सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

सबका साझा दुःख

यह तेरा दुख
यह है मेरा दुख
इसका दुख, उसका दुख
सबके दुख जानो जहान में एक समान।

मत बाँटों अब
इस दुख को कभी
राजनीति करती कैद
जाति-पाति, ऊँच-नीच की इन दीवारों में।

इस दुख की
नहीं कोई भी हद
सीमा रहित है यह
मन की गहराई से मान लो इस सच को।

सबका दुख है
साझा होता दुख है
इस पर ताण्डव करना
जश्न मनाना आखिर कब तक चल पाएगा?

कहो, बताओ
हम सबको अब
जरा सोचकर मन से
किसके हिस्से में नहीं है आया यह दुख?

दुख की भाषा
मानो मौनी भाषा
पढ़ सकते हो क्या भाई 
अनकही मौन की यह विरली परिभाषा।

समझ आ जाए
हमें भी समझा देना
बलखाते दुख की पीड़ा
करेंगे उस पल की हम प्रतिक्षण प्रतीक्षा।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Twitter : http//tco/86whejp

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

दूसरों की सहानुभूति बटोरना

दूसरों की सहानुभूति बटोरने में कुछ लोगों को बहुत मजा आता है। इसके लिए वे हर रोज नए-नए बहाने तलाशते रहते हैं। कभी अपने स्वास्थ्य का रोना रोते रहते हैं तो कभी अपनी नाकामयाबी का।
            कुछ लोग हर समय ही दूसरों के सामने अपने स्वास्थ्य अथवा अपनी मजबूरियों का रोना रो करके दूसरों को यह बताना चाहते हैं कि वे अकेले दुनिया में ऐसे हैं जो सबसे अधिक परेशान हैं। उन्हें इस बात को याद रखना चाहिए कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसे कोई परेशानी न हो। किसी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो कोई धन-संपत्ति के न होने से दुखी है। कोई बच्चों के कारण परेशानी में है तो कोई व्यपार-नौकरी के साथियों से कष्ट में हैं।
         बहुत-सी बेटियाँ विवाह के उपरान्त से ही अपने ससुराल के लोगों की बुराई करके मायके में सहानुभूति पाना चाहती है। ऐसा करके वे अपने ससुराल पक्ष का अपमान करती हैं। कुछ लड़कियाँ अपने पति की बुराई अपने माता-पिता के सामने करके उसका सम्मान कम करवा देती हैं। वे भूल जाती हैं कि ऐसा करके वे अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए माता-पिता से धन-सम्पत्ति बटोर सकती हैं पर अपने पति व अपने घर को बदनाम कर देती हैं।
          सास अपनी बहू की बराई करके अपने घर-परिवार तथा अपनी सखियों में सहानुभूति बटोरती है और बहू अपनी सास की बुराई करके अपने मायके व सहेलियों में सहानुभूति बटोरने का यत्न करती है। इस प्रकार पर से कीचड़ उछालकर वे एक-दूसरे की गरिमा को ठेस पहुँचाती हैं।
          कुछ पुरुष साथी महिलाओं की सहानुभूति पाने अथवा उनसे दोस्ती करने के लिए अपनी पत्नी के विषय में झूठी और मनगढ़न्त कहानियाँ सुनाकर उसके चरित्र को कलंकित करने से नहीं हिचकिचाते। उनकी पत्नी यदि सामने आ जाए तो उनकी पोल खुल जाती है।
         इसी प्रकार कई महिलाएँ भी कमोबेश इसी प्रकार का व्यवहार करके यानि अपने पति व अपने घर की बुराई करके दूसरे पुरुष मित्रों से अनावश्यक अतरंगता बढ़ाने का यत्न करती हैं। इस प्रकार करके पुरुष एवं महिलाएँ समाज में हंसी का पात्र बनते हैं और सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध चलने का दोषी बनते हैं।
          कभी-कभी मित्र भी अपने दोस्तों की भावनाओं का मजाक उड़ाते हुए उनसे जब तब अपना मतलब पूरा करने का प्रयास करते हैं।
           असली मुद्दे की बात यह है कि जो भी लोग इस प्रकार से दूसरों की जायज-नाजायज तरीकों से सहानुभूति पाना चाहते हैं  वे भूल जाते हैं कि जब सच्चाई सामने आती है तो बहुत ही शर्मसार होना पड़ता है।
       कहने का तात्पर्य है यह है कि झूठ के पैर नहीं होते और सच्चाई कभी छुप नहीं सकती। सच और झूठ में कभी सच का पलड़ा भारी हो सकता है तो कभी झूठ का। पर अन्त में सत्य सात पर्दों से मुस्कुराता हुआ बाहर आ ही जाता है। तब झूठ का लबादा उतर जाता है।
         अपनी स्थिति के विषय वास्तविक जानकारी देना उपयुक्त होता है। इससे न तो अपनी स्वयं की हेठी नहीं होती है और न ही रिश्तों की गरिमा नष्ट होती है। रिश्तों में सद्भाव बढ़ाने के लिए नफरत और झूठ का नहीं प्यार और सच्चाई का छौंक लगाएँ। ऐसा करने से रिश्तों की गर्माहट कम नहीं होती बल्कि और एक-दूसरे के प्रति विश्वास बना रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

दीपक तले अँधेरा

'दीपक तले अंधेरा' हमारे सयानों ने सोच-समझकर ही यह वाक्य कहा है। दीपक जब जलता है तो चारों ओर उसका प्रकाश फैलाता है परन्तु जिस स्थान पर वह रखा जाता है यानि उसके ठीक अपने ही नीचे प्रकाश नहीं पहुँच पाता। उस स्थान पर अंधेरा ही रहता है।
          इस वाक्य के पीछे के छुपे मर्म को समझना बहुत आवश्यक है। यह वाक्य हमें सोचने के लिए विवश कर देता है कि ऐसा कहने के पीछे हमारे विद्वानों की क्या सोच रही होगी? उनके समक्ष ऐसा क्या घटित हुआ होगा जिसके कारण उन्होंने अपनी ऐसी राय बनाई होगी?
         इस विषय पर बहुत विचार करने के बाद मैंने यही निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य अपने कुटुम्बी जनों के लिए जैसे जीवन की परिकल्पना करता है अथवा जैसा समाज को बनाना चाहता है शायद अपनों को उस साँचे के अनुरूप ढाल पाने में उसे सफलता हाथ नहीं लग पाती।
         बहुत बार ऐसा भी देखा गया है कि समाज सुधार करने वालों के अपने बच्चे राह भटककर गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं। इसका कारण है कि वे अधिक समय तक घर से बाहर के झमेलों को सुलझाने में लगे रहते हैं। उन्हें निपटाने में इतना व्यस्त रहते हैं कि घर और बच्चों का उन्हें होश ही नहीं रहता।
           अपने घर-परिवार और बच्चों को वे उतना समय नहीं दे पाते जितना उनके लिए आवश्यक होता है। घर में थोड़ा-सा समय रहकर अपने स्वयं के बच्चों को संस्कारित करने का ख्याल ही उनके मन से शायद निकल जाता है। अथवा वे ऐसा ही मानकर चलते हैं कि उनके घर के सदस्य तो कोई गलत कार्य कर नहीं सकते।
          माता-पिता यदि बच्चों को अपने पास बिठाकर संस्कारित नहीं कर पाएँगे तो उनका भटकना तो स्वाभाविक ही है। परन्तु यदि उन पर सस्कारों का अंकुश ही नहीं रहेगा तो वे अपनी मनमानी निश्शंक या निडर होकर करते रहेंगे। मनमानी करते हुए वे कहाँ तक पहुँच जाएँगे इस विषय में कोई कुछ भी नहीं कहने में समर्थ नहीं है।
        इतिहास के पन्ने खंगालने पर हमें इस उक्ति को चरितार्थ करते हुए बहुत से ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे जहाँ महान साम्रज्यों को उनके उत्तराधिकारियों द्वारा बरबाद कर दिया गया।
         आज भी समाचार पत्रों अथवा टीवी चैनलों में सुर्खियाँ बटोरते हुए उदाहरणों की कमी नहीं है जहाँ बड़े-बड़े पदों पर विराजमान और न्यायालय में न्याय करने वालों के बच्चे कार चोरी जैसी वारदातों को अंजाम देते हैं या अन्य कुकर्म करते हुए पकड़े जाते हैं। शिक्षाविदों  के बच्चे किसी भी कारण से पढ़ने से वंचित रह जाते हैं।
        इसी प्रकार अहिंसा का पाठ पढ़ाने वालों के बच्चे हिंसक प्रवृत्ति के हो जाते हैं। समाजसेवियों के घरों के बच्चे भी नशीले पदार्थों का सेवन करने बन जाते हैं। दूसरों को धर्म का उपदेश देने वालों के यहाँ भी अधर्मी जन्म ले लेते हैं। देशभक्तों की सन्तानें देशद्रोही हो सकती हैं। ईमानदार लोगों के उत्तराधिकारी समय के साथ बहते हुए भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोर और दूसरों का गला काटने वाले बन जाते हैं।
       समाज को प्रकाशित करने में जुटे लोग यदि अपने घर-परिवार में इच्छित सुधार  कर लें तब लिए 'दीपक तले अंधेरे' वाली यह उक्ति उनके लिए अनुपयोगी सिद्ध हो सकती है अन्यथा दीपक तले अंधेरा तो वास्तव में होता ही है इसे झुठलाया नहीं जा सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

अफवाहों पर ध्यान न दें

सुनी-सुनाई अफवाहों पर हमें ध्यान नहीं देना चाहिए। अफवाहें फैलाने वाले बेसिर-पैर की बातों को उड़ाते रहते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि फैलाई गयी सारी खबरों में सच्चाई हो। कभी-कभी उनकी सत्यता की परख करने पर परिणाम शून्य होता है। उस समय हमारे मन को कष्ट होता है कि काश हमने इन अफवाहों को सुनकर व्यक्ति विशेष के लिए राय न बनाई होती। तब तक सब हाथ से निकल जाता है। हमने जो भी लानत-मलानत करनी होती है वह हम कर चुके होते हैं।
          ये अफवाहें हमारे लिए रास्ते का काँटा बन जाती हैं। यदि हम गम्भीरता से विचार करें तो आज इस भौतिकतावादी युग में सब कुछ सम्भव है। लोगों को दूसरों की छिछालेदार करने में अभूतपूर्व सुख मिलता है। उन्हें मिथ्या आत्मतोष मिलता है कि उन्होंने दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लोग अपने विरोधियों पर कीचड़ उछाल करके उन्हें अपमानित करने के अवसर से नहीं चूकते। परन्तु ऐसा दुष्कृत्य करने वाले वे भूल जाते हैं कि कल जब उनकी बारी आएगी तो फिर उन्हें कैसा लगेगा?
         इन कुत्सित अफवाहों से हम अपना ध्यान थोड़ा हटा करके तर्कशास्त्र की इस उक्ति पर हम विचार करते हैं। तर्कशास्त्र का मानना है- 'यत्र यत्र धूम: तत्र तत्र वह्नि:।' अर्थात जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँ-वहाँ अग्नि अवश्य होती है। यदि आग जलेगी तो धुआँ भी होगा। वह धुआँ दूर-दूर तक उड़कर जाता है। दूर तक उड़ते हुए उस धुँए के कारण यदि किसी को जलती हुई आग नहीं दिखाई देती तो उसका यह अर्थ हम कदापि नहीं लगा सकते कि कहीं भी आग नहीं जल रही है।
         अपने इस सूत्र को सिद्ध करने के लिए तर्कशास्त्र उदाहरण देता है कि एक मोटा-सा देवदत्त नामक व्यक्ति है जो दिन में नहीं खाता। इसका सीधा-सा यही अर्थ निकलता है कि देवदत्त खाना खाता ही नहीं है। अब प्रश्न यह उठता है कि फिर वह जीवित कैसे रहता है?
            इस पर तर्क या विवाद करते हुए शास्त्र कहता है कि यदि वह देवदत्त दिन में नहीं खाता तो निश्चित ही रात को खाता होगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति बिना खाए बहुत समय तक जीवित नहीं रह सकता। यदि वह स्वस्थ है तो पक्की बात है कि वह सबसे नजर बचाकर छिपकर खाता है या फिर रात को खाता है। इसे कह सकते हैं तर्क की कसौटी पर परख कर विश्वास करना।
            एक बात और मैं आपके सामने रखना चाहती हूँ जिससे आप सभी सहमत होंगे। मीडिया के इस युग में कम्प्यूटर के फोटोशाप के द्वारा किसी भी तरह के चित्र अथवा वीडियो बनाए जाते हैं। इसी प्रकार वायस मिक्सिंग करके आडियो भी बनाए जा रहे हैं। इन सबसे किसी को भी बदनाम किया जा सकता है। इस प्रकार आँखों से देखी और कानों सुनी पर भी विश्वास करना बहुत घातक हो सकता है।
          अतः अपनी आँखों से देखी हुई और कानों से सुनी हुई किसी भी बात को आँख मूँदकर मानने से पहले उस पर अच्छी तरह विचार-विमर्श कर लेना चाहिए। उसे अपने विवेक की कसौटी पर कस लेना चाहिए, तभी उसे मानना चाहिए। अन्यथा अनर्थ की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

नकल से विवेक कुण्ठित

दूसरों की नकल करने का स्वभाव हमारे उस विवेक को कुंठित कर देता है जो हमें अच्छाई और बुराई के अन्तर का ज्ञान कराता है। नकल करते समय हम अपने मस्तिष्क का नहीं बल्कि दिल का कहना मानते हैं।
          यद्यपि नकल करते हुए मनुष्य को सदा अपनी अक्ल का ही इस्तेमाल करना चाहिए जो ईश्वर ने हमें उपहार के रूप में दी है-  ऐसा सदा ही समझदारों का मानना है। हमें दूसरों नकल करते समय मक्खी पर मक्खी न मारकर इस विषय पर गहन विचार करना चाहिए कि जो काम हम करने जा रहे हैं उससे हमारी जग हंसाई तो नहीं होगी।
          विद्यार्थी अपने अध्ययन काल में कामचोरी के कारण जब गृहकार्य नहीं कर पाते तब साथी की कापी लेकर नकल कर लेते हैं। उस समय उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहता कि वे अपने नाम के स्थान पर बिना समझे जल्दबाजी में साथी का नाम आदि की जानकारी लिख देते हैं जिससे अध्यापक को ज्ञात हो जाता है कि किसकी नकल करके वह कार्य किया गया है। इसी तरह परीक्षा के समय भी होता है। कभी-कभी अपने सही उत्तर को साथी के गलत उत्तर के कारण गलत लिखकर अपने अंक कम करवा लेने पर पछताना पड़ता हैं।
           आस-पड़ौस या बन्धु-बान्धवों के घर कोई भी नई वस्तु आ जाने पर हमारी अकुलाहट शुरू हो जाती है। चाहे वह उनका नया बड़ा घर हो अथवा महंगी नई गाड़ी हो। इनके अतिरिक्त बड़ा टीवी, बड़ा फ्रिज, महंगा नया फोन या आईपेड कुछ भी हो सकता है। हमारे मन में उन वस्तुओं को देखकर हीन भावना आने लगती है। तब हम सोचने लगते हैं कि कब हम उन अनावश्यक वस्तुओं को खरीद पाएँगे।
        उन वस्तुओं को खरीदने वालों को हम भाग्यशाली कहते हुए अपने दुर्भाग्य को कोसने लगते हैं। ईश्वर पर भी दोषारोपण करने से भी हम नहीं चूकते कि उसने हमें ये सब खरीदने की सामर्थ्य क्यों नहीं दी।
       तब हम अपने बैंक अकाऊँट खंगालते हैं। पड़ौसी के घर आने वाली नई वस्तुओं की नकल करके हम भी वस्तुएँ खरीद लेते हैं। उस समय हम उन वस्तुओं को खरीदने के लिए इतने अधिक उतावले हो रहे होते हैं कि यह भी विचार नहीं कर पाते कि उसे खरीदने के लिए हमारे पास साधन हैं भी या नहीं। यदि अपने पास धन है तो ठीक नहीं तो जुगाड़ हो जाएगा वाली सोच का सहारा लेते हैं।
      तब हम पैसे का जुगाड़ करने में जुट जाते हैं। यदि हमें किसी अपने के माध्यम से धन मिल जाए तो बढ़िया नहीं तो फिर हम किसी व्यक्ति से अथवा बैंक से कर्ज लेकर वह वस्तु खरीदकर परेशानी अवश्य मोल ले लेते हैं। आखिर उधार लिया हुआ पैसा चुकाना भी तो पड़ता है जिससे घर का मासिक बजट गड़बड़ा जाता है। कई आवश्यक खर्चों को मजबूरन रोकना पड़ जाता है।
        दूसरों की होड़ करते हुए हम अपने घर में यदा-कदा ऐसी वस्तुएँ भी एकत्रित
कर लेते हैं जिनकी हमें आवश्यकता ही नहीं होती। इससे घर में जगह तो घिरती ही है और व्यर्थ ही पैसा भी बरबाद हो जाता है। इसलिए यथासंभव भेड़चाल न करते हुए दूसरों की नकल करने से बचना चाहिए। अपने विवेक का सहारा लेकर स्वयं को भविष्य में आने वाले कष्टों से बचाने में ही  बुद्धिमत्ता कहलाती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

आकर्षक पैकिंग से सावधान

आकर्षक पैकिंग को देखकर हम प्रभावित हो जाते हैं और यह मान लेते हैं कि इसके अन्दर रखी वस्तु भी उतनी ही अच्छी क्वालिटी की होगी जितनी यह दिखाई देती है। परन्तु हमेशा ही ऐसा नहीं होता। बहुधा हम धोखा खा जाते हैं और फिर अपने अमूल्य धन एवं समय की हानि कर बैठते हैं।
         उस समय हम स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं। हमें इतना क्रोध आता है कि हमें ठगने वाला यदि हमारे सामने आ जाए तो उसका सिर फोड़ दें। परन्तु यह तो किसी समस्या का हल नहीं है। आज किसी एक व्यक्ति या संस्था विशेष ने हमें धोखा दिया है तो इसकी क्या गारंटी है कि कोई और उसके झांसे में आकर ठगा नहीं जाएगा।
         समाचार पत्रों में हमें अक्सर ऐसे विज्ञापन दिखाई देते हैं जो किसी को भी बहुत प्रभावित कर लेते हैं। उनमें तरह-तरह के लालच परोसे जाते हैं।
        आप लोगों को शायद याद होगा कि कुछ वर्ष पूर्व प्लांटेशन वालों ने सबको बहुत भरमाया था। समयावधि का तो मुझे ध्यान नहीं जिसके पश्चात इन्वेस्ट की गई राशि से कई गुणा राशि लौटाने का वादा किया गया था। उसके बाद सब कहाँ चले गए किसी को पता नहीं।
         गली-मुहल्लों में भी बहुत बार ठगने की नियत से लोग आते हैं जो  वादा करते हैं कि सोने को दुगना कर देंगे। सोने को दुगना तो क्या करेंगे परन्तु वे ठग कर चले जाते हैं।
         इसी प्रकार बहुत-सी ऐसी कम्पनियाँ हैं जो उनके पास पैसा इन्वेस्ट करने वालों को बैंक की ब्याज दर से दुगना या तिगुना देने का वादा करती हैं। पर फिर थोड़े दिनों के पश्चात ही लोगों की मेहनत की कमाई बटोरकर रातोंरात गायब हो जाती हैं। अब ढूँढ लीजिए उन मक्कारों को।
           ऐसे ही कई शेयर या डिविडेंड ऐसे भी हैं जिनमें यह पंक्ति लिखी रहती है कि मार्केट रिस्क इसमें रहेगा। तो इनमें पैसा इंनवेस्ट कर करने का तो मुझे कोई औचित्य समझ नहीं आता।
         इसी प्रकार सस्ते व किश्तों पर प्लाट बेचने वाले विज्ञापन भी आकर्षित करते हैं क्योंकि सिर पर छत तो हर व्यक्ति चाहता है। वहाँ लोग पैसा फंसा देते है और जब कब्ज़ा लेने की बारी आती है तो पता चलता है कि वहाँ या तो ऐसी कोई जमीन नहीं जो उन्होंने खरीदी थी या उस जमीन को कई लोगों को बेचा गया है।
        लोगों को विदेश भेजने का धन्धा भी जोरों पर चलता है। बिना पूरे कागजों के विदेश जाने वालों का क्या हाल होता है इसके उदाहरण हमें अपने आसपास ही मिल जाते हैं।
         यह कुछ उदाहरण मैंने लिखे हैं जहाँ फंसकर मनुष्य न घर का रहता है न घाट का। एक व्यक्ति जब अनजाने में इस तरह के प्रलोभनों में फंस जाता है तो उसका बाहर निकलना उसके ठगे जाने के बाद ही होता है। उस समय यदि कोई साथी या रिश्तेदार उन्हें चेतावनी देने का प्रयास करता है तो उसे वे अपना शत्रु समझते हैं। उन्हें उस समय लगता है कि सभी उसकी तरक्की से जलते हैं। कोई नहीं चाहता कि वह सभी सुख-सुविधाओं से सम्पन्न हो जाए।
         उस समय वे सोचते हैं कि यह सब प्राप्त करना उनके बूते की बात नहीं है इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं। उनके लिए वे प्रायः इन मुहावरों का प्रयोग करके उनकी हंसी उड़ाते हैं- 'अंगूर खट्टे हैं।' और 'हाथ न पहुँचे थू कौड़ी।'
         तुच्छ लालच में आकर इन धोखेबाजों से बचना चाहिए। अपने खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को यूँ ही बरबाद नहीं करना चाहिए।
         बाद में पुलिस स्टेशन में जाकर कितनी ही शिकायतें कर लीजिए पर वे लुटेरे तो लूटकर कर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। उन्हें पकड़ने में वर्षों लग जाते हैं। केवल सरकार या पुलिस के भरोसे न बैठकर स्वयं अपने विवेक पर भरोसा कीजिए। अपने धन को व्यर्थ न गंवाकर उसे अपने पास या बैंक में सम्हाल कर रखना चाहिए ताकि वह हमारे सुख-दुख में काम आ सके। इन लोगों के विषय में हम यही कह सकते हैं-
                'ऊँची दुकान फीका पकवान।'
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

दूसरों का मूल्यांकन

दूसरों का मूल्यांकन करते समय हमें ऐसा प्रतीत होता है कि फलाँ व्यक्ति में तो ऐसी कोई विशेष योग्यता नहीं है जिसकी चर्चा अवश्य करनी चाहिए। इस संसार में कोई भी व्यक्ति दूसरे को योग्य कहकर उसकी प्रतिष्ठा नहीं करना चाहता।
         अपने घर की ओर नजर डालिए वहाँ आपका बेटा अथवा बेटी इतने योग्य हो सकते हैं कि दफ्तर में उनके अधीन अनेक कर्मचारी हों। आफिस में उनका अनुशासन इतना अधिक हो कि कोई कर्मचारी गलत काम न कर सकता हो। वह स्वयं भी दिन-रात कार्य करते हुए अपने अधीनस्थों से वैसा ही कार्य करवाते हों जैसा वे चाहते हैं। उनके विरोधी भी उनका लौहा मानने के लिए विवश हों।
          ऐसे योग्य बच्चों के माता-पिता को यही लगता है कि उनके बच्चे बेशक बहुत पढ़-लिख गए हैं और बड़े हो गए हैं पर फिर भी अभी नादान हैं, बहुत भोले हैं और उन्हें तो दुनियादारी की बिल्कुल भी समझ नहीं है। अपनी ओर से वे उन्हें अपनी छत्रछाया में संरक्षित करना चाहते हैं। अपने बच्चों के लिए आयुपर्यन्त ही संवेदनशील बने रहना चाहते हैं।
         प्राय: पति भी अपनी पत्नी के विषय में सोचते हैं कि उनकी पत्नी तो मूर्ख है उसे क्या समझ है? यह भी हो सकता है यदि वे उसकी योग्यता के विषय में सोचने लगे तो उसे स्वयं ही समझ में आ जाए कि उनकी सोच बहुत गलत थी। उनकी पत्नी में तो बहुत से गुण हैं यानि कि वह मल्टी टेलेंटेड औरत है। वह घर और बाहर दोनों ही मोर्चों पर सफल है। जितनी कुशलता व लगन से वह अपने दफ्तर के कार्य निपटाती है उसी ही निष्ठा से घर-गृहस्थी व बच्चों के कामों को भी करती है। अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए नित्य अनावश्यक बहाने नहीं बनाती।
           प्रायः पत्नियाँ भी अपने पतियों के विषय में इसी प्रकार के नकारात्मक विचार रखती हैं। उन्हें भी ऐसा लगता है उनके पति को कोई समझ नहीं है। न वे घर का कार्य कर पाते हैं और न बाहर के दायित्वों का निर्वहन कर सकते हैं। हाँ, घर पर जितना समय रहते हैं अशान्ति ही फैलाते रहते हैं। इसलिए दोनों एक-दूसरे के प्रति असहिष्णु हो जाते हैं और हर समय ही अपने साथी को सहन न कर सकने का रोना रोते रहते हैं।
           पति और पत्नी घर में एक-दूसरे को नासमझ मानकर परस्पर दोषारोपण करते रहते हैं। उन दोनों में से कोई भी अपने मन से यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता कि उनका जीवनसाथी किन्हीं विशेष योग्यताओं वाला हो सकता है। जिसके कारण उसका सम्मान उसके अधीनस्थ करते हैं। उससे सम्पर्क में आने वाले उसके काम करने के तरीकों से प्रभावित हो जाते हैं। अपने फील्ड में लोग उसकी कार्यशैली और उसकी पर्सनेलिटी से ईर्ष्या करने के लिए विवश हो जाते हैं।
           मित्र, बन्धु-बान्धव, भाई-बहन आदि भी अपने संबंधियों के प्रति सकारात्मक विचार नहीं रखते। उनकी कल्पना से परे की बात होती है कि उनका प्रियजन इतना महत्त्वपूर्ण व्यक्ति है जो बड़े-से-बड़े चैलेंज जीतकर आज इतना प्रतिष्ठित हो गया है। उससे मिलने के लिए भी समय लेना पड़ता है और प्रतीक्षा करनी होती है।
          हमें किसी की भी वेशभूषा अथवा रहन-सहन से उसके प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं पालना चाहिए। उसका मूल्यांकन करते समय सचेत रहना चाहिए। किसी को भी कमतर नहीं समझना चाहिए। दूसरे का मूल्यांकन करते समय उसकी योग्यता और पद आदि को ध्यान में रखना बहुत ही आवश्यक है।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 23 अक्तूबर 2016

जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन

हमारे आचरण पर हमारे खानपान का बहुत प्रभाव पड़ता है। शायद सुनने में अटपटा-सा लग रहा है पर यह सत्य है। छांदोग्य उपनिषद हमें बताती है-
            आहारशुद्धौ सत्तवशुद्धि: ध्रुवा स्मृति:।
             स्मृतिलम्भे  सर्वग्रन्थीनां  विप्रमोक्ष:॥
अर्थात आहार शुद्ध होने से अंत:करण शुद्ध होता है। इससे ईश्वर में स्मृति दृढ़ होती है। स्मृति प्राप्त हो जाने से हृदय की अविद्या जनित सभी गाँठे खुल जाती हैं।
हमारे बड़े-बजुर्ग कहते थे-
                'जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन'
अर्थात जैसी कमाई का अन्न घर में आएगा वैसा ही परिवार जनों का आचरण भी हो जाएगा।
         तामसिक और राजसिक भोजन करने से स्वास्थ्य की हानि होती है जिसका मानसिक प्रभाव पड़ता है। मन में तमोगुण बढ़ता है अर्थात मनुष्य पर कुविचार हावी होते हैं जिसका परिणाम हम अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार, बलात्कार, तेजाब फैंकना, पारिवारिक विघटन आदि बुराइयों के रूप में देखते हैं। मन में अवसाद बना रहता है व सद् कार्यों में मन नहीं लगता। हमारा मन इन्द्रियों के वश में होकर भटकता रहता है।
         यदि हम स्वास्थ्य के नियमों के अनुसार मौसम के अनुकूल भोजन करेंगे तो शरीर स्वस्थ रहेगा अन्यथा रोगी हो जाएगा। फिर अपनी मेहनत की कमाई डाक्टरों के हवाले करनी पड़ेगी। रोगी व्यक्ति स्वयं अपने को संभाल नहीं पाता तो घर-परिवार के दायित्वों का निर्वहण कैसे कर सकेगा? यह कष्ट उसे और अधिक पीड़ित करता है। इसीलिए कहा है-
             'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'
अर्थात जब शरीर स्वस्थ होगा तभी मनुष्य अपने धर्म का पालन करेगा और अपने दायित्वों को पूर्ण करेगा।
        यदि हम कहें कि शरीर और मन दोनों की सृष्टि अन्न से ही होती है तो यह कथन अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनि सात्विक आहार पर बल देते थे।
        इससे शरीर पुष्ट होता है और मन में सद् विचारों की अधिकता होती है। हम लोग खाने के लिए जीते हैं जबकि खाना जीने के लिए होना चाहिए। आजकल घर का शुद्ध खाना खाने के बजाय जंक फूड का प्रचलन बड़ता जा रहा जो स्वास्थ्य की हानि कर रहा है। छोटे-छोटे बच्चे बीपी, शूगर, मोटापा, दिल की बिमारी, कमजोर नजर और न जाने किन-किन बिमारियों के शिकार होते जा रहे हैं।
       विचारणीय है कि जिन परिवार जनों के लिए मनुष्य पाप-पुण्य, छल-फरेब, झूठ- सच सब करता है उसका पुण्य बटोरने के लिए तो सब तैयार हो जाएँगे पर पाप का हिस्सा बाँटने वाला उसके अतिरिक्त और कोई नहीं होगा। तो फिर यह अत्याचार व अनाचार से धन क्यों कमाना? क्यों किसी का गला काटना या दिल दुखाना?
         वास्तव में सच्चाई व ईमानदारी की कमाई में जो बरकत होती है उसका कोई मुकाबला नहीं हो सकता। इसी कमाई से घर-परिवार व स्वयं मनुष्य सुखी रहता है। संतान भी योग्य, आज्ञाकारी व संस्कारी होती है। हो सकता है वह दुनिया की नजर में लूज़र हो पर उसका कोई भी ऐसा कार्य नहीं जो सीमित साधन होने पर भी पूरा न हो। ईश्वर ऐसे व्यक्ति का खास ख्याल रखता है व उसे निराश नहीं होने देता।
      कहते हैं हमारे शरीर में सभी देवी-देवताओं का निवास होता है। तामसिक भोजन का अंश उनको मिलता है तो वे कमजोर हो जाते हैं और सात्विक भोजन से पुष्ट होते हैं।
       अपने घर-परिवार को संस्कारी बनाने के लिए उन्हें सात्विक अन्न खिलाएँ जो तन और मन दोनों के लिए आवश्यक है।
चन्द्र प्रभा सूद
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