जस्य होता है, तो वह घर स्वर्ग के समान सुन्दर लगने लगता है। हो सकता है कि भौतिक रूप से वहाँ कोई कमी हो, पर उनका आपसी सौहार्द उसे पूरा कर देता है।
          एम एन सी में काम करने वाले युवाओं को आजकल अपने लिए ही समय नहीं मिल पाता, तो वे अपने परिवार को क्या समय देंगे? घर-परिवार के लिए उनके पास समय नहीं होता। समयाभाव के कारण सामाजिक कार्यों में वे जा नहीं पाते। इस तरह वे सबसे कटकर रह जाते हैं। इसी प्रकार बड़े व्यवसायियों का भी कुछ ऐसा ही कार्यक्रम रहता है। वे भी प्रतिदिन बच्चों के लाड़ नहीं लड़ा पाते। उनके बच्चे बस उनकी प्रतीक्षा करते रहते हैं और बिसूरते रहते हैं।
          वे लोग प्रातः जल्दी काम पर चले जाते हैं और घर लौटने का उनका कोई समय नहीं होता। बहुधा जब वे घर आते हैं, तो बच्चे सोए हुए होते हैं। प्रातः बच्चे जब विद्यालय जाते हैं, तो वे सोए हुए होते हैं। इस प्रकार उनका अपने बच्चों से मिलना बहुत कम हो पाता है। वे लोग अपने ही घर में मानो मेहमान बन जाते हैं। और यदि उनकी टूरिंग अधिक होती हो, तब तो फिर पूछना ही व्यर्थ है कि वे अपने बच्चों से कब मिलते हैं?
          इन लोगों को अपने काम में व्यस्त रहने के कारण यह भी स्मरण नहीं रहता कि उनके माता-पिता, पत्नी और बच्चे घर पर प्रतीक्षा कर रहे हैं। घर में खाना खाने की फुर्सत भी इन लोगों को नहीं होती। परिवार के साथ खाना कब खाया था, इन्हें याद ही नहीं होता। घर के लोग उनसे मिलने और बात करने के लिए तरस जाते हैं। बच्चे भी शिकायत करते हैं कि स्कूल में जब कभी पीटीएम होती है, तो सब बच्चों के माता-पिता दोनों आते हैं, पर उनकी माँ सदा अकेली आती है।
          इसका अर्थ यही हुआ कि इन लोगों के लिए घर घर न होकर एक सराय है या रैनबसेरा बन जाता है या फिर एक होटल है। जहाँ पर ये लोग रात बिताने के लिए आते हैं और सवेरा होते ही अपने काम पर चले जाते हैं। न किसी पड़ौसी से कोई मतलब और न ही किसी नाते-रिश्तेदार से कोई सरोकार। अपने परिवारी जनों से मिलने का समय उनके पास नहीं होता, तो वे और किसी से क्या मिलेंगे?
           मनुष्य को अपनी नौकरी अथवा व्यवसाय में इतना अधिक व्यस्त नहीं हो जाना चाहिए कि उन अपनों के लिए समय ही न निकल पाए, जिनके लिए वह सारा परिश्रम करता है। दिन-रात एक कर देता है। समय बीतने पर ऐसे लोग अकेले पड़ जाते हैं। उनके साथ खड़े होने वाला कोई नहीं होता। उनकी अपनी पत्नी तथा उनके अपने जिगर के टुकड़े बच्चे तक उनसे दूर हो जाते हैं। 
          वृद्धावस्था की कगार पर पहुँचकर जब ये अकेले होने पर ये लोग पश्चाताप करते हैं, तब सब व्यर्थ हो जाता है। सारी आयु पत्नी और बच्चे उनकी प्रतीक्षा करते हैं। इस अवस्था में वे सबकी बाट जोहते हैं। पर सब व्यर्थ होता है। तब तक उनके सभी परिवारी जनों के मनों में दूरियाँ घर कर गई होती हैं। उन्हें पाटना असम्भव तो नहीं, पर कठिन अवश्य हो जाता है। तब जमीनी हकीकत समझ में आती है।
           मेरा आप सबसे यही कहना है कि अपने घर को होटल या सराय न बनाकर एक सुन्दर घर बनाए। अपने व्यस्त समय में से अपनी पत्नी और बच्चों के लिए समय निकालिए। उनके साथ बैठकर सुख-दुख साझा कीजिए। परिवार को आपके पैसे से अधिक आपके समय और प्यार की आवश्यकता है। हो सके तो कुछ दिन के लिए परिवार के साथ देश या विदेश में कहीं घूमने का कार्यक्रम बनाइए। इस तरह करने से परिवार के लिए आप अजनबी कदापि नहीं रहेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 23 सितंबर 2020

संसर्ग का महत्त्व

 संसर्ग का महत्त्व

मनुष्य के जीवन में संसर्ग या संगति का बहुत महत्त्व होता है। जैसी संगति में मनुष्य रहता है, वह वैसा ही बन जाता है। उत्तम जनों की संगति में रहने वाले मनुष्य जीवन में उत्तम गुणों वाले बनते हैं। मध्यम श्रेणी के लोगों में रहने वाले लोगों में उत्तम तथा अधम दोनों ही लोगों के विचार रहते हैं। अधम मनुष्य सदा ही निम्न गुण रखने वाले होते हैं। इसलिए उनके सम्पर्क में रहने वाले भी वैसे ही बन जाते हैं।
           महाराज भर्तृहरि के निम्न श्लोक में संगति के महत्त्व को दर्शाया गया है-
सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते
मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते।
स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायते।
प्रायेणाधममध्यमोत्तमजुषामेवं विधा वृत्तयः।
अर्थात् गर्म लोहे पर जब पानी की बूँद पड़ती है, तो उसका नाम-निशान भी नहीं रहता। वही बूँद कमल के पत्ते पर गिरकर मोती के समान चमकने लगती है। जब पानी की बूँद स्वाति नक्षत्र में समुद्र की सीप में पड़ती है, तो मोती बन जाती है। अतः यह सिद्ध हुआ कि अधम, मध्यम और उत्तम गुण मनुष्य में संन्सर्ग से ही उत्पन्न होते हैं।
           इस श्लोक में कवि ने उदाहरण देकर समझाने का प्रयास किया है। सबसे पहले वे कहते हैं कि गर्म लोहे पर यदि पानी की एक बूँद डाली जाएगी, तो वह भाप बनकर उड़ जाएगी। यानी शीतल जल उस गर्म लोहे पर बेअसर हो जाता है। इसी प्रकार अधम लोगों की संगति मनुष्य को मानो जला देने का कार्य करती है। वहाँ पर सरलता, सहजता आदि का कोई कार्य नहीं होता। 
           मनुष्य उन लोगों की संगति में बस बिखर जाता है। बड़े कष्ट की बात है कि वह चाहकर भी सम्हल नहीं पता। उसका अपना अस्तित्व मानो तिरोहित हो जाता है। वह घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों और समाज से कटकर रह जाता है। वह श्रेष्ठ लोगों में बैठने के लायक नहीं रह जाता। उस पर अधम होने का जो ठप्पा लग जाता है, वह मिटाया नहीं जा सकता। इसलिए वह सबसे दूर होने लगता है।
          पानी की वही बूँद जब कमल के पत्ते पर पड़ी होती है, तब वह मोती की तरह चमकती है। पानी की बूँद मोती बनती नहीं, पर मोती होने का अहसास करवाती है। इसी प्रकार मध्यम श्रेणी के लोग अच्छी संगति में आकर चमकते हैं। परन्तु यदि निम्न लोगों के पास जाएँ तो बर्बाद हो जाते हैं। मध्यम कोटि के लोगों के संसर्ग में आकर अपनी पहचान बनाने का प्रयास करते हैं। अधम लोगों से ये कुछ विशेष ही होते हैं।
           ये मध्यम कोटि के लोग अपनी। पहचान यानी सफेदपोशी को बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। ये नहीं चाहते कि कोई उन्हें भला-बुरा कहे, उनकी कमी निकाले। ये लोग अपने कार्यों को करते समय सदा ही सावधान रहते हैं। ऐसे लोग समाज के समक्ष अपनी साफ-सुधरी छवि ही प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं, जो बेदाग होती है। ऐसे लोगों के लिए सदा भय रहता है कि कहीं ये किसी स्वार्थवश अधम लोगों की संगति न कर बैठें।
           स्वाति नक्षत्र में में जब पानी की बूँद समुद्र में सीप पर पड़ती है, तब वह मोती बन जाती है। यह उस बूँद का उत्कर्ष होता है। मोती बहुत मूल्यवान होता है। इसकी कीमत बहुत होती है। सीप के संसर्ग में आकर पानी की बूँद का मोती बनने का अर्थ है कि सज्जनों के सम्पर्क में आकर मनुष्य भी अमूल्य बन जाता है। उनका साथ ही मनुष्य की उन्नति और सफलता का कारक होता है।
          मनुष्य में जो भी कमियाँ या खोट होते हैं, वे सज्जनों के साथ से धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं। तब मनुष्य निष्कलुष हो जाता है। उसके चेहरे पर एक अलग तरह का ओज आ जाता है। महापुरुषों के संसर्ग एक आम इन्सान का जीवन पलट देता है। जिस प्रकार आदीग्रन्थ रामायण के रचयिता महाकवि वाल्मीकि और अंगुलिमाल डाकू के जीवन बदल गए। कोई सोच भी नहीं सकता कि उनका पूर्वजीवन इतना दुखद रहा होगा।
         इस प्रकार संगति का बहुत प्रभाव मनुष्य जीवन पर पड़ता है। इसीलिए रहीम जी कहते हैं-
 'जैसी संगति बैठिए तैसो ही फल दीन।' मनुष्य को प्रयास यही करना चाहिए कि वह सज्जनों की संगति करे। अपने जीवन को मोती की तरह मूल्यवान बना दे।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

दृष्टिकोण की भिन्नता

दृष्टिकोण की भिन्नता

प्रत्येक मनुष्य का अपना एक दृष्टिकोण या हर वस्तु को देखने का एक नजरिया होता है। प्रायः देखा यह जाता है कि समान वातावरण, परिस्थिति और अनुशासन में रहते हुए भी हर व्यक्ति के विचार तथा कार्य करने की प्रणाली में अन्तर बना रहता है। यह अन्तर उस व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है। इससे ज्ञात होता है कि दृष्टिकोण की भिन्नता ही इस मानव जीवन की प्रमुख विशेषता है।
          यदि सभी लोगों का दृष्टिकोण एक हो जाए तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। सभी लोग एक ही तरह से सोचेंगे, एक ही तरह से कार्य करेंगे। उस समय सब कुछ कितना नीरस हो जाएगा? दृष्टिकोण की भिन्नता से ज्ञात होता है कि कोई मनुष्य जीवन को किस रूप में देखता है? वह मनुष्य अपने जीवन में दुखी क्यों है या सुखी क्यों है? वह अपने जीवन में क्या प्राप्त कर लेना चाहता है? इन सभी प्रश्नों का किसी के भी मन में उठना स्वाभाविक है।
            इस दृष्टिकोण का आधार व्यक्ति के संस्कार होते हैं, जिन्हें वह जन्म के साथ से अपने साथ लाता है अथवा जिन्हें वह इस जीवन में शिक्षा और वातावरण से ग्रहण करता है। ये संस्कार भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति तथा सुख और दुख की अनुभूति का आधार होते हैं। दृष्टिकोण का विस्तार अध्ययन, मनन एवं स्वाध्याय से सम्भव हो सकता है। इसका विस्तार हर मनुष्य को समय-समय पर करते रहना चाहिए।
           अपनी उदरपूर्ति, अपने वंश की वृद्धि अथवा अपने सभी भौतिक संसाधनों की प्राप्ति की कामना कभी भी जीवन के लक्ष्य नहीं कहे जा सकते। ये सब मनुष्य की आवश्यकताओं की श्रेणी में आते हैं। इनका उपयोग मनुष्य के जीवन निर्वाह करने के लिए होता है। इन्हें दृष्टिकोण का नाम नहीं दिया जा सकता, इन सबको प्राप्त करना उसकी प्राथमिकता होती है या फिर इसे उसकी मजबूरी भी का नाम भी दिया जा सकता है।
           दृष्टिकोण के द्वारा ही मनुष्य के चिन्तन की प्राथमिकता निर्धारित की जाती है। जिस समय मनुष्य की जो आवश्यकता होती है, उसका चिन्तन होना चाहिए। व्यक्तिवादी सोच के कारण ही दृष्टिकोण का संकुचन होता है। हर व्यक्ति सुख की ऐसी परिभाषा गढ़ता है, जिसमें वही अकेला स्वयं को सुखी देखता है। सुखों में जरा भी कमी आ जाए, तो वह उसे सहन नहीं कर पाता। 
          मनुष्य का दृष्टिकोण उस समय व्यापक होता है, जब वह देश, धर्म, समाज के परिप्रेक्ष्य में देखता और सोचता है। जब मनुष्य केवल अपने या अपनों के विषय में विचार करता है, तब उसका दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। यानी स्व से पर की यह यात्रा उसके दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। मनुष्य का लक्ष्य राष्ट्र की उन्नति, सुखी जीवन तथा प्रकृति की सेवा हो सकते हैं। इनमें उसका मन रमता चाहिए।
             किसी से लेने की इच्छा दृष्टिकोण को हीन बनाती है। मनुष्य को सदा देते रहने की इच्छा करनी चाहिए, लेने की नहीं। दृष्टिकोण के प्रति चिन्तन और मनन करने से व्यक्ति में गुणों का उदय होने लगता है। उसे अपने जीवन में नए लक्ष्य दिखाई देते हैं। जब मनुष्य अपने शरीर और बुद्धि से परे मन की भूमिका पर विचार करने लगता है, तब उसे भावनात्मक धरातल का ज्ञान होने लगता है। 
            मनुष्य का यह दृष्टिकोण उसके परिवेश को प्रभावित करता है। यदि उसके विचार संकुचित हैं, तब उसका दृष्टिकोण भी संकीर्ण हो जाता है। उस समय उसे अपने, अपने परिवार या बन्धु-बान्धवों के अतिरिक्त और कोई नहीं दिखाई देता। जिन मनुष्यों का दृष्टिकोण विस्तृत होता है। उन्हें व्यष्टि के स्थान पर समष्टि की चिन्ता होती है। सभी अपने दिखाई देते हैं। वे सबके विषय में सोचते रहते हैं। 
          इस चर्चा का उद्देश्य मात्र यही है कि मनुष्य को अपने दृष्टिकोण को विशाल बनाना चाहिए, संकुचित नहीं। इसी में ही मानव जीवन की सार्थकता है। अपने विषय में तो हर कोई विचार कर लेता है। दूसरों के बारे में जो सोचे वही वास्तव में महान होता है। वास्तव में वही मनुष्य मानव कहलाने का अधिकारी है जो अपने दृष्टिकोण का दायरा विस्तृत करके सब जीवों को उसमें समा ले। 
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 21 सितंबर 2020

मृगतृष्णा एक छलावा

 मृगतृष्णा एक छलावा

मृगतृष्णा तो बस एक छलावा मात्र है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह मनुष्य की विडम्बना है कि वह सारा जीवन मानो मृगतृष्णा के पीछे भागता रहता है। फिर भी उसके हाथ में कुछ नहीं आता। वह  हर समय कदम-कदम पर प्रारब्ध के हाथों  छला जाता है। वह प्रयत्न करता है, तेज कदमों से भागता है, उसे लगता है कि अब उसने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है। पर नहीं, वहीं पर वह औंधे मुँह गिर जाता है, पटकनी खा जाता है।
           कोई मनुष्य रेगिस्तान में सफर कर रहा होता है, तो गर्मी के कारण उसे प्यास सताने लगती है। सामने कुछ दूरी पर तेज धूप रेत पर चमक रही होती है, तब मनुष्य को वहाँ पानी होने का अहसास होता है। पास जाने पर उसे वहाँ फिर से रेत दिखाई देती है। इसे मृगतृष्णा कहा जाता है। यानी केवल एक छलावा भर और कुछ भी नहीं। मनुष्य के साथ होने वाला यह छल उसे भीतर तक तोड़ देता है।
           यहाँ एक उदाहरण लेते हैं। कस्तूरी हिरण की नाभि में रहती है। जब हिरण को उसकी सुगन्ध आती है, तब उसे खोजने के लिए पूरा जंगल छान मारता है। वह जंगल में इधर-उधर भागता फिरता है। उसे वह इच्छित खुशबू कहीं नहीं मिल पाती। यानी मृग के साथ भी यहाँ पर छल हो जाता है। कस्तूरी की सुगन्ध को ढूंढने का उसका वह सारा परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। वह मायूस होकर रह जाता है।
           मनुष्य अपनों के बीच रहता हुआ भी किसी तलाश में लगा रहता है। वह क्या खोज रहा है, उसे स्वयं भी ज्ञात नहीं होता। उसकी वह तलाश है कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती। दूसरे शब्दों में कहें तो वह मृगमरीचिका के फेर में पड़ा होता है। जो उसका सारा सुख-चैन छीन लेती है। तब मनुष्य निराशा के भँवर में डूबने लगता है। उससे निकलने से उसके सारे उपाय किसी काम नहीं आते।
            मनुष्य एक तृष्णा करता है। उसे पाने के लिए अनथक प्रयास करता है। जब तक उसकी वह कामना पूर्ण होती है, तो दूसरी मुँह बाए खड़ी हो जाती है। यानी वह वह तृष्णा की मृगमरीचिका में डूबता और उतरता रहता है। उसकी मृगतृष्णा को पाने की यह यात्रा अनवरत चलती रहती है, जो कभी समाप्त नहीं होती। इस जंजाल में फँसा वह छटपटाता रहता है, इससे बाहर निकलने के लिए हाथ-पैर पटकता रह जाता है।
           ईश्वर मनुष्य के अपने हृदय में ही निवास करता है। परन्तु मनुष्य उसे जंगलों में, तीर्थ स्थानों में, तथाकथित धर्मगुरुओं के पास, पर्वतों की गुफाओं में, तन्त्र-मन्त्र आदि में खोजता फिरता है। वह घर-बार छोड़कर सन्यासी तक बन जाता है। परन्तु वह ईश्वर उसे कहीं भी नहीं मिलता। उसका भटकना सारा जीवन चलता रहता है, पर वह सब व्यर्थ। मनुष्य स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है। यानी यहाँ पर उसके साथ छल हो जाता है।
           मृगतृष्णा के पीछे भागता-भागता मनुष्य अपने जीवन में सुख भी भोग नहीं पाता। जिसे उसने दिन-रात परिश्रम करके कमाया होता है। वह बस और और को पाने का असफल प्रयास करता रहता है। वह हाथ बढ़ाकर उसे पकड़कर प्रसन्न होना चाहता है और आनन्द मनाना चाहता है, पर उसके हाथ कुछ भी तो नहीं आता। उसकी स्थिति हारे हुए जुआरी की तरह हो जाती है और वह न चाहते हुए भी व्यथित हो जाता है।
           मनुष्य को जानते-बुझते मृगतृष्णा के पीछे नहीं भागना चाहिए। वह सारा समय बस गोल-गोल घूमता रहता है। उसे कहीं भी ओर-छोर नहीं मिलता। जीवन में यह भटकाव उसे कहीं का नहीं रहने देता। उसे मायूसी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मिलता। यह विचार उसे निराशा के गर्त में धकेलने के लिए बहुत होता है। उसे अपने ऊपर विश्वास रखकर आगे कदम बढ़ाते जाना चाहिए।
           मनुष्य को स्वयं को संयमित कर लेना चाहिए ताकि उसे मृगतृष्णा के कड़वे अनुभव से निजात मिल सके। उसे अपने ऊपर विश्वास रखना चाहिए कि कितनी भी कठिन परिस्थिति क्यों आ जाए वह पार पा लेगा। मृगतृष्णा या मृगमरीचिका के पीछे भागने कर दुखी होने के स्थान पर, जो उसके पास है, उसी में सन्तोष करके जी लेगा।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 20 सितंबर 2020

तनाव से मुक्ति

तनाव से मुक्ति

तनाव मनुष्य के जीवन को बहुत प्रभावित करता है। यह उसके तन और मन को अपने कब्जे में कर लेता है। जब यह बहुत अधिक बढ़ जाता है, तो मनुष्य अवसाद में आ जाता है। तब मनुष्य आत्महत्या जैसे आत्मघाती कदम उठा लेता है। यह सच है कि नई पीढ़ी पर इसका जोरदार हमला हो चुका है। इसका कारण उनके कार्यक्षेत्र में होने वाले कार्य की अधिकता है। काम का प्रेशर इतना होता है कि उन्हें अपने लिए समय नहीं मिल पाता।
          इन्सान के शरीर में एक सीमित समय तक तनाव झेलने की क्षमता होती है। यह जब लम्बे समय तक बना रहता है, तो घातक सिद्ध होता है। तनाव के बारे में सबसे खतरनाक बात यह है कि मनुष्य इसका अभ्यस्त हो जाता है। सामान्यत: मनुष्य को पता नहीं चलता कि उसने इसे कितना प्रभावित किया है। सामान्य चेतावनी के संकेत और तनाव के लक्षणों के बारे में पता होना महत्वपूर्ण है। 
          प्रत्येक मनुष्य में तनाव के कारण अलग-अलग हो सकते हैं। काम का दबाव, आपसी रिश्तों की खटास या आर्थिक तंगी आदि। कारण चाहे कुछ भी हो, परन्तु उसका प्रभाव एक जैसा हो होता है। मनुष्य को जितना अधिक तनाव रहेगा, उतना ही उसके शरीर को स्ट्रेस हार्मोन कोर्टिसोल से जूझना पड़ेगा। कुछ मामलों में यह तनाव स्थायी हो जाता है। तब यह स्थिति बहुत भयावह हो जाती है। इसका सबसे अधिक असर हृदय, मस्तिष्क और प्रमुख अंगों पर पड़ता है। 
           तनाव के मुख्य कारण, इससे शरीर को होने वाले नुकसान और बचने के उपायों के बारे में जानना बहुत आवश्यक है। तनाव होने पर मनुष्य को न भूख लगती है और न ही खाया हुआ भोजन उसे पचता है। तनाव का बड़ा हमला जठर तन्त्र पर या पाचन प्रणाली पर होता है। तनाव हमारी आंतों पर भी नकारात्मक असर डालता है। तनाव से अवसाद और चिन्ता, किसी भी तरह का दर्द, कब्ज़ की शिकायत, त्वचा की स्थिति, जैसे एक्जिमा, दिल की बीमारी, वजन की समस्या होने लगती है।
         तनाव को दूर रखने के लिए स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना चाहिए। तनाव से मुक्त होने के लिए दिन में कम से कम सात से आठ घण्टे अवश्य सोना चाहिए। सुपाच्य भोजन खाना चाहिए, योग और प्राणायम करना चाहिए, पैदल चलना चाहिए, स्वीमिंग करनी चाहिए, दौड़ लगानी चाहिए। दिन में कम से कम पैंतीस मिनट तक व्यायाम अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य के शरीर में चुस्ती-स्फूर्ति बनी रहती है। 
          कुछ लोगों को आदत होती है कि वे आवश्यक कार्यों को अन्तिम समय तक टालते रहते हैं, वे अपेक्षाकृत अधिक तनाव में रहते हैं। अपने हर काम को अच्छी तरह सोच-समझकर और योजनाबद्ध तरीके से करना चाहिए। किसी योजना पर काम शुरू करने से पहले हानि-लाभ आदि पर विचार अवश्य कर लेना चाहिए। तनाव दबाव में प्रदर्शन करने में मनुष्य की सहायता कर सकता है। 
          तनाव शरीर के किसी भी प्रकार की माँग या खतरे का जवाब देने का तरीका है।तनाव शरीर की रक्षा करने का भी तरीका है। ठीक से काम करते समय, यह मनुष्य को केन्द्रित, ऊर्जावान और सतर्क रहने में मदद करता है। जब भी आपातकालीन परिस्थितियाँ हों, तब तनाव जीवन को बचा सकता है। उदाहरण के लिए दुर्घटना से बचने के लिए ब्रेक पर स्लैम करने के लिए प्रेरित कर सकता है।
            तनाव से मनुष्य को डरना नहीं चाहिए, बल्कि उसका डटकर सामना कर लेना चाहिए। थोड़ा-बहुत तनाव तो जिन्दगी का हिस्सा है। मनुष्य को यह समझना होगा कि इस तनाव से आखिर कैसे निपटा जाए? परिस्थितियों का सामना सही तरीके से करने पर तनाव का बुरा असर नहीं होता। कितना भी काम हो या कितना भी तनाव हो, रिलेक्स होने का समय निकाल लेना चाहिए। 
          यदि कोई समस्या आती है तो अपने बन्धु-बान्धवों से चर्चा करनी चाहिए। अपने ग्रन्थों का अध्ययन करने में समय व्यतीत करना चाहिए। अपनी कोई हॉबी है, तो उस पर कार्य करना चाहिए। अकेले बैठने से बचना चाहिए, सबक साथ मिलकर रहना चाहिए। ईश्वर का ध्यान करने से भी तनाव से मुक्ति मिलती है। इस प्रकार समस्याओं का सही हल, तनाव से मनुष्य को निजात दिला सकता है।  
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 19 सितंबर 2020

जीवन की अवस्थाएँ

  जीवन की अवस्थाएँ

तीन अवस्थाएँ ऐसी हैं जो जन्म और मृत्यु के मध्य अनवरत चलती रहती हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। यानी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति यह क्रम इस प्रकार चलता रहता है। जागता हुआ व्यक्ति जब शय्या पर सोता है, तो पहले स्वप्न अवस्था में चला जाता है। फिर उसकी नींद गहरी हो जाती है, तब वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रह सकता है। 
         कुछ लोग जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं अर्थात् वे जागते हुए कल्पना और विचार में खोए रहते हैं। यह स्वप्न की अवस्था कहलाती है। भविष्य की कोई योजना बनाते समय मनुष्य वर्तमान में न रहकर कल्पना लोक में चला जाता है। कल्पना लोक यथार्थ नहीं होता, एक प्रकार का स्वप्न-लोक होता है। अतीत की किसी याद में खो जाने पर मनुष्य स्मृति लोक में चला जाता है। यह भी एक प्रकार का स्वप्न लोक ही होता है।
            उल्टे क्रम में प्रातः होने पर मनुष्य पुन: जाग्रत अवस्था में आ जाता है। इस अवस्था में मनुष्य अपनी दैनिक क्रियाएँ करता है। वर्तमान में रहना ही चेतना की जाग्रत अवस्था है। उसमें मनुष्य को अपना, अपने परिवार और अपने बन्धु-बान्धवों का ज्ञान रहता है। उसे अपने कार्य का भी ध्यान रहता है। इसी अवस्था में रहता हुआ मनुष्य चैतन्य रहता है और सांसारिक कार्यकलापों से जुड़ा रहता है।
           प्रायः लोग स्वप्‍न में जीते हैं, अपने वर्तमान जीवन में सिर्फ दस प्रतिशत ही जी पाते हैं। वर्तमान में रहना ही चेतना की जाग्रत अवस्था है। कोई व्यक्ति जागता हुआ भी सोया-सोया-सा दिखाई देता है। पर उसकी आँखें खुली रहती है। किन्तु कुछ लोग बेहोशी में जीते हैं। यह बहुत विचित्र बात है कि उन लोगों का यह जीवन कब गुजर जाता है, इसका उन्हें भान ही नहीं होता। 
            स्वप्न अवस्था जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था होती हैं। निद्रा में गहरे डूब जाना सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागता है और थोड़ा सोया रहता है। इसमें अस्पष्ट अनुभवों और भावों का घालमेल रहता है, इसलिए व्यक्ति कब कैसे स्वप्न देख ले कोई भरोसा नहीं। व्यक्ति झाड़ी के ‍हिलने को भूत मानने लगता है। इसी प्रकार रस्सी में साँप की कल्पना करने लगता है। 
            मनुष्य के स्वप्न उसके दिनभर के जीवन, विचार, भाव और सुख-दुख आदि पर आधारित होते हैं। वे किसी भी तरह के संसार की रचना कर सकते हैं। गहरी नींद को सु‍षुप्ति अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में पाँच ज्ञानेंद्रियों चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा और पाँच कर्मेंद्रियों वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और गुदा सहित मनुष्य की चेतना विश्राम करती है। सुषुप्ति अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। 
         यह अवस्था मनुष्य के सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। इस अवस्था में किसी प्रकार का कष्ट या पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न उसकी सम्भावना होती है। इस समय गहरी नींद होने के कारण मानो मनुष्य का सम्पर्क संसार से कट जाता है। उसे किसी का भी भान नहीं रहता। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और अधिक गहन अवस्था में चले जाते हैं।
            छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार आत्मा जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्थाओं के अतिरिक्त चौथी तुरीय अवस्था का अनुभव करती है, इसे तुरीय चेतना कहते हैं। यह अवस्था व्यक्ति के अथक प्रयासों से प्राप्त होती है। चेतना की इस अवस्था का कोई गुण और रूप नहीं है। यह अवस्था निर्गुण है, निराकार है। इसमें न जागृति है, न स्वप्न है और न सुषुप्ति है। यह अवस्था निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे पूर्ण है।
            यह उस साफ और शान्त जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है। यह पारदर्शी काँच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं हो रहा है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति चेतनाएँ तुरीय के पर्दे पर जैसी घटित होती हैं, वह उन्हें हू-ब-हू मनुष्य के अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है, जहाँ से आध्यात्मिक यात्रा का आरम्भ होता है। तुरीय अवस्था के इस किनारे संसार की दुःख-परेशानियाँ हैं, तो उस किनारे मोक्ष का आनन्द होता है। 
            मनीषी कहते हैं कि जीव जब गर्भ में प्रवेश करता है, तब वह गहरी सुषुप्ति अवस्था में होती है। जन्म से पूर्व भी वह इसी अवस्था में ही रहती है। गर्भ से बाहर आकर उसकी चेतना पर से सुषुप्ति दूर होने लगती है तब वह स्वप्निक अवस्था में प्रवेश कर जाता है। लगभग सात वर्ष की आयु तक इसी अवस्था रहने के बाद वह होश सम्भालने लगता है।
           मनीषी कहते हैं कि जन्म एक जाग्रत अवस्था है और जीवन एक स्वप्न है तथा मृत्यु एक गहरी सुषुप्ति अवस्था में चले जाना है। अपने जीवन में जिन लोगों ने नियमित रूप से 'ध्यान' किया है उन्हें मृत्यु मार नहीं सकती। ध्यान की एक विशेष दशा में मनुष्य तुरीय अवस्था में पहुँच जाता है। समझने के लिए इस तुरीय अवस्था को पूर्ण जागरण की अवस्था कह सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

शयन की विधि

 शयन की विधि

शास्त्रों ने मनुष्य जीवन को सुचारू रूप से चलने के लिए, उसे अनुशासित करने का प्रयास किया है। इसीलिए आहार-विहार, सोने-जागने आदि के लिए कुछ नया बनाए हैं। उनके अनुसार यदि जीवन जीने की आदत बन ली जाए, तो मनुष्य बहुत-सी बीमारियों से बच सकता है। आज हम शयन यानी सोने के बारे में चर्चा करेंगे। इस विषय में विद्वानों ने कई परामर्श दिए है। उन पर विचार करते है।
          बहुत समय पूर्व सोने के नियमों के विषय में कहीं पढ़ा था। उन्हें यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ। हो सकता है आप लोगों में से कुछ ने इन नियमों के विषय में पड़ा होगा। थोड़ा-सा परिवर्तन करके इन्हें इस आलेख में दे रही हूँ।
           मनीषी कहते हैं कि मनुष्य को सूर्यास्त के एक लगभग तीन घण्टे के बाद सोना चाहिए। 'पद्मपुराण' का मानना है कि जिस कमरे में मनुष्य शयन करे उसमें थोड़ा-सा प्रकाश अवश्य ही होना चाहिए। बिल्कुल अँधेरे कमरे में मनुष्य को नहीं सोना चाहिए। 
          'मनुस्मृति:' में महाराज मनु कहते हैं कि सूने तथा निर्जन घर में अकेले नहीं सोना चाहिए। इसके अतिरिक्त देव मन्दिर और श्मशान में भी मनुष्य को नहीं सोना चाहिए। 'गौतम धर्मसूत्र' का मत है कि नग्न होकर या निर्वस्त्र होकर कभी नहीं सोना चाहिए। सोते समय माथे पर से तिलक हटा देना चाहिए। ललाट पर तिलक लगाकर सोना भी अशुभ माना जाता है। 
            'ब्रह्मवैवर्तपुराण' में कहा है कि दिन में सोने से तथा सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाला मनुष्य रोगी एवं दरिद्र हो जाता है। दिन में सोने से मनुष्य को बचना चाहिए। विद्वानों का ऐसा मानना है कि  दिन में सोने से मनुष्य को रोग घेर लेते हैं और आयु का क्षरण होता है। ज्येष्ठ मास में जब बहुत गर्मी होती है, तब दोपहर के समय एक मुहूर्त यानी अड़तालीस मिनट के लिए सोया जा सकता है। 
         दक्षिण दिशा में पाँव करके सोने को अशुभ माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि दक्षिण दिशा में यम और दुष्ट निशाचरों का निवास रहता है। इससे कान में हवा भरती है। मस्तिष्क में रक्त का संचार कम को जाता है, स्मृति-भ्रंश, मौत व असंख्य प्रकार की बीमारियाँ हो जाती है। गीले पैर नहीं सोना चाहिए, पैरों को अच्छी तरह पौंछकर सुखा लेना चहिए। सूखे पैर सोने से लक्ष्मी या धन की प्राप्ति होती है। पाँव पर पाँव चढ़ाकर भी नहीं सोना चाहिए।
          'आचारमयूखम्' का कथन है कि पूर्व की ओर सिर करके सोने से विद्या बढ़ती है। पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता घेर लेती है। उत्तर की ओर सिर करके सोने से हानि व मृत्यु होती है।दक्षिण की ओर सिर करके सोने होती है धन व आयु की प्राप्ति होती है। बायीं करवट लेकर सोना मनुष्य के स्वास्थ्य के लिये हितकर है।
           'महाभारत' में कहा गया है कि टूटी चारपाई पर और जूठे मुँह सोना वर्जित कहा गया है। इसका अर्थ है कि चारपाई टूटी हो तो गिरने से चोट लग सकती है। यदि कुल्ला करके अथवा ब्रश करके न सोया जाए तो दाँतों में कीड़ा लग सकता है। इससे दाँत सड़ने लगते हैं।
          हृदय पर हाथ रखकर सोने से स्वप्न बहुत आते हैं। छत के पाट या बीम के नीचे सोने से बीम गिरने का डर रहता है। सोते सोते पढ़ना नहीं चाहिए। ऐसा करने से नेत्र ज्योति घटती है। नींद आने से पढ़ाई नहीं हो सकती। 
         'विष्णुस्मृति:' में कहा गया है कि सोए हुए मनुष्य को अचानक नहीं जगाना चाहिए। इसका कारण है कि मनुष्य हड़बड़ा कर उठता है। इससे वह लड़खड़ाकर गिर सकता है। कुछ लोगों को शारिरिक कष्ट भी हो जाता है। इसलिए मनुष्य को आराम से और प्यार से जगाना चाहिए।
             आचार्य चाणक्य का कथन है कि विद्यार्थी, नौकर और द्वारपाल यदि अधिक समय से सोए हुए हों, तो इन्हें जगा देना चाहिए। विद्यार्थी यदि देर तक सोएगा तो उसकी पढ़ाई का नुकसान होगा। नौकरों को घर के मालिक से पूर्व उठकर तैयार हो जाना चाहिए। इसी प्रकार द्वारपाल को भी प्रातः शीघ्र उठ जाना चाहिए।
          इस प्रकार शयन के ये नियम कहे गए हैं। इनका पालन करके मनुष्य सुख और शान्ति से रह सकता है। आजकल लोग फ्लैटों में रहते हैं। हो सकता है वहाँ का नक्शा इस प्रकार का हो कि इन नियमों का पालन न किया जा सके। जहाँ तक सम्भव हो इन नियमों की पालना कर लेनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 17 सितंबर 2020

प्रोत्साहन की कमी

 प्रोत्साहन की कमी

प्रोत्साहन एक ऐसा भाव है, जो प्रत्यक्षतः दिखाई नहीं देता, परन्तु यदि किसी को मिल जाए, तो उसका जीवन बदल जाता है। यदि कोई मनुष्य आलसी है, कामचोर है या कभी सफल नहीं होता, ऐसे व्यक्ति को प्रोत्साहन मिल जाए, तो वह भी चमत्कार कर सकता है। इसके विपरीत किसी कर्मठ व्यक्ति को यदि निरन्तर हतोत्साहित किया जाए, तो वह अपने जीवन में धीरे-धीरे पिछड़ने लगता है।
          जहाँ तक हो सके माता-पिता को अपने बच्चों को बाल्यकाल से प्रोत्साहित करना चाहिए। यदि वे ऐसा करते हैं, तो उन बच्चों को सफल होने से कोई शक्ति नहीं रोक सकती। इससे बच्चों में सकारात्मकता की भावना जन्म लेती है। वे सोचते हैं कि माता-पिता हमारे लिए इतना करते हैं, तो हम थोड़ा परिश्रम नहीं कर सकते? उन्हें पता होता है कि यदि कभी कहीं थोड़ी कमी रह जाएगी, तब माता-पिता उन्हें समझाकर भविष्य के लिए प्रेरित करेंगे।
           इसके विपरीत यदि माता-पिता अपने बच्चों की तुलना सदा दूसरे बच्चों से करते रहेंगे, तब उनके बच्चों के मन में हीन भावना घर कर जाएगी। यह हीन भावना बच्चों के स्वस्थ विकास लिए हानिकारक सिद्ध होती है। उस समय बच्चों के मन में नकारात्मकता का जन्म होता है। वे सोचते हैं कि कितना भी कर लो माँ-पापा ने बस हमारी गलती ही निकालनी है। इसलिए मेहनत करने का क्या लाभ? परिश्रम करने के स्थान पर जिन्दगी के मजे लो।
          माता-पिता को सदा स्मरण रखना चाहिए कि हर बच्चे में अपनी एक विशेषता होती है। सभी बच्चे एक जैसी योग्यता वाले नहीं हो सकते। यदि ऐसा सम्भव हो जाए, तब सभी बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, एमबीए या व्यवसायी ही बन जाएँगे। उस समय फिर बाकी क्षेत्रों के काम कौन सम्हालेगा? विविधता होने पर ही सभी विभिन्न कार्य अलग-अलग लोगों के द्वारा सम्पादित किए जाते हैं।
          इसी प्रकार कार्यक्षेत्र में यदि बॉस अपने अधीनस्थ लोगों को समय-समय पर प्रोत्साहित करता रहता है और उनसे गलती होने पर अकेले में समझता है, तब वह व्यवसाय चमकता है। वहाँ कार्य करने वाले लोग उत्साहपूर्वक कार्य करते हैं। फिर उस कम्पनी को नम्बर एक बनने से कोई नहीं रोक सकता। वहाँ के कार्य की गुणवत्ता में आश्चर्यजनक परिवर्तन देखने को मिल सकता है।
           किसी व्यक्ति को प्रोत्साहित करना अपने आप में एक बड़ी विशेषता है। जिस व्यक्ति में यह गुण आ गया, समझो वह इस दुनिया को फतेह कर सकता है। माता-पिता अपने बच्चे को, गुरु अपने शिष्य को और बॉस अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को यदि समय-समय पर प्रोत्साहित करते रहते हैं, तो वे बच्चे, वे शिष्य व वे कर्मचारी सभी ही उत्साहित होकर, अपनी क्षमता से बढ़कर परिश्रम करते हैं। उसका परिणाम देखकर चकित रह जाना पड़ता है।
          प्रोत्साहन की कमी से मनुष्य का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है। जिस प्रकार मनुष्य में किसी भी तरह के विटामिन की कमी होती है, तो उसे कठिनाई का सामना करना पड़ता है। तब उसका शरीर अस्वस्थ हो जाता है। फिर उसे स्वस्थ होने के लिए डॉक्टर के पास जाना पड़ता है और दवाई खानी पड़ती है। उस समय मनुष्य को समझ ही नहीं आता कि उसकी दिशा ठीक है गलत।
           जिन लोगों के पास इस प्रोत्साहन की कमी होती है, वे निश्चित ही जीवन की रेस में पिछड़ जाते हैं। वे कभी अपने कार्य से सन्तुष्ट नहीं हो सकते। मनुष्य के पास अवश्य ही ऐसा कोई साथी होना चाहिए, जो उसके सही कार्य करने पर उसकी पीठ थपथपा सके, उसे प्रोत्साहित कर सके। इससे वह और अधिक मेहनत करेगा और अपने सपनों को साकार करने के लिए दिन-रात एक कर देगा।
           प्रोत्साहन जीवन के सफलता रूपी ताले की कुञ्जी है। इस कुञ्जी से उस विशेष ताले को खोलकर मनुष्य सफलता के पथ पर अनवरत अग्रसर होता है। वह ऊँची उड़ान भरने में सफल होता है। इस चाबी से वञ्चित रहने वाले जीवन में हताश और निराश रहते हैं। उन्हें सदा असफलता का भय सताता रहता है। इसलिए वे आगे बढ़ने के अवसर अक्सर संकोचवश चूक जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 16 सितंबर 2020

सन्तुलन का अभाव

सन्तुलन का अभाव

मनुष्य के जीवन में सन्तुलन का होना बहुत आवश्यक होता है। यदि उसमें सन्तुलन का अभाव होगा, तब उसका जीवन बिखरने लगता है। कदम-कदम पर उसे सामञ्जस्य बिठाने की आवश्यकता होती है। चाहे घर या परिवार हो, चाहे कार्यक्षेत्र हो अथवा कोई सभा-सोसाइटी हो, हर स्थान पर उसे सन्तुलन रखना पड़ता है। जो व्यक्ति इस रहस्य को समझ लेता है, वह सर्वत्र सफल होता है।
          घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों में यदि सामञ्जस्य रखा जाए, तो ये सभी रिश्ते फलते-फूलते हैं। अन्यथा वे मुरझा जाते हैं। पति-पत्नी, माता-पिता और बच्चों के साथ व्यवहार करते समय सन्तुलन बनाए रखना अति आवश्यक होता है। यदि पति-पत्नी में परस्पर सामञ्जस्य न हो तो, उनका रिश्ता बिखरने में समय नहीं लगता। इस प्रकार घर टूटने की कगार पर पहुँच जाता है। तब मासूम बच्चे इस बिखराव का शिकार बनते हैं। यद्यपि उन बेचारों का इसमें कोई दोष नहीं होता।
          बन्धु-बान्धवों के साथ सन्तुलित व्यवहार न होने पर उनमें वैमनस्य बढ़ता है। शीघ्र ही वे रिश्ते आपस में कटने लगते हैं। जिस रिश्ते से ठीक से व्यवहार नहीं किया जाएगा, वही दूरी बना लेता है। तब एक समय ऐसा आ जाता है, जब इन्सान के बन्धु-बान्धव उससे किनारा करने लगते हैं। धीरे-धीरे मनुष्य अकेला होने लगता है। दूर-दूर तक उसे अपना कोई बन्धु दिखाई नहीं देता।
           अपने कार्यक्षेत्र में सन्तुलन न बनाकर रखने की स्थिति में मनुष्य के मित्र कम और शत्रु अधिक बनने लगते हैं। फिर वे उसके हर अच्छे-बुरे कार्य में अड़ंगा लगाने लगते हैं। इस प्रकार वह हर समय परेशान रहने लगता है। इस अवस्था में उसका मन काम करने से उचटने लगता है। तब ऐसी स्थिति बन जाती है कि वह अच्छा करने लगता है, तो निश्चित ही उससे गलती हो जाती है। फिर उसे अपने बॉस से डाँट खानी पड़ी जाती है।
         पड़ोसियों से भी सन्तुलन बनाकर रखना पड़ता है। अपने अहं के कारण उनसे सम्बन्ध बिगाड़े नहीं जा सकते। सुख-दुख के समय अपने बन्धु-बान्धव तो समय से पहुँचते हैं, पड़ोसी पहले आकर साथ खड़े होते हैं। ऐसे लोगों से मनमुटाव कर लेना किसी भी तरह उचित नहीं होता। उनके साथ अपने सम्बन्ध हमेशा ही मधुर होने चाहिए। छोटी-मोटी बात यदि हो भी जाए तो उसे अनदेखा करना चाहिए।
           अब अपने जीवन की बात करते हैं। वहाँ आहार-विहार का सन्तुलन करना परम् आवश्यक होता है। हमारा भोजन सुपाच्य होना चाहिए। जंक फूड के स्थान पर घर का बना सादा भोजन खाना कहीं अधिक श्रेयस्कर होता है। इससे मनुष्य के पास बीमारियाँ कम आती हैं। अधिक तल हुआ या जंक फूड अपेक्षाकृत अधिक स्वादिष्ट हो सकता है, पर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।
          विहार यानी सैर करना शरीर के लिए अच्छा होता है। मनुष्य यदि भ्रमण करने का स्वभाव बना ले, तो शरीर स्वस्थ रहता है। समय पर सोने और समय पर जागने से शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है। मनुष्य को आलस्य नहीं सताता। उसके कार्यों की गुणवत्ता बनी रहती है। जिससे उसकी सर्वत्र प्रशंसा होती रहती है। आहार तथा विहार के सन्तुलन से मनुष्य रोगों से दूरी बनाकर रखता है।
           मनुष्य को हर कदम पर सन्तुलन बनाने की आवश्यकता होती है। समाज में ऐसे व्यक्ति को लोग पूछते हैं, जो सबके साथ अच्छा व्यवहार करता है। उनकी दृष्टि में ऐसा व्यक्ति सम्मननीय होता है। मन, वचन और कर्म से सन्तुलन बनाने वाला वाकई महान होता है। इसका प्रदर्शन करने वाले का मुखौटा शीघ्र ही उतर जाता है और उसकी पोल खुल जाती है। तब वह कहीं का नहीं रह जाता।
           इस सम्पूर्ण चर्चा का सार यही है कि मनुष्य को दूसरों के लिए नहीं बल्कि अपनी मानसिक शान्ति बनाए रखने के लिए सन्तुलन बनाकर रखना चाहिए। इससे उसके मित्रों और बन्धु-बान्धवों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। तथा उसके शत्रु अपेक्षाकृत कम होते हैं। ऐसे ही व्यक्ति जीवन की रेस में जीत जाते हैं। यही वे लोग हैं जो हर ओर से अपने नाम पर वाहवाही लिखवा लेते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 15 सितंबर 2020

समस्या के मूल में देखें

  समस्या के मूल में देखें

समस्याएँ मनुष्य के नित्य प्रति के जीवन का एक अभिन्न अंग है। यदि जीवन में कोई समस्या न हो, तो वह नीरस हो जाता है। परन्तु समस्याएँ आने पर वह परेशान होने लगता है। उससे बाहर निकलने का उपाय सोचकर वह हलकान होता रहता है। कभी तो उसका हल निकल आता है, पर कभी उसके लिए माथापच्ची करनी पड़ती है। यह समस्या है कि अंगद की तरह पैर जमाकर वहीं की वहीं रह जाती है। 
          प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है, यानी उनसे जूझना पड़ता है। इस संसार में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जिसके जीवन में समस्या की पदचाप सुनाई नहीं देती। यह समस्या ऐसी है कि सुलझने का नाम ही नहीं लेती। इसे बहुत ही धैर्य से और समय देकर सुलझाना पड़ता है, नहीं तो यह और उलझकर जीना मुश्किल कर देती है। तब उनसे छुटकारा पाना बहुत ही कठिन हो जाता है।
          जिस प्रकार ऊन या रेशम के धागे अनायास ही उलझ जाते हैं, तो बहुत ही धैर्य से धीरे-धीरे उन्हें सुलझाया जाता है। नहीं तो ये धागे और अधिक उलझकर दुख का कारण बन जाते हैं। फिर उन्हें फेंकना पड़ता है या फिर तोड़ना पड़ता है। तब उनमें गाँठ पड़ जाती है। उसी प्रकार इन समस्याओं को भी बहुत ही सूझबूझ और धैर्य के साथ सुलझाना पड़ता है। नहीं तो ये समस्याएँ और उलझकर मनुष्य के दुख का कारण बनती हैं।
          समस्याओं को समझने के लिए उनके मूल में जाना पड़ता है। शान्ति से बैठकर विचार करना होता है कि आखिर यह समस्या जीवन में आई कैसे? यदि इस समस्या का मूल या इसकी जड़ पकड़ में आ जाए, तो उसे सुलझाना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है। हो सकता है कि मनुष्य की अपनी मूर्खता से वह समस्या में घिर गया हो। जब कारण समझ में आ जाए, तब उसका निदान करना अधिक सरल हो जाता है।
           कुछ समस्याएँ हमारी लापरवाही या मूर्खता से जीवन में आती हैं। कुछ समस्याएँ अपने बन्धु-बान्धवों के कारण खड़ी की जाती हैं। कुछ हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के फलस्वरूप हमारे दुख का कारण बनती हैं। पहली दोनों प्रकार की समस्याओं का मूल कारण जान लेने पर सुलझाई जा सकती हैं। परन्तु अपने कर्मानुसार मिली समस्याएँ समय रहते सुलझती हैं। ये इतनी जल्दी पिण्ड नहीं छोड़तीं।
           कभी-कभी ऐसा होता है कि मनुष्य जानता है कि भविष्य में कोई समस्या आड़े आने वाली है। तब वह सोचता है कि जब कुछ होगा या फिर जब समय आएगा, तब देख लिया जाएगा। उसकी यह अहं की भावना समय आने पर उसे लाचार बना देती है। तब समस्या इतनी गम्भीर हो जाती है कि उसे सम्हालना कठिन हो जाता है। चाहकर भी उसका ओरछोर हाथ में नहीं आ पाता। 
           उस समय उसे पश्चाताप होता है कि यदि वह समय पर चेत गया होता, तो इतनी उसे कठिनाई का सामना न करना पड़ता। तब तक समय हाथ से निकल चुका होता है। उसके पास पछताने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचता। इस तरह मनुष्य अपने पैर पर स्वयं ही कुल्हाड़ी मार लेता है। फिर रोता है और दुखी होता है। अपनी गलती होने पर भी दूसरों को तथा ईश्वर को दोष देता है।
            समस्या तो समस्या होती है, चाहे वह छोटी हो अथवा बड़ी हो। कभी-कभी छोटी समस्या भी बड़ी बन जाता है। मनुष्य को दुख और परेशानी दोनों ही स्थितियों में उठानी पड़ती है। छोटी समस्या से शीघ्र मुक्ति मिल जाती है और मनुष्य चैन की साँस लेता है। बड़ी समस्या से मनुष्य को छुटकारा बहुत कठिनाई से मिल पाता है। कई बार वह मनुष्य को तोड़कर रख देती है। उससे उभरने का कोई मार्ग भी तो उसे नहीं दिखाई देता।
          इस चर्चा का सार यही है कि मनुष्य को अपने जीवन में सदा ही सावधान रहना चाहिए। यदि उसे यह लगता है कि निकट भविष्य में उसके समक्ष कोई मुसीबत या समस्या आने वाली है, तो उसका निदान या हल पहले ही खोज लेना चाहिए। समस्या के मूल तक जाने का प्रयास करना चाहिए। उससे समस्या को सुलझाने में सहायता मिलती है। जितनी जल्दी समस्या से मनुष्य को मुक्ति मिल जाएगी, उतना ही वह सुखी रह सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 14 सितंबर 2020

सन्तुष्ट मन

 सन्तुष्ट मन

मन का सन्तुष्ट होना बहुत आवश्यक होता है अन्यथा यह बहुत ही परेशान करता है, नाच नचाता है। सबसे बड़ी समस्या यही है कि यह बहुत कठिनता से सन्तुष्ट होता है। सारा समय यह स्वयं इधर-उधर भटकता रहता है और मनुष्य को भी चैन से बैठने नहीं देता। यह उसे बस किसी न किसी कारण से उद्वेलित करता रहता है। मन यदि सन्तुष्ट होकर शान्ति से टिक जाए, तो मनुष्य को भटकने की आवश्यकता ही नहीं रहती।
           'श्री भागवत पुराण' में महर्षि वेद व्यास ने इस मन के विषय में बहुत सत्य कहा गया है-
        अकिञ्चनस्य दान्तस्य 
                शान्तस्य समचेतसः।
          सदा सन्तुष्टमानसः 
                सर्वाः सुखमया दिशाः॥
अर्थात् कुछ न रखने वाले, नियन्त्रित करने वाले, शान्त, समान चित्त वाले, सदा सन्तुष्ट मन वाले मनुष्य के लिए सभी दिशाएँ सुखमय होती हैं।
           इस श्लोक में वेद व्यास जी के कहने का तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति का मन सन्तुष्ट हो जाता है, उसके लिए सभी दिशाएँ स्वत: सुखदायी हो जाती हैं। यानी मनुष्य किसी भी स्थान पर रहे, उसे सन्तोष रूपी धन मिल जाता है। उसे यहाँ वहाँ कहीं भी भटकना नहीं पड़ता। किसी ऋषि-मुनि के पास जाकर उसे अपने मन की शान्ति पाने का मन्त्र देने के लिए प्रार्थना भी नहीं करनी पड़ती।
            निम्न श्लोक में कवि शान्त मन वालों के लिए कह रहा है-
          सन्तोषामृततृप्तानां 
               यत्सुखं शान्तचेतसाम्।
           कुतस्तद्धनलुब्धानां 
                एतश्चेतश्च  धावताम्॥
अर्थात् सन्तोष रूपी अमृत से तृप्त शान्त मन वालों का सुख उन लोभियों को कैसे मिल सकता है, जो धन के पीछे अचेत होकर भागते फिरते हैं।
          इस श्लोक में कवि समझाना चाहते हैं कि जो मनुष्य लोभ के जल में फँसे हुए हैं, वे सदा बेसुध होकर धन के पीछे भागते रहते हैं। उन्हें दिन-दुनिया की कोई सुध नहीं रहती। वे सदा बस 'हाय पैसा, हाय पैसा' का मन्त्र जपते रहते हैं। यह पैसा है कि किसी के हाथ नहीं आता। सबको अँगूठा दिखाता हुआ यह बस इधर से उधर भागता फिरता है। किसी के साथ अपनी वफादारी नहीं निभाता।
          कवि ने सन्तोष को अमृत बताया है। जिस मनुष्य के मन ने इस अमृत का पान कर लिया वह स्वयं ही सुख से रहता है और मनुष्य को भी सुख से रहने देता है। यह सुख धन के पीछे पागल होने वालों को कदापि नहीं मिल सकता। समान चित्त वाले द्वन्द्व को सहने वाले होते हैं। मन को अपने नियन्त्रण में करने वाले मनुष्यों के इशारों पर यह नासमझ छोटे बच्चे की तरह शान्ति से चलता है। 
         मनुष्य का मन बहुत चञ्चल है। यदि इसे वश में करने की कला मनुष्य सीख ले, तो उसका जीवन तर जाता है। अन्यथा इस मन के फेर में फँसे लोग बाहर निकलने के लिए छटपटाते रहते हैं। इस मन के चंगुल से बचकर निकल पाना कोई सरल कार्य नहीं है। सारा जीवन मनुष्य का यह जीवन भटकता ही रहता है। दुर्भाग्य से उसे इस आसार संसार में कहीं भी ठौर नहीं मिल पाती।
          मनुष्य के मन को जब सन्तोष रूपी धन मिल जाता है, तो बाकी सारे धन उसके लिए व्यर्थ हो जाते हैं। ऐसा मनस्वी पुरुष सहज ही सुख-शान्ति प्राप्त कर लेता है। तब उसे मन्दिरों, तीर्थस्थानों, तथाकथित धर्म गुरुओं, तान्त्रिकों या मन्त्रिकों के पास व्यर्थ ही भटकना नहीं पड़ता। जिसे घर बैठे सन्तोष मिल जाए उसका जीवन सफल हो जाता है। उसने मानो इस दुनिया पर विजय प्राप्त कर ली।
         जहाँ तक हो सके मनुष्य को अपने इस मन का गुलाम नहीं बनना चाहिए। यदि ऐसा हो जाए तो वह स्वामी की तरह आदेश देकर उसकी नाक में दम कर देता है। अतः यथासम्भव इसे अपने वश में कर लेना चाहिए। इससे यह मन मनुष्य पर अपनी हकूमत नहीं चल सकता, बल्कि तब मनुष्य की इच्छा के अनुसार चुपचाप सिर झुकाए अच्छे बच्चे की तरह उसके पीछे-पीछे चलता रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 13 सितंबर 2020

हिन्दी दिवस

 हिन्दी दिवस पर विशेष

हिन्दी दिवस पर केवल भाषण देने या गोष्ठियाँ कर लेने से भाषा में कोई सुधार नहीं होने वाला। हिन्दी भाषा का दुर्भाग्य है कि उसके नाम पर केवल राजनीतिक रोटियाँ ही सेकी जाती है। वह अपने देश मे ही बेगानी हो रही है। हिन्दी पखवाड़ा मना लेने से उसका उद्धार नहीं होने वाला। उसके लिए सबको मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे।
             हिन्दी के नाम पर आज बस एक-दूसरे पर छींटाकशी चलती रहती है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि तथाकथित हिन्दी प्रेमी केवल भाषणों का आदान-प्रदान करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। उससे ही उनका हिन्दी प्रेम छलककर सबको सम्मोहित करने का प्रयास करता है।
          यह सत्य है कि आज हिन्दी अपने ही देश में पराई हो रही है। उसकी इस स्थिति का श्रेय हम सभी भारतवासियों को जाता है जो बड़ी शान से कहते हैं कि हिन्दी बहुत कठिन भाषा है। इसीलिए बच्चों को भी इस भाषा मे कोई रुचि नहीं है। वे इस भाषा को गले मे पड़ी आफत की तरह देखते हैं। सोचते हैं कि कब इसको पढ़ने से पीछा छूटे।
          तथाकथित सभ्य लोग केवल अपने ड्राइवर, माली, नौकर आदि से हिन्दी में बात करते है, वैसे हिन्दी बोलने में उनकी हेठी होती है। यह सब उनकी गुलाम मानसिकता का परिचायक है। वे अभी तक अंग्रेजों की दासता से उबर नहीं पा रहे।
          चाहे हिन्दी प्रेमी हों अथवा टीवी- सिनेमा के कलाकार हों सभी हिन्दी से रोटी कमाते हैं, पर जब उनसे कुछ पूछा जाए तो उत्तर अंग्रेजी में देते हैं। ऐसा करके उनका सीना गर्व से फूल जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें शायद हिन्दी में बोलने में शर्म महसूस होती है। खाते हिन्दी से है और उसकी ही उपेक्षा करते है।
         मैं देश की राजधानी दिल्ली की बात करना चाहती हूँ जहाँ हिन्दी के नाम पर छोटे-छोटे गुट बने हुए हैं। हिन्दी भाषियों में हो रही यह गुटबन्दी भाषा का भला नहीं कर रही बल्कि उसे नित्य हानि ही पहुँचा रही है।
        तथाकथित साहित्यकार एक-दूसरे की पीठ सहलाकर ही महान रचनाकार कहलवाने का जुगाड़ कर रहे हैं। बिना ऐसी किसी महत्त्वपूर्ण रचना के लिखे ही सम्मान बाँटने अथवा बटोरने की होड़-सी मची हुई है। इनमें से बहुत से ऐसे लोग भी हैं जिन्हें भाषा को शुद्ध लिखना व बोलना तक भी नहीं आता। 
          आपको फेसबुक पर ऐसे उदाहरण आसानी से मिल जाएँगे जिनकी लिखी हुई दो-चार पंक्तियों में भी भाषागत अशुद्धियाँ मिल जाएँगी। ऐसे लोगों को वर्तनी अथवा व्याकरण से कोई लेना देना नहीं है परन्तु हाँ, उन्हें नित्य सम्मान भी मिल रहे हैं और वाहवाही भी।
        मन को उस समय बहुत कष्ट होता है जब रचनाकारों की बिना स्वाध्याय के उथली रचनाएँ पढ़ने के लिए मिलती हैं। उस समय समझ में नहीं आता कि हम साहित्य में क्या योगदान कर रहे हैं? अपने आने वाली पीढ़ी को क्या ऐसा साहित्य थाती के रूप में सौंपेगे?
      फेसबुक पर प्रायः हिन्दी प्रेमियों की ऐसी व्यथा कथा पढ़ने के लिए मिल जाती है। आज फेसबुक पर एक मित्र ने बड़े ही दुखी मन से पूछा है- 'क्या इस देश समाज में लेखक या कलाकार की कोई इज्जत नहीं होती?'
       इस प्रश्न के उत्तर में मैंने उन्हें लिखा है-  'इज्जत कमाई जाती है। यदि लेखक और कलाकार इज्जत कमाना चाहते हैं तो एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना छोड़कर अपनी रचनाधर्मिता का निर्वहण करें। ऐसी रचनाएँ समाज को दें कि वह उनके समक्ष नतमस्तक हो जाए।'
          कुछ लोगों को रातोंरात महाकवि बनने की शीघ्रता है। सबसे बड़ा मजाक यह हो रहा है कि कुछ महानुभाव अपने नाम से पूर्व कवि, कविराज अथवा महाकवि भी लिख रहे हैं। अरे मेरे भाई साहित्य प्रेमियों को निर्धारित करने दीजिए कि आप कितने पानी में हैं।
       इतने वर्षों की अंग्रेजी दासता से राजतन्त्र मुक्त नहीं हो पा रहा। इसी का परिणाम है कि सभी कार्यालयीन कार्यों में अंग्रेजी भाषा को प्रश्रय मिला हुआ है। इसीलिए हिन्दी आज अपने देश और अपने लोगों के बीच तिरस्कृत हो रही है। यदि उसे भी राजाश्रय मिल जाता तो आज उसकी ऐसी दुर्दशा नहीं होती।
       हिन्दी की हो रही दुर्दशा को हम सब मिलकर सुधार सकते हैं। यह किसी एक अकेले के बूते की बात नहीं है। अपनी भाषा को यथोचित स्थान दिलाने के लिए हम सबको साझा प्रयास करना होगा। अपने आपको स्वाध्यायशील बनाना होगा। जिससे जब कलम चले तो दूसरों  को झकझोर कर रख दे और सबके हृदयों पर राज करे। हिन्दी भाषा पर हमें अपनी पकड़ इतनी मजबूत करनी होगी जिससे यह समृद्ध भाषा हमें गौरवान्वित कर सके। उस समय हम अपना मस्तक शान से उठाकर कह सकें-
' हम हिन्दुस्तानी हैं और हमारी मातृभाषा हिन्दी है। हमें अपने देश और अपनी भाषा पर गर्व है।'
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 12 सितंबर 2020

सुखी रहने का रहस्य

सुखी रहने का रहस्य

सुखी रहना या खुश रहना हर मनुष्य चाहता है। कोई भी इन्सान दुखों और परेशानियों में घिरकर अपना जीवन बर्बाद नहीं करना चाहता। खुश रहने का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि दुखों के बोझ की गठरी को जितनी जल्दी हो सके उतारकर फेंक दे। जितना अधिक समय तक मनुष्य उस बोझ को उठाए रखेगा उतना ही ज्यादा दु:खी और निराश रहेगा। मनुष्य को चाहिए कि वह इस गठरी को ज्यादा दूर तक न लेकर जाए।
           अब यह मनुष्य विशेष पर निर्भर करता है कि वह दुखों के उस बोझ को कुछ मिनटों तक उठाए रखना चाहता है या फिर जिन्दगी भर उसे समेटकर अपने पास सम्हालकर रखना चाहता है। यदि मनुष्य सदा प्रसन्न रहना चाहता है, तो दु:ख रूपी गठरी को उसे अपने सिर से उतारकर जल्दी से जल्दी नीचे रखना सीख लेना चाहिए। यदि सम्भव हो सके तो उसे उठाना ही नहीं चाहिए। इससे वह दुखों से मुक्त हो सकता है।
          कुछ लोगों को हर समय दुख का प्रदर्शन करने की आदत होती है। वे दूसरों के समक्ष हमेशा रोनी सूरत बनाकर जाते हैं। ताकि लोगों को यह पता चल सके कि वह व्यक्ति कितना अभागा है, दुखों का मारा हुआ है और परेशानियों से घिरा हुआ है। उससे बढ़कर दुखी और कोई व्यक्ति इस संसार में नहीं है। केवल वही सभी दुखों की खान है। वह चाहता है कि सभी लोग उससे सहानुभूति रखें, उसे सान्त्वना देते रहें और सहारा दें।
           वास्तव में ऐसा हो नहीं पाता। लोग ऐसे व्यक्ति की शक्ल देखना पसन्द नहीं करते। वे लोकलाज के कारण प्रत्यक्ष रूप से उसके मुँह पर कुछ कहते नहीं, पर मन ही मन सोचते हैं कि कहाँ से यह मनहूस आ गया है। बस अब वह अपना ही रोना रोएगा। उनका सारा दिन खराब हो जाएगा। इस प्रकार पीठ पीछे उसकी बुराई करते हैं। उसका उपहास करते हैं। वह उन्हें अपना परम हितैषी मानता है और वे उसे अपना दुश्मन समझते हैं।
          दुख और सुख जीवन का अभिन्न अंग हैं। ये दोनों ही मनुष्य के पास उसके कर्मानुसार आते रहते हैं। पूर्वजन्म कृत कर्मों के इस भोग को मनुष्य भोगकर ही मिटा सकता है। इसके बिना और उसके पास और कोई रास्ता नहीं है। कोई भी दूसरी गति नहीं है। मनुष्य सुख का समय आने पर प्रसन्न होता है, आनन्द मनाता है। परन्तु दुखों को सहन करना उसकी सीमा से परे होता है। असह्य दुख उसके कष्ट का कारण बनते हैं।
          सुख की चाह करने वाले को यह विश्वास रखना चाहिए कि अँधेरा कितना भी गहरा जाए, उसके बाद प्रातः होनी निश्चित है। कितने भी काले घने बादल आकाश पर छा जाएँ, उनके बरसने के बाद प्रकाश अवश्य होगा। यह प्रकृति का अटूट नियम हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को आशा का दामन कसकर थाम लेना चाहिए। तभी उसे दुखों के बीच सुख की किरण दिखाई देती है, और वह दुखों को झेल जाता है।
          वास्तव में सुख और दुख दोनों ही मनुष्य की मानसिक अवस्थाएँ हैं। जिस अवस्था में एक मनुष्य को दुख का अनुभव होता है, वहीं पर दूसरे मनुष्य को सुख की अनभूति होती है। यह दर्शाता है कि मनुष्य में कितनी गहराई है अथवा वह कितना उथला है। जो धीर-गम्भीर होगा, उसे प्रभु की कृपा से कष्ट कम होता है या न के बराबर होता है। इसके विपरीत दूसरा व्यक्ति हाय-तौबा करता रहता है। न वह स्वयं चैन से रहता है और न दूसरों को रहने देता है।
         मनुष्य को ईश्वर पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए। उसे अपने सभी कर्म उस मालिक के सुपुर्द कर देने चाहिए। जब उसमें कर्त्तापन का भाव ही नहीं रहेगा, तो सफलता या असफलता की स्थिति में उसे दुख नहीं होगा। तब वह सब कुछ ईश्वर पर छोड़कर मस्त हो जाएगा, तो फिर दुख का कोई कारण ही नहीं बचा रहेगा। तब उसे अपने चारों ओर सुख ही सुख दिखाई देगा, दुख का उसके पास कोई नामोनिशान ही नहीं रहेगा।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

मुखौटानुमा जिन्दगी

 मुखौटानुमा जिन्दगी

मनुष्य ने अपने व्यक्तित्व को कछुए की तरह अपने खोल में समेट लिया है। यानी मनुष्य जैसा भीतर हैं, वैसा बाहर से दिखाई नहीं देता। वह अपने व्यक्तित्व को के पर्दों में छुपा लेना चाहता है, जो बहुत गलत बात हैं। सब कुछ जानते-बुझते हुए खुद को आवरण में ढक लेना उचित नहीं कहा जा सकता। दूसरे शब्दों में कहें तो मनुष्य ने अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगा रखा है। इसीलिए उसका वास्तविक चरित्र किसी के सामने नहीं आ पाता।
           बाजार में तरह-तरह के आकर्षण मुखौटे मिलते हैं, जो बच्चों को आकर्षित करते हैं। उन्हें खरीदकर बच्चे अपने चेहरों पर लगाकर प्रसन्न होते हैं। बच्चे सबको दिखाते फिरते हैं। उसी प्रकार मनुष्यों ने भी अपने-अपने चेहरों पर मुखौटे लगा रखे हैं। वे लोग अपना असली चेहरा सबसे छुपाकर रखते हैं। संसार को अपनी असलियत से लोग दूर रखना चाहते हैं। कुछ हद तक वे इसमें सफल भी हो जाते हैं।
          इन्सान मेकअप करके यदि अपने चेहरे को छुपाए, कुछ समय के लिए ठीक है। जब वह उस पुते हुए चेहरे को धोता है, तो उसके पश्चात उस मनुष्य का वास्तविक चेहरा सामने आ जाता है। परन्तु मुखौटा लगाने पर ऐसा नहीं होता। जब तक मनुष्य अपना मुखौटा नहीं हटाता, तब तक उसका असली चेहरा है, उस मुखौटे के पीछे छुपा रहता है। समस्या यहाँ यह है कि मनुष्य अपना मुखौटा हटाए।
           पता नहीं अपनी वास्तविकता को प्रकट करने पर मनुष्य को डर क्यों लगता है? समझ नहीं आता कि वह अपना नकली चेहरा दिखाकर क्या साबित करना चाहता है? मनुष्य जैसा है, उसे वैसा ही दिखने में खुशी महसूस होनी चाहिए, पर ऐसा होता नहीं है। बड़े दुख की बात है कि सब लोग एक चेहरे के ऊपर न जाने कितने चेहरे लगाकर घूमते हैं। इससे उनका अपना ही अस्तित्व खो जाता है।
           गरीब अमीर दिखना चाहता है। मूर्ख विद्वान होने का ढोंग करना चाहता है। कोई अपने को उच्च पद पर बताना चाहता है। कोई स्वयं को सर्वगुण सम्पन्न कहलाना चाहता है। कोई अपने को सबसे बड़ा भक्त दिखाना चाहता है। कोई  कुछ प्रदर्शित करना चाहता तो कोई कुछ। वे नहीं सोचते कि जब कभी मुखौटा हट जाएगा और असली चेहरा सबके सामने आ जाएगा, तब स्थिति कैसी हो जाएगी।
           मुखौटा लगाते-लगाते धीरे-धीरे यह स्थिति बन जाती है कि मनुष्य स्वयं ही अपना असली स्वरूप भूल जाता है। जब किसी समय वह अपने वास्तविक चेहरे को पहचानने का प्रयास करने लगता है। तब वह उसे नहीं मिल पाता। यदि गलती से उसे अपना असली चेहरा मिल जाए तो वह उसे पहचानकर सहज नहीं हो पाता। वह अपने ही वास्तविक स्वरूप को देखकर चौंक जाता है।
          आज चाहकर भी मनुष्य को दुःख से छुटकारा नहीं मिल पा रहा। सुख मिलने पर भी वह जिन्दगी को हताशा के हवाले कर देता हैं। वास्तव में अस्तित्व को जीतने की कोशिश करते हुए ये मनुष्य परस्पर एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें आपस में कोई दुश्मनी है या फिर कोई स्पर्धा है। स्पर्धा वही व्यक्ति करता हैं जो बड़बोला है और अन्दर से कमजोर होता है।
          स्वाभिमान में क्या होता है? मनुष्य के शरीर को कष्ट और बीमारी घेर लेती है, पर उसके अस्तित्व को कोई हानि नहीं पहुँचती। यहाँ एक बात ध्यान रखने योग्य है कि मनुष्य जैसा होगा, उसका अस्तित्व भी वैसा ही प्रतीत होगा। इस संसार में चारों ओर दर्पण हैं। मनुष्य चाहे तो उनमें अपना प्रतिबिम्ब देख सकता है। सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह अपना असली चेहरा देखना ही नहीं चाहता। 
            ईश्वर को सरल, सहज स्वभाव वाले लोग पसन्द आते हैं। उसने किसी भी मनुष्य को नकली चेहरा देकर इस धरा पर नहीं भेजा। इसलिए उसे बनावटी लोग नहीं अच्छे लगते। वह स्वयं भी कृत्रिमता से दूर रहता है और चाहता है कि उसकी सन्तानें यानी मनुष्य किसी दूसरे के साथ छल-फरेब न करें। वे जैसे हैं, वैसे ही सबके साथ पेश आएँ। संसार के सभी लोग एक-दूसरे के साथ धोखा न करें।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 10 सितंबर 2020

क्रोध पर नियन्त्रण

क्रोध पर नियन्त्रण

क्रोध का आवेग मनुष्य के विवेक का हरण करता है। यह मनुष्य के सोचने-समझने की शक्ति को प्रभावित करता है। यह मनुष्य का सबसे बहुत बड़ा शत्रु है। यह क्रोध रूपी राक्षस उसे कभी भी चैन से नहीं रहने देता। मनुष्य के अन्तस् में जब क्रोध रूपी राक्षस प्रवेश कर जाता है, तब वह उसे प्रभावित करता है। मनुष्य कितना प्रयास करे, पर उसके चक्कर में फँस जाता है। उससे छुटकारा पाने के लिए मनुष्य छटपटाता रहता है।
           मनुष्य क्रोध को जितनी अधिक हवा देता है, उतना ही वह दोगुना, तिगुना और चौगुना होता चला जाता है। यानी यह मनुष्य के विवेक पर हावी रहता है। इसके वश में आ जाने पर मनुष्य का भला कदापि नहीं हो सकता। इस राक्षस की शक्ति तभी कम की जा सकती है, जब इन्सान स्वयं को सन्तुलित रखता है, हर समय प्रसन्न रहने का प्रयास करता है। तब यह मनुष्य को उकसाता रहता है।
          क्रोध रूपी राक्षस की मनुष्य जितनी उपेक्षा करता है, उतना ही वह कमतर होता चला जाता है। जितना मनुष्य बदले की भावना में जलता है या उसे अपने मन के मन्दिर में विराजमान करता है, उतना ही यह बढ़ता है, फलता-फूलता चला जाता है। दूसरे का अहित मनुष्य बाद में करता है, पर अपनी हानि पहले कर लेता है। सामने वाले को कष्ट देने के लिए वह योजना बनाता है, उससे स्वयं को कष्ट देता है।
            मनुष्य को यह ज्ञात ही नहीं हो पाता कि वह चुपके से उसकी कितनी हानि कर देता है। मनुष्य को इसे कदापि प्रश्रय नहीं देना चाहिए, नहीं तो यह सिर पर सवार होकर परेशान करता है। मनुष्य को सदा सावधान होकर रहना पड़ता है, तभी वह इसके चंगुल में आने से बच सकता है। अन्यथा अपने क्रोधी स्वभाव के कारण मनुष्य अपने बन्धु-बान्धवों में तिरस्कृत होता रहता है।
          छोटी-छोटी बात पर गुस्सा हो जाना कोई समझदारी नहीं है। अपने घर-परिवार या पड़ोस, हर स्थान पर मनुष्य अनावश्यक बातों पर आवेश में आ जाता है। उस समय मनुष्य सोचता है कि सामने वाले पर गुस्सा करके उसे सजा दे रहा है, पर ऐसा नहीं होता। इस गुस्से के उबाल में सबसे ज्यादा नुकसान मनुष्य स्वयं का ही करता है। क्रोध के दौरान मनुष्य की मनस्थिति अव्यवस्थित हो जाती है, उसका प्रभाव उसके शरीर पर भी होता है। 
            क्रोध की अधिकता हो जाने पर मनुष्य काँपने लगता है, उसके शब्द साथ नहीं देते यानी लड़खड़ाने लगते हैं, मुँह से थूक भी निकलने लगता है। इससे उसकी धड़कन यानी हृदयगति तेज हो जाती है। रक्तचाप B.P. भी बढ़ने लगता है। रोगी हो जाने पर डॉक्टरों के पास समय और धन व्यय करना पड़ता है। इन सबके कारण मनुष्य काफी लम्बे समय तक अशान्त व परेशान रहता है।
           इस तरह क्रोध करके मनुष्य अपने तन, मन और धन की हानि करता है। इस क्रोध रूपी राक्षस की शक्ति को मनुष्य को बढ़ने नहीं देना चाहिए। उसे अपने गुस्से पर नियन्त्रण करने का प्रयास करना चाहिए। अन्यथा वह सारा जीवन इसका गुलाम बना रहता है। क्रोधी व्यक्ति को कोई भी पसन्द नहीं करता। दुर्वासा जैसे ऋषि को उनके क्रोध के कारण वह स्थान नहीं मिल सका, जो उन्हें मिलना चाहिए था।
          बड़े-बड़े ऋषि-मुनि इस क्रोध को वश में करने के लिए तपस्या करते रहे। बाहरी शत्रुओं पर मनुष्य अपने उच्च पद, शक्ति या किसी भी प्रकार से विजय प्राप्त कर सकता है। यह तो मनुष्य के अन्तस् में रहने वाला शत्रु है। इससे मनुष्य की गहरी छनती है। तभी तो इसके कहने के अनुसार चलता है। बार-बार धोखा खाता है, फिर भी समझता नहीं है। इससे दोस्ती करना नहीं छोड़ता।
          क्रोध मनुष्य के हृदय में विराजमान अजेय शत्रु है। इस क्रोध को वश में करना मनुष्य के लिए असम्भव तो नहीं, पर कठिन अवश्य होता है। यदि मनुष्य इसे अपने वश में कर ले, तो उसका बेड़ा पार हो जाए। इसे नियन्त्रित करने के लिए मनुष्य को अथक परिश्रम करना पड़ता है। उसे अनवरत अभ्यास करना होता है। तब जाकर यह दुष्ट क्रोध मनुष्य को प्रभावित नहीं कर पाता और हानि नहीं पहुँचा सकता।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 9 सितंबर 2020

पहले स्वयं को बदलो

 पहले स्वयं को बदलो

मनुष्य का बस चले तो वह सारी दुनिया को बदल डाले। उसे दुनिया के व्यवहार पसन्द नहीं आते। इस दुनिया के लोग उसकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते। वह जो चाहता है, लोग उसे करने नहीं देते। वह सबसे ही परेशान रहता है। ये कुछ कारण हैं, जो  मनुष्य की उलझन का कारण बन जाते हैं। इन सबके कारण वह दुनिया को बदलने की कामना करता है। ईश्वर ने यह सामर्थ्य किसी मनुष्य को नहीं दी कि वह उसकी बनाई हुई इस दुनिया से छेड़छाड़ करके उसे बर्बाद कर सके।
          कल्पना कीजिए कि किसी समय मनुष्य के पास ऐसी शक्ति आ जाए कि वह दुनिया को अपनी इच्छा के अनुसार बदल सके। वह जो भी कामना करें, तत्क्षण पूरी हो जाए। उस समय क्या होगा, इस बात की कल्पना करना भी बहुत कठिन कार्य हो जाएगा। हर व्यक्ति अपनी इच्छा से दुनिया को मोड़ने का प्रयास करेगा। सोचने वाली बात यह है कि दुनिया किसकी इच्छानुसार चलेगी?
            एक व्यक्ति कहेगा मुझे पूर्व दिशा बड़ी लुभाती है, अतः सभी पूर्व की ओर चलो। दूसरा कहेगा मैंने पश्चिम दिशा की ओर जाना है, सब पश्चिम की ओर चलो। तीसरा कहेगा उत्तर दिशा मेरे लिए सदा ही भाग्यशाली रही, सब उत्तर की ओर चलो। चौथा कहेगा मुझे दक्षिण दिशा पसन्द है, इसलिए सब दक्षिण की ओर चलो। इस तरह तो सब बस घूमते रह जाएँगे। लोग कन्फ्यूज हो जाएँगे की वे किसकी बात माने और किसकी नहीं मानें।
         इसी प्रकार एक व्यक्ति कहेगा कि उसे काला रंग पसन्द है, तो सभी काले वस्त्र पहनो। दूसरे को लाल रंग भाता है, तीसरे को हर रंग रुचता है, चौथे को नीला रंग, यानी हर व्यक्ति को अलग-अलग रंग अच्छा लगता है। उस समय दुनिया के सभी लोग किसका कहना मानेंगे और किसके कहे अनुसार तथाकथित रंग के वस्त्र पहनेंगे। यह तो एक बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। इसका समाधान कौन करेगा?
           अब इसी तरह खाने की वस्तुओं पर झगड़े होने लगेंगे। प्रकृति की विविधता पर भी प्रश्नचिह्न लगने लगेंगे। उस समय शक्तिशाली जीत जाएगा और बलहीन हर हाल में हारेगा। सर्वत्र ही अराजकता फैल जाएगी। चारों ओर मारकाट मच जाएगी। कल्पना में तो यह अच्छा लग सकता है, पर वास्तविकता के धरातल पर यह आधारहीन है। इसलिए ईश्वर ने मनुष्य के अधीन कुछ नहीं रखा। मनुष्य संसार में केवल अपना कर्म कर सकता है, और कुछ नहीं।
          मनुष्य के वश में संसार अथवा सृष्टि को बदलना नहीं है। इसलिए उसे स्वयं को ही बदल लेना चाहिए, इसी में ही उसकी भलाई छिपी है। उसे यदि दूसरे का व्यवहार पसन्द नहीं आता, तो पहले अपने गिरेबान में झाँककर देखे। हो सकता है उसका स्वयं का आचरण ही दोषपूर्ण हो, जिसके कारण लोग उससे दूरी बनाकर रहते हों। इस संसार में सर्वगुण सम्पन्न कोई मनुष्य नहीं हो सकता। 
           मनुष्य गलतियों का पुतला है यानी गलती करना उसका स्वभाव है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह अनवरत गलतियाँ ही करता रहे और दोष दूसरों पर मड़ता रहे। मनुष्य को सदा अपने विवेक से चिन्तन करना चाहिए। स्वयं को सुधारने का प्रयास करते रहना चाहिए। उसका व्यवहार इतना सन्तुलित तो होना ही चाहिए कि उसके पास बैठने वाले को उससे वितृष्णा न होने पाए।
          मनुष्य को अपने दोषों को देखना चाहिए, दूसरों के नहीं। यदि मनुष्य अपने दोष गिनने लगे, तो उसे लगेगा कि उसके बराबर दोष और किसी में नहीं हैं। अपने अन्तस् में खोज करते रहना चाहिए। दूसरों के दोषों को अनदेखा करके उनके गुणों को पहचानते हुए, उनके साथ व्यवहार करना चाहिए। जहाँ तक हो सके अपने दोषों को दूर करना चाहिए। यही सकारात्मक उपाय कहलाता है।
          मनुष्य को पहले स्वयं को सुधारना चाहिए। तभी उसकी कही हुई किसी बात का प्रभाव सामने वाले पर पड़ता है। जब मनुष्य अपने मन में संकल्प कर लेता है कि वह अपने दोषों को दूर करके चैन लेगा। तब वह मानव से ऊपर उठकर महामानव बन जाता है। तब उसकी कही गई बात को दूसरे लोग महत्त्व देते हैं। उस समय वह इन्सान समाज को दिशा देने के योग्य बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 8 सितंबर 2020

समाज का कल्याण

 समाज का कल्याण

समाज की भलाई के लिए मनुष्य को ऐसे कार्य करने चाहिए, जिससे समाज का कुछ भला हो सके। सामाजिक प्राणी मनुष्य इस समाज से बहुत कुछ लेता है। बदले में उसे समाज के लिए कार्य करने चाहिए। उसे कुछ पुण्य कार्य भी करने चाहिए। ये नेक कार्य उसे महान बनाते हैं। इन कार्यों को करने से मनुष्य को आत्मतुष्टि मिलती है। इस प्रकार उसके मन में एक प्रकार का उत्साह बना रहता है।
            निम्न श्लोक में कवि ने इसी विषय पर अपने विचार रखे हैं-
जलान्तश्चन्द्रचपलं जीवनं खलु देहिनाम्।
तथाविधिमिति त्वाशाश्वत्कल्याणमाचरेत्॥
अर्थात् जिस प्रकार चन्द्र का प्रतिबिम्ब अस्थिर होता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी अनिश्चित और अस्थिर होता है। विधि के इस विधान को जानते हुए मनुष्य को ऐसे कार्य करते रहना चाहिए, जिस से समाज का शाश्वत कल्याण हो।
           मनुष्य सदा के लिए इस संसार मे डेरा डालकर नहीं रहने वाला। अपने प्रारब्ध के अनुसार निश्चित जीवन जीने के पश्चात उसे यहाँ से विदा लेनी पड़ती है। कवि के अनुसार चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब स्थिर नहीं होता, अस्थिर होता है। उसी प्रकार मनुष्य का यह जीवन भी होता है। इसलिए मनुष्य को भलाई के कार्य करते रहना चाहिए। नहीं तो अन्त समय में उसे प्रायश्चित करना पड़ता है कि जीवन व्यर्थ गँवा दिया।
         उस समय मनुष्य को पल भर की मोहलत भी नहीं मिलती। मनुष्य ईश्वर से चाहे कितनी भी मिन्नत क्यों न कर ले। सब व्यर्थ रहता है। समय रहते यदि विचार कर लिया जाए तो उपयुक्त रहता है। मनुष्य सारी आयु शुभ कार्य करता रहे, तो अन्त तक उसका स्वभाव बना रहता है। यदि मनुष्य यही सोचता रहे कि बाद में कर लेंगे नेक कार्य, अभी और कार्य कर लें। तब यह जीवन बीत जाता है, पर वह बाद कभी आ ही नहीं पाता।
          मनीषी कहते हैं कि प्रतिदिन एक नेक कार्य अवश्य करना चाहिए। इसका कारण है कि मनुष्य को नेक कार्य करने की आदत होनी चाहिए। जब वह नेक कार्य करने लगता है, तब कुछ अच्छा करने की आदत मनुष्य को हो जाती है। ऐसे कार्य करने से उसके मन में उत्साह बना रहता है। फिर वह जो भी कार्य करता है, उन्हें पूर्ण कर लेता है, अधूरा नहीं छोड़ता। साथ ही कल कर लूँगा वाली भावना उसमें नहीं आ सकती।
           मनुष्य को नेक कार्यों को मन से करना चाहिए, उनका प्रदर्शन उसे कभी नहीं करना चाहिए। इससे वह दूसरों को नहीं, स्वयं को धोखा देता है। ऐसे मनुष्य के मन में नेकी या परोपकार करने वाले भाव कभी नहीं आते। यह सत्य है कि बनावटी व्यवहार की पोल कभी न कभी खुल जाती है। उस समय दिखावटी मनुष्य को समाज में अपमानित होना पड़ता है। जहाँ तक हो सके मनुष्य को सच्चाई के मार्ग पर ही चलना चाहिए।
           मनुष्य जितना अपने व्यवहार में उदारता लाता है, उतना ही वह विनम्र बनता जाता है। यदि उसमें नेक कार्यों को करने का अहंकार आ जाए, तो वह सदा तनकर रहता है। तब उसका विनाश होने में बहुत अधिक समय नहीं लगता। मनुष्य यदि शुभ कार्य करता है, तो अपनी मानसिक शान्ति के लिए करता है। उसे दूसरे लोगों पर अपनी धाक जमाने का प्रयत्न कदापि नहीं करना चाहिए।
           नेक कार्य करते करते मनुष्य में नेकी अथवा सात्विकता की भावना पनपने लगती है। उसका हृदय दया, ममता, करुणा आदि मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत हो जाता है। धीरे-धीरे उसका जीवन दूसरों के लिए एक उदाहरण बन जाता है। ऐसे इन्सान का सर्वत्र सम्मान होता है। लोग उसकी तरह महान बनने का प्रयास करने लगते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने सुकृत्यों के कारण स्वयं ही ईश्वर के करीब हो जाता है, उसका प्रिय बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 7 सितंबर 2020

छोटी-छोटी बचत

 छोटी-छोटी बचत

भारतीय संस्कृति केवल इस जन्म को नहीं अपितु जन्म-जन्मान्तरों के सम्बन्ध को मानती है। इसलिए लेन-देन के व्यवहार में यहाँ सदा पारदर्शिता वरती जाती है। मनीषी ऐसा मानते हैं कि इस जन्म का लिया हुआ यदि चुकता न किया जाए अथवा आपसी के लिए व्यवहार में बेईमानी की जाए तो अगले जन्म में उसका कई गुणा अधिक भुगतान करना पड़ता है। इसलिए जन साधारण के मन में यह बात रची बसी हुई है।
          विदेशों में इस विषय पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। वहाँ हर वस्तु ऋण लेकर यानी किश्तों पर खरीदी जाती है। उन्हीं की तरह आज का युवावर्ग भारत में भी इसी का अनुसरण कर रहा है। घर, गाड़ी, टी वी, फ्रिज, ए सी, वाशिंग मशीन आदि कोई भी वस्तु लेनी हो, किश्तों पर ले लो। बाद में धीरे-धीरे करके चुकाते रहेंगे। आजकल तो देश-विदेश की यात्राएँ भी लोग किश्तों पर पैसा लेकर करने लगे हैं।  
             ईश्वर न करे यदि दुर्भाग्य से किसी ली गई वस्तु की एक किश्त का भुगतान समय पर न किया जाए, तो उन कम्पनी वालों के गुण्डे बहुत बुरा व्यवहार करते हैं, धमकियाँ देते हैं। तब वे खरीदी हुए वस्तुओं को भी उठाकर ले जाते हैं। आस-पड़ोस में और फिर उनके कार्यालय में जाकर उन्हें अपमानित करने का प्रयास करते हैं। उनके विरुद्ध कोर्ट में क्रिमिनल केस तक दायर कर देते हैं।
             इन विदेशियों की तरह बहुत वर्षों पूर्व भारत में भी एक सम्प्रदाय पनपा था, जिसे चार्वाक कहते हैं। उनका सिद्धान्त यही था-
       यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् 
            ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
        भस्मिभूतस्य देहस्य 
                पुनरागमनं कुतः?
अर्थात् जब तक जीवित रहो, सुखपूर्वक रहो। अपने पास धन नहीं है, तो ऋण लेकर घी पीओ।यह शरीर भस्म होने वाला है, इसका पुनर्जन्म नहीं होने वाला।
         इसीलिए इस सम्प्रदाय को समाज में कोई महत्त्व नहीं मिला। इसे नकारात्मक सम्प्रदाय का नाम देकर इसे सिरे से नकार दिया गया। मनीषियों ने उन्हें धर्मविरोधी घोषित करके उन लोगों को ही समाज से तिरस्कृत कर दिया। इसलिए आज भी भारतीय मानस कर्ज या ऋण लेने के नाम से बहुत घबराता है। लोग सोचते हैं पल्ले पैसा है, तो वस्तु खरीद लो अन्यथा कुछ दिन और रुक जाओ।
         भारतीय जन मानस को घुट्टी में यह सीख मिली हुई है कि अपनी कमाई में से प्रति मास कुछ धन अपने अच्छे-बुरे समय या धूप-छाँव के लिए अवश्य ही बचा लेना चाहिए। जब कभी कोई कठिनाई आए तो उस बचाए हुए धन का उपयोग मनुष्य को कर लेना चाहिए। किसी से भी माँगने की आवश्यकता मनुष्य को नहीं पड़नी चाहिए। बड़े-बुजुर्गों की इस सीख ने भारतीयों को बचाकर रखा हुआ है।
         कुछ वर्ष पूर्व विश्व आर्थिक मन्दी के भयंकर दौर से गुजर रहा था। तब उस समय विश्व की महाशक्ति कहे जाने वाले देश अमेरिका के कई बैंक डूब गए थे। हमारे भारतीयों की इस छोटी-छोटी बचत वाली आदत के कारण हमारा देश भारत सरलता से उस परेशानी से उबर सका था। अन्यथा पता नहीं यहाँ भी हमें कितना कुछ भुगतान करना पड़ जाता। इसका श्रेय हमारे पूर्वजों को जाता है।
          प्रत्येक मनुष्य को अपनी वृद्धावस्था के लिए भी समय रहते ही बचत कर लेनी चाहिए। ताकि उस समय बच्चों के सामने हाथ फैलाने की आवश्यकता न पड़े। बच्चे समझदार और आज्ञाकारी होंगे, तो उन्हें कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। वे बिना कुछ कहे ही स्वयं सब सम्हाल लेंगे। और यदि नालायक होंगे, तो परवाह ही नहीं करेंगे। उस समय अशक्त होता मनुष्य कोई कार्य नहीं कर सकता।
           उस समय मनुष्य के अपने पास यदि कुछ बचत होगी, तो वह सरलता से अपना जीवन व्यतीत कर लेगा। तब उसे छोटे-छोटे खर्चों के लिए किसी का मुँह नहीं देखता पड़ेगा। हर मनुष्य को इस बारे में सावधान रहना चाहिए। जैसे बूँद बूँद जल से घट भर जाता है। उसी प्रकार की गई छोटी-सी बचत मनुष्य को बचा लेती है। हमें अपने मनीषियों का धन्यवाद करना चाहिए, जिन्होंने जीवन जीने का इतना अच्छा गुर सिखाया।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 6 सितंबर 2020

भारतीय जीवन मूल्य

 भारतीय जीवन मूल्य

इक्कीसवीं सदी में फैली कॅरोना नामक इस वैश्विक महामारी ने सम्पूर्ण विश्व को त्रस्त कर दिया है। इसके चलते कुछ खास बातों की ओर ध्यान देने पर बल दिया जा रहा है।
भरतीय जीवन मूल्यों को, आज पूरा विश्व अपनाने के लिए बाध्य हो रहा है। हम भारतीय गुलाम मानसिकता के कारण अँग्रेज लोगों की नकल करने के कारण इन मूल्यों को त्यागते जा रहे हैं। साथ ही उनका उपहास करके हम लोग आनन्दित होने लगते हैं।
         आज वैज्ञानिक व डॉक्टर सभी लोग शाकाहारी भोजन पर अधिक बल देने लगे हैं। वे लोगों को माँसाहारी भोजन को न खाने की हिदायत दे रहे हैं। कोई ऐसा जीव या जन्तु ऐसा नहीं है, जिन्हें लोग नहीं खा रहे। जिन जीवों को देखकर लोग वितृष्णा से भर जाते हैं अथवा उनसे डर जाते हैं, उन्हें भी लोग खाने लगे हैं। भरत में सदा से ही ऋषि-मुनि सात्विक भोजन खाने पर बल देते हैं।
           आज लोगों को परामर्श दिया जा है है कि थोड़ी-थोड़ी देर में साबुन से हाथ धोएँ। भारत में लोग दिन में कई बार हाथ धोते थे। आजकल टिश्यू से काम चलाया जाता है। इससे हाथों की शुद्धता नहीं हो पाती। पर हाथ धोने ही उनकी सफाई हो सकती है। खाने के पश्चात हाथ न धोए जाएँ तो लगता है, वे साफ ही नहीं हुए। मल-मूत्र त्यागने के पश्चात तो हाथ धोना आवश्यक माना जाता है। इस तरह हाथ शुद्ध कर लेने चाहिए।
          इस समय यह भी निर्देश दिया जा रहा है कि कहीं से भी आओ तो स्वास्थ्य कारणों से जूते और चप्पल घर के बाहर रखो। हमारे यहाँ तो यह परम्परा है कि बाहर पहने जाने वाले जूते और चप्पल अलग होते हैं और घर पहनने वाले अलग। गुजरात, दक्षिण भारत आदि में घर के बाहर अलमारी रखी रहती है, जिसमें जूते या चप्पल उतारकर रखे जाते हैं और फिर लोग घर में प्रवेश करते हैं।
           हमारे यहाँ तो स्वच्छता के कारण रसोईघर में भी जूते-चप्पल नहीं ले जाते थे। आजकल मॉड्यूलर किचन बन गए हैं और खड़े होकर खाना बनाया जाता है। इससे कई बीमारियाँ बढ़ रही हैं। आज डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाया जाता है। पहले महिलाएँ बैठकर खाना बनाती थीं और घर के सदस्य रसोईघर में ही बैठकर खाना खाते थे। इस प्रकार से भोजन की शुद्धता बनी रहती थी।
          इस बीमारी के चलते यह कहा जाता है कि कहीं बाहर से या ऑफिस से या अपने व्यवसाय से घर आओ तो पहले नहाकर कपड़े बदलो, फिर परिवार के साथ बैठो। हमारे यहाँ यह परम्परा रही है कि कहीं बाहर से आओ तो हाथ, मुँह और पैर धोकर घर में प्रवेश करो। इसका उद्देश्य यही होता है कि घर में बाहर की गन्दगी न आए और घर साफ-सुथरा और कीटाणु रहित रह सके। 
         मास्क लगाने को बहुत आवश्यक बताया जा रहा है। इसका कारण यही है कि वायरस से हम सब बचे रहें। भारत में जैन धर्म का एक सम्प्रदाय है, 'उसे मुँह पट्टी वाला' सम्प्रदाय कहते हैं। उनका मानना है कि बहुत से कीटाणु साँस लेने और छोड़ने के कारण मर जाते हैं। मुँह पर पट्टी लगाने से वे बच जस्ते हैं। भारत में बहुत-सी स्त्रियाँ दुपट्टे से मुँह ढकती हैं और पुरुष अपने गमछे से।
          विदेशियों की तर्ज पर हम भारतीयों ने हाथ जोड़कर नमस्कार करने के स्थान पर हाथ मिलाना आरम्भ कर दिया था। आज इस बीमारी ने हाथ मिलाने के स्थान पर फिर से हाथ जोड़कर अभिववादन करना सिखा दिया है। हाथ जोड़कर, झुककर नमस्ते करने से मनुष्य की विनम्रता का ज्ञान होता है। हमारे यहाँ बड़े-बुजुर्ग मानते हैं कि हाथ मिलाने से मनुष्य के हाथों में विद्यमान शक्तियाँ उसके हाथ से चली जाती हैं।
          इस प्रकार इस वैश्विक बीमारी ने पूरे विश्व को भारतीयता के आदर्श मूल्यों का ज्ञान करवा दिया है। जिन्हें विदेशियों की देखादेखी हम लोग स्वंय भी भूलने लगे थे। हो सकता है, अब लोगों की समझ आ जाए कि जो जीवन मूल्य हमारे मनीषियों ने स्थापित किए थे, वे गहराई लिए हुए थे। उनमें कुछ न कुछ सार अवश्य होता था। उनसे जन साधारण को लाभ ही होता है। इससे स्वास्थ्य पुष्ट होता है और घर शुद्ध व पवित्र बना रहता है। इन मूल्यों को अपनाने में ही सबका भला है।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 5 सितंबर 2020

जन्म-मरण के मध्य जीवन

 जन्म-मरण के मध्य जीवन

मनुष्य की कुछ कामनाएँ जीवन में पूर्ण हो जाती हैं, तो कुछ आवश्यकताएँ अधूरी रह जाती हैं। इसी पूर्ण और अपूर्ण के मध्य मनुष्य की सारी जिन्दगी झूलती रहती है। जिस प्रकार बच्चे सी-सा नामक झूले पर झूलते रहते हैं और उसका आनन्द लेते हैं। कभी एक साइड ऊपर चली जाती है, तो कभी दूसरी। इसी प्रकार कामनाओं और आवश्यकताओं का चक्र भी अनवरत चलता रहता है। दोनों में से कभी कोई ऊपर और दूसरी नीचे रहती हैं।
          इसी प्रकार विशाल समुद्र में सदा शान्ति नहीं रहती। वहाँ पर भी यदा कदा हलचल होती रहती है। समय-समय पर लहरें उठती रहती हैं। अचानक ही एक बड़ी-सी लहर आ जाती है, जो अपने साथ वहाँ पड़ा हुआ कुछ सामान ले जाती है और बदले में छोटे-छोटे शंख, सीप आदि छोड़ जाती है। उन्हें एकत्र करके बच्चे प्रसन्न होते हैं और खेलते हैं। लोग उन लहरों के साथ मस्ती करते हुए आनन्दित होते हैं।
          समुद्र को चाहे चोर कहो, चाहे पालनहार कहो, चाहे हत्यारा कहो अथवा चाहे उसे दानी कहो, उसे इन सबसे कोई अन्तर नहीं पड़ता। जब समुद्र को क्रोध आता है, तो उसमें तूफान आ जाता है। उस समय बहुत तबाही होती है। तब उसके किनारे के आसपास रहने वाले लोगों को वहाँ से हटाकर सुरक्षित स्थान पर भेज दिया जाता है। बड़े-बड़े पेड़ टूटकर गिर जाते हैं।
           उस समय वह बहुत से लोगों को अनायास ही लील जाता है। समुद्र लोगों को अनेकानेक मोती आदि भी देता है। लोग समुद्र के बारे में कुछ भी अच्छा या बुरा सोचते रहें या कहें, विशाल समुद्र अपनी लहरों में मस्त रहता है। वह किसी के कहने की परवाह नहीं करता। वह अपने उफान और शान्ति को अपने हिसाब से तय करता है, दूसरों के कहने अनुसार कुछ भी नहीं करता।
          यदि मनुष्य समुद्र की तरह विशाल बनने की कामना करता है, तो उसे किसी दूसरे की किए गए निर्णय पर नहीं चलना चाहिए। जो भी कार्य वह करना चाहता है, उसे अपने अपने बलबूते पर, अपनी मर्जी से करना चाहिए। इसका कारण है कि केवल उसे ही अपनी सामर्थ्य का ज्ञान होता है, किसी अन्य को नहीं। दूसरों का कहना मानने से उसे मुँह की खानी पड़ सकती है, जो सचमुच उसके लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
          जो बीत गया सो बीत गया। उसके बारे में सोचना अथवा उसकी चिन्ता करना बिल्कुल व्यर्थ है। सारा ही समय उसका पिष्टपेषण करते रहने से मन को बहुत पीड़ा होती है। भविष्य में मनुष्य को इस कारण से हानि उठानी पड़ सकती है। बस मनुष्य को जीत-हार, खोना-पाना, सुख-दुख, सफलता-असफलता और लाभ-हानि आदि के चलते अपने मन को विचलित नहीं करना चाहिए।
          यदि मनुष्य का यह जीवन सुख और शान्ति से युक्त होता, तो उसे जन्म लेते समय रोना नहीं पड़ता। मनुष्य अपने जन्म के समय रोता है और जब उसकी मृत्यु होती है, तब वह अपने बन्धु-बान्धवों को रुलाता है। यानी उसके इस संसार से विदा लेते समय उसके परिजन रोते हैं। जन्म और मरण के मध्य होने वाले संघर्षशील समय को जीवन कहा जाता है। इसे हर हाल में मनुष्य को जीना होता है।
           कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन के इस संघर्ष को मनुष्य को स्वयं ही झेलना पड़ता है। उसे सदा दृढ़ता के साथ खड़े रहना चाहिए, घबराकर कदम पीछे नहीं हटाना चाहिए। आवागमन इस मरणधर्मा संसार का क्रम है। इससे कोई भी जीव बच नहीं सकता। इसलिए जन्म है, तो मृत्यु भी है। इस फासले को मनुष्य को हर हाल में पाटना पड़ता है। यह जीवन जीना भी एक कला है, जो हर मनुष्य को सीख लेनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

मन का व्यवहार

मन का व्यवहार

मनुष्य का यह मन है, जो कभी बिना किसी कारण के खुश होकर चहकने लगता है, तो कभी अनायास ही व्यथित हो जाता है। इस प्रसन्नता और अवसाद का कारण, प्रयास करने पर भी उसे समझ नहीं आता। तब वह परेशान हो जाता है। उसे ज्ञात नहीं हो पाता कि उसे अचानक ही क्या हो गया है? उसका मन इस प्रकार का व्यवहार क्यों कर रहा है? इस सबके पीछे आखिर कारण क्या हो सकता है? 
          ये सभी प्रश्न उसे मर्माहत कर देते हैं। उसे इनका ओरछोर नहीं मिल पाता। जितना वह सोचता है, उतना ही उलझता जाता है। मानव का यह मन यदि किसी कारण से खुश हो बात समझ आती है या किसी कष्ट में दुखी हो तो वह उसका कुछ उपाय सोच ले। पर जब कोई ऐसी घटना घटित ही नहीं हुई, तो फिर यह बवाल बुद्धि से परे होता है। उसे जानना खाला जी का घर नहीं होता।
           मन खाली तो बैठ नहीं सकता, वह बस हर समय विचारों के जंगल में विचरण करता रहता है। वहाँ के कड़वे और मीठे फलों को तोड़कर चखता रहता है। उन्हीं के स्वादों में खोया रहता है। ये स्वाद या बेस्वाद फल उसे मीठा या कड़वा बनाते रहते हैं। न चाहते हुए भी ये सब उस पर अपना प्रभाव छोड़ देते हैं। इसीलिए मनुष्य का यह मन मूड का गुलाम बन जाता है। तभी मनुष्य कहता है कि फलाँ काम को करने का मेरा मन नहीं कर रहा अथवा कर रहा है।
           मन जब शान्त दिखाई दे, तब भी वह कोई न कोई उठा-पटक कर रहा होता है। इसकी कोई गारण्टी नहीं कि वह उस समय सकारात्मक कार्य कर रहा होता है या फिर नकारात्मक कार्यों में व्यस्त होता है। उस समय वह देश-विदेश की सैर भी कर सकता है। अपने बन्धु-बान्धवों के यहाँ भी बैठा हो सकता है। अपने बचपन की खट्टी-मीठी यादों को खंगाल रहा हो सकता है। भविष्य की योजनाओं पर कार्य कर रहा हो सकता है। यानी मन मल्टीटास्किंग कर रहा होता है।
           उस समय यदि मनुष्य से कोई यह पूछे कि क्या कर रहे थे? कहाँ खोए हुए थे? तब इन प्रश्नों को सुनकर मनुष्य हड़बड़ा जाता है। उसे समझ ही नहीं आता कि वह इस प्रश्न का क्या उत्तर दे? क्योंकि वह स्वयं ही नहीं जानता होता कि वह क्या सोच रहा था? है न यह बहुत विचित्र बात, परन्तु सत्य है। वास्तविकता यही होती है कि मनुष्य उस समय खुद इस बात से अनजान होता हैं। 
           विचारों के सागर में मन कभी ऊपर उठता है, तो कभी गहरे पैठता है और कभी गोते खाता है। किसी भी स्थिति में वह चाहे तो चमत्कार कर सकता है। उसे उनसे बहुत कुछ सीखने के लिए मिलता है। विचारों के बवण्डर उसे उत्तेजित करते हैं। साथ ही वे उसे सदा चौकन्ना रहने की शिक्षा भी देते हैं। पर यह बाँवरा मनुष्य का मन क्या जान पाता है और क्या भूल जाता है, उस पर ही निर्भर करता है।
           मनुष्य का मन जब किसी घटना अथवा विचार का पिष्टपेषण करता है यानी बार-बार उसके बारे में सोचता है, तो प्रायः उसका प्रभाव नकारात्मक होता है। इसी चक्कर में कई सम्बन्ध पीछे छूट जाते हैं, तो कई बन्धु-बान्धव नजरों से उतर जाते हैं। बाद जब उन पर विचार किया जाए, तो अपनी ही गलती होती है। तब पश्चाताप ही शेष बचता है। रिश्तों को होमकर व्यथित होने का कोई लाभ नहीं होता।
          यह मन सदा शार्टकट या आसान रास्ते की खोज में जुटा रहता है। वे सही हो इसकी कोई गारण्टी नहीं होती। शॉर्टकट प्रायः हानिकारक व दुखदाई होता है। वह मनुष्य को मुसीबत में डालने का कार्य बखूबी निभाता है। इससे मनुष्य को बचना चाहिए। सच्चाई और ईमानदारी का मार्ग लम्बा और कण्टकों से भरा हो सकता है, पर अन्ततः सुखदाई होता है। इसमें मनुष्य को स्वयं भेद करना चाहिए।
          मन के अनुसार स्वयं को नहीं चलने देना चाहिए। यानी मन को मनमर्जी नहीं करने देनी चाहिए। इससे मनुष्य को प्रायः परेशानी का सामना करना पड़ता है। मन को अपनी इच्छा से चलाना चाहिए। इससे मनुष्य सुखी रहता है। इसके लिए मन को अपने वश में करना चाहिए, ताकि वह कभी भटकने न पाए। यदि यह मन मनुष्य के  नियन्त्रण में रहेगा, तो निश्चित ही वह चमत्कार कर सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद