रविवार, 30 सितंबर 2018

मनुष्य में गम्भीरता

इतनी गम्भीरता मनुष्य में होनी चाहिए कि जो भी विष अथवा अमृत उसे इस संसार में रहते हुए मिल जाए उसका पान करने या आत्मसात करने का कौशल उसे आना ही चाहिए। तभी वह एक सफल और योग्य व्यक्ति बन सकता है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि इन्सानी स्वभाव है कि वह अपने साथ घटित होने वाली घटनाओं को कदापि विस्मृत नहीं कर सकता। चलचित्र की भाँति वे उसके मानसपटल पर चलती रहती हैं।
         इस जीवन से जो भी मिले, उसे पचाने की कला सीख लेनी चाहिए। यदि मनुष्य के पास इतनी सामर्थ्य है कि उसे दो समय का भोजन सरलता से मिल सकता है तो उसके लिए उसका पाचनतन्त्र स्वस्थ होना चाहिए अन्यथा भोजन के न पच पाने से उस पर मोटापे की पर्तें चढ़ने लगती हैं। उसका सुन्दर शरीर जिस वह मान करता है, वह बेडौल होने लगता है। फिर असमय ही अनेक व्याधियाँ उसे घेरने लगती हैं।
          अथक परिश्रम करने के उपरान्त जब मनुष्य के पास जब अपार धन, दौलत अथवा समृद्धि आने लगती है तब उसके व्यवहार में आने वाला परिवर्तन प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगता है। मनीषी कहते हैं कि पैसा बोलता है। इसका अर्थ यही लगाया जा सकता है कि एक-एक करके सुख-सुविधा के साधन घर में जुटाए जाने लगते हैं। जो निश्चित ही हर किसी की नजर में आते हैं।
        उस समय मनुष्य का दिमाग सातवें आसमान पर होता है। अपने अतिरिक्त सभी उसे सभी लोग कीड़े-मकौड़ों की तरह दिखाई देते हैं। अपने अहं को तुष्ट करने के लिए वह अनेक उपाय करता रहता है। गुड़ पर मक्खियों की तरह स्वार्थी लोग उसके आसपास मण्डराते रहते हैं। उसका प्रशस्ति गान करते हैं। उसे महान बताकर उसका अहंकार बढ़ाते हैं।
 अपना कार्य निकल जाने पर उससे किनारा कर लेते हैं। ऐसी अवहेलना उससे सहन नहीं हो पाती। उन्हें वह अपना अघोषित शत्रु मानने लगता है। यदि उसका वश चल सके तो समाज में उनका हुक्का पानी बन्द करवा दें अथवा फिर उन्हें ऐसे अन्धेरे कुएँ में धकेल दें जहाँ से वे कभी वापिस न लौट सकें।
         इस बात का दुख उन्हें आजन्म ही सताता है कि अज्ञानवश उन्होंने ने स्वार्थी लोगों का पोषण किया। यदि वे अपनी इस निराशा को नियन्त्रित कर लेते हैं तो सुखी रहते हैं। इसके विपरीत अपनी मूर्खता को न पचा पाने से उनकी निराशा बढ़ती है। कभी-कभी इस प्रकार अनावश्यक तनाव से मनुष्य को अवसाद भी हो जाता है। यह वास्तव में घर-परिवार और बन्धु-बान्धवों के लिए एक चिन्ता का कारण अवश्य बन जाता है।
        सौभाग्यवश जब सुख-समृद्धि, सत्ता, शक्ति आदि में से कुछ भी मनुष्य की झोली में आ जाता है तब उसे अहंकार का दामन छोड़कर सहृदयता और सरलता को अपनाना चाहिए। यद्यपि यह मार्ग कठिन है परन्तु असम्भव नहीं है। इस रास्ते पर चलता हुआ वह अपने खाते में पुण्यों या सत्कर्मों की वृद्धि करता है। सन्मार्ग से भटक जाने पर वह पापकर्मों को अपने लिए एकत्र करता चलता है।
          निस्सन्देह विवेक मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र होता है। उस पर उसे आँख मूँदकर विश्वास करना चाहिए। इसके द्वारा दिए गए सद्परामर्श के अनुसार चलने से उसे कदाचित ही असफलता का मुँह देखना पड़े। हाँ, उसके बताए मार्ग को अनदेखा करके अवश्य ही वह अपने लिए संकटों को न्यौता देने का कार्य कर बैठता है।
       मनुष्य को सावधान रहते हुए फूँक-फूँककर अपना प्रत्येक कदय उठाना चाहिए। किसी भी कार्य को करने से पहले उसके हर पक्ष पर विचार करना आवश्यक होता है। अन्यथा फिर पश्चाताप ही शेष बचता है। उन सब अपरिहार्य स्थितियों से बचना मनुष्य का पहला कर्त्तव्य होना चाहिए। मनुष्य अपनी मूर्खताओं के मुँह के बल गिरता है और अपनी समझदारी से वह सदा आगे ही बढ़ता जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 29 सितंबर 2018

स्वयं की आत्मरक्षा

अपनी सुरक्षा या आत्मरक्षा के लिए हर किसी को निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो व्यक्ति अपनी स्वयं की रक्षा नहीं कर सकता उसकी रक्षा कोई दूसरा नहीं कर सकता। इसलिए शास्त्र कहते हैं- 'आत्मानं सततं रक्षेत्।'
अर्थात मनुष्य को अपनी रक्षा के लिए निरन्तर यत्न करना चाहिए।
          यदि किसी मनुष्य में शारीरिक बल की कमी भी हो तो उसे अपना आत्मिक बल यानि अपना आत्मविश्वास बढ़ाना चाहिए। जिस मनुष्य के पास आत्मिक बल होता है वह कभी किसी परिस्थिति में भी घबराता नहीं और किसी भी व्यक्ति का सामना कर सकता है।
          एक चींटी जो बहुत ही छोटा जीव है और किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकती। यदि उसे छेड़ा जाए तो वह भी कुलबुलाते हुए अपना विरोध प्रकट कर देती है। इसी प्रकार मनुष्य को भी आवश्यकता पड़ने पर अपने शक्तिशाली शत्रु का प्रतिरोध अवश्य करना चाहिए।
          एक दृष्टान्त कभी पढ़ा था कि एक साँप को किसी मुनि ने कहा कि तुम व्यर्थ ही  निरपराध लोगों को डसकर उन्हें मार देते हो। यह अच्छी बात नहीं है। तुम्हें भी अहिंसा का मार्ग अपना लेना चाहिए और अपना परलोक सुधारना चाहिए। उसे महात्मा जी की बात पसद आ गई और उसने सोचा क्यों न मैं लोगों को क्षमादान देकर आपन्ता परलोक सुधार लूँ।
           कुछ दिन बीतने पर वह उन महात्मा जी के पास आया और अपनी व्यथा सुनाने लगा। उसने कहा कि जब से उसने लोगों को काटना छोड़ दिया है तब से कोई भी उससे नहीं डरता। लोग मुझे परेशान करते हैं और मुझ पर पत्थर भी बरसा देते हैं। बच्चे भी मेरी पूँछ मरोड़ देते हैं। उसकी बात सुनकर महात्मा जी ने उस साँप को समझाते हुए कहा कि तुझे लोगों को काटने के लिए मना किया था। यह थोड़ा कहा था कि तुम फुफकारना भी छोड़ दो। दूसरों को डराने के लिए अपना फन फैलाते हुए फुफकार अवश्य करो।
         निर्विषेणापि सर्पेण कर्त्तव्या महती फटा।
        विषो भवति वा मा भूत् फटटोपो भयङ्कर:॥
अर्थात विषरहित साँप को भी फुफकारना चाहिए। उसके पास विष हो चाहे न हो पर उसका फन फैलाना ही सबके हृदय में भय पैदा कर देता है।
         अग्नि बहुत ही शक्तिशाली है। वह बड़े-बड़े जंगलो और भवनों तक को नष्ट कर देती है। जो भी जीव उसकी चपेट में आ जाता है जलकर भस्म हो जाता है। वही जब वह राख बनकर ठंडी पड़ जाती है तो उस पर चींटियाँ भी चलने लगती हैं।
          इसी प्रकार भयंकर विषधर जो किसी भी जीव को नहीं बख्शता उसके निर्जीव हो जाने पर चींटियाँ उसे खा जाती हैं।
           कहने का तात्पर्य यही है कि निर्बल व्यक्ति को इस ससार में कोई भी जीने नहीं देता। कहते हैं बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। इसी प्रकार का व्यवहार एक बलवान निर्बल के साथ करता है। उसे हर तरह से प्रताड़ित करता है। उसका वश चले तो किसी शक्तिहीन को जीने ही न दे। वही इस दुनिया का मालिक बनकर रहने लगे। पर अफसोस यह करना उसके बस में नहीं है। ईश्वर ने अपनी सृष्टि में सभी प्रकार के जीव उत्पन्न किए हैं और उनकी रक्षा भी करता है।
          मनुष्य को ईश्वर के अतिरिक्त किसी से भी नहीं डरना चाहिए। वह उसका परम रक्षक है। इसलिए केवल उसकी शरण में जाना चाहिए। महात्मा गांधी की तरह शारीरिक बल न होते हुए भी आत्मिक बल होना चाहिए जिससे शक्तिशाली साम्राज्यों की नींव भी हिल जाती है। फिर इंसान तो कुछ भी नहीं है। वह चाहे कितना खूँखार और बलशाली हो आत्मविश्वासी के समक्ष टिक नहीं सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

मनुष्य की परछाई

हर मनुष्य की अपनी स्वयं की एक परछाई होती है। वह अपनी परछाई के पीछे सदा भागता रहता है जो कभी उसके हाथ नहीं लगती। मनुष्य आगे-आगे चलता जाता है और यह परछाई हमेशा उसके पीछे-पीछे ही चलती रहती है। चाहकर भी वह हाथ बढ़ाकर उसे छू नहीं सकता।
         इंसान जब पीछे मुड़ जाती कर इसे देखने का प्रयास करता है तो यह सिमट जाती है और दिखाई नहीं देती। थोड़ी देर के बाद जब वह सीधा चलने लगता है तो यह पुन: उसके पीछे हो जाती है। यह मृगतृष्णा के ही समान उसे छलती रहती है। कोई भी मनुष्य सदा के इसे लिए बाँधकर नहीं रख सकता।
          मनुष्य जहाँ भी जाता है उसकी यह परछाई उसके साथ-साथ चलती हुई सी सबको दिखाई देती है। यह प्रकाश में ही दिखाई देती है। प्रात:काल और सायंकाल यह छोटी होती है दोपहर के समय लम्बी हो जाती है।। रात के स्याह अंधेरे में यह भी छिप जाती है और तब दिखाई नहीं देती।
       यह एक दास की तरह पूर्ण रूपेण हमारा अनुसरण करती है। हम धीरे-धीरे चलते हैं तो यह भी मस्त चाल में चलती है। हम तेज-तेज चलते हैं तो यह भी तेजी दिखाती है और यदि हम भागते हैं तो यह भी भागती हुई दिखाई देती है। कहने का तात्पर्य यही है कि कैसी भी गति में हम हों हमारे पीछे-पीछे रहती है।
           ऐसा कहा जाता है कि जब मनुष्य दुखों और परेशानियों के अंधेरे काले बादलों से जब घिर जाता है, उस समय इस दुनिया के सभी भौतिक रिश्ते-नाते उसका साथ छोड़ देते हैं, यहाँ तक कि उसकी अपनी परछाई भी उससे मुँह मोड़ लेती है।
          कहने का तात्पर्य यही है कि रात की कालिमा जैसे भयंकर कष्ट के समय यह परछाई भी बेगानी हो जाती है और मनुष्य से दूर भाग जाती है। जब उसके जीवन से दुख के बादल छटने लगते हैं और मनुष्य को पुन: आशा की एक किरण दिखाई देने लगती है। तब धीरे-धीरे उसके दुखों का अन्त होने लगता है। उसके जीवन में सुखों के साथ-ही-साथ स्थायित्व का प्रकाश भी चमकने लगता है। उस समय यह फिर उसके पीछे हो लेती है और साथ चलने लगती है। यानी यह भी मनुष्य के सुख की साथी है दुख की कदापि नहीं।
          यह वही परछाई होती है जो कहने के लिए मनुष्य की अपनी होती है। परन्तु इस पर भी अन्य भौतिक पदार्थों की तरह भरोसा न करने का परामर्श हमारे विद्वान हमें देते हैं।
          इस परछाई के विषय में एक और बात जो खास तौर से कही जाती है वह यह है कि जब मृत्यु मनुष्य के सिर पर मंडरा रही होती है उस समय मनुष्य की परछाई दिखनी बंद हो जाती है। अर्थात मनुष्य जीवन के अन्तकाल के पहले ही यह परायों की तरह उसका साथ छोड़ देती है। बस यहीं तक का उसका और मनुष्य का साथ होता है।
      भौतिक जगत की शेष अन्य सम्पदाओं की भाँति यह भी केवल इसी संसार में ही साथ निभाती है, परलोक में हमारा साथ निभाने नहीं जाती। इस तरह तो उसे हम विश्वसनीय नहीं कह सकते।
         मनुष्य को चाहिए कि मृगतृष्णा के समान धोखा देने वाले इन छलावों के प्रपंच से यथासंभव बचकर रहे। इनके जाल में फंसने से जीवन में कष्ट के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता। ईश्वर सबके जीवन में भरपूर सुख और शान्ति दे इसी कामना के साथ।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 27 सितंबर 2018

अशरीरी शब्द

हर शब्द को यथासम्भव सम्हलकर ही सदा बोलना चाहिए। शब्द का कोई भी मूर्त रूप नहीं होता यानी हमारी तरह उनके शरीर या हाथ-पाँव नहीं होते। इसलिए वे हम इन्सानों की तरह हाथों-पैरों से झगड़ा नहीं करते और न ही हथियार चलाकर किसी को घायल कर सकते हैं अथवा किसी की जान ले सकते हैं।
          ये अशरीरी शब्द यानी शरीरधारी न होते हुए भी अपने सामने वाले को गम्भीर घाव दे जाते हैं। उन घावो की टीस आजन्म मनुष्य के मन को आहत करती रहती है। निम्न दोहे में बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है-
          मधुर वचन हैं औषधि, कटुक वचन हैं तीर।
          स्रवण द्वार होई संचरे, वैधे सकल सरीर।।
अर्थात मधुर वचन औषधि की तरह होते हैं पर कड़वे वचन तीर की तरह होते हैं। सुनाई कानों से देते हैं पर सारे शरीर को बेध देते हैं।
           दूसरी ओर ऐसे शब्द भी हैं जो औषधि की तरह दूसरे की चोट पर मलहम लगाते हैं और सान्त्वना देते हैं। ये मधुर वचन कल्पवृक्ष और कामधेनु के समान होते हैं जो पलक झपकते ही मनोकामनाओं को पूर्ण कर देते हैं। ये दुखी और पीड़ित व्यक्ति को कष्ट से राहत दिलाने का भरसक प्रयास करते हैं।
         शब्द बहुत अमूल्य होते हैं। इनका प्रयोग करते समय सावधानी बरतनी चाहिए इसीलिए कहा है- 'पहले तोलो फिर बोलो।' यानी जिन शब्दों का प्रयोग करना चाहता है, बहुत सोच-समझकर उन्हें बोलना चाहिए। मनीषी कहते हैं तीर का घाव भर जाता है पर शब्दों द्वारा दिया गया घाव नहीं भरता।
        इसी भाव को इस दोहे में बहुत सरल शब्दों में समझाया है-
         बोली एक अमोल है जो कोई बोले आन।
         हिय तराजू तौल के तव मुख बाहर आन।
अर्थात बोली या शब्द अनमोल होते हैं। उन्हें मन के तराजू में तोलकर ही अपने मुँह से बाहर निकालना चाहिए। यानी शब्दों को बैलेंस करके बोलना चाहिए, इसी में समझदारी होती है।
           बिहारी कवि के दोहों की तरह ये शब्द छोटे होते हुए भी गम्भीर घाव करते हैं। जब घाव नासूर बन जाते हैं तब किसी भी मनुष्य की सहनशक्ति सीमा को पार कर जाती है जिसका परिणाम भयंकर होता है। इसी के कारण पीढ़ी-दर-पीढ़ी शत्रुता निभाई जाती है। शत्रु पक्ष को अधिकाधिक जान और माल की हानि पहुँचाने का प्रयास किया जाता है।
         स्वर्ण मृग को पकड़ने गए भगवान राम की करुण पुकार का लक्ष्मण पर कोई प्रभाव न होने पर उसे भगवती सीता ने कठोर वचन कहे। फिर लाचार लक्ष्मण के प्रस्थान कर जाने के पश्चात रावण उन्हें हरकर ले गया। इसका दुष्परिणाम राम-रावण युद्ध था।
         दुर्योधन को कहे गए द्रौपदी के अपशब्दों के कारण महाभारत काल में विनाश का ताण्डव हुआ। जिसे भगवान  श्रीकृष्ण भी नहीं बचा सके।
       अपने अधीनस्थों और छोटों के लिए भी न तो कभी व्यंग्य बाण चलाने चाहिए और न ही अपशब्द बोलने चाहिए। ऐसा करने वाले मनुष्य को तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। समय-समय पर उनका उपहास भी किया जाता है।
        इन शब्दों के मर्मभेदी बाण चलाकर मनुष्य अपने मित्रों को शत्रु बना लेता है। इसके विपरीत सद् वचनों के प्रभाव से शत्रु को भी मित्र बना लेता है। यह सब शब्दों की शक्ति है जो मनुष्य से उसका मनचाहा करवा लेती है। इसे आम भाषा में हम चाटुकारिता या चापलूसी भी कह सकते हैं। चापलूसी एकाध बार तो किसी को मोह सकती है, हमेशा नहीं।
         अनावश्यक ही क्षणिक आवेश में आकर मनुष्य को कभी अनर्गल प्रलाप नहीं करना चाहिए। ऐसा करने वाले इन्सान को कहीं भी सम्मान नहीं मिलता। फिर धीरे-धीरे लोग उसके बोलने की परवाह करना छोड़ देते हैं। फिर उससे किनारा करने में परहेज नहीं करते।
         स्वयं पर और अपने शब्दों पर जो संयम रखते हैं वही व्यक्ति संसार में मान्य होते हैं। यही लोग लोकप्रिय बनते हैं। हर कोई उनका साथ पाने के लिए लालायित रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 26 सितंबर 2018

सुख की प्रतीक्षा

कभी तो उसके दिन बदलेंगे और वह भी सुख की साँस ले सकेगा, मनुष्य इस आशा में सारा जीवन व्यतीत देता है।
वह उस दिन की प्रतीक्षा करता है जब उसका भी अपना आसमान होगा जहाँ वह लम्बी उड़ान भरेगा। उसकी अपनी जमीन होगी जहाँ वह पैर जमाकर खड़ा हो पाएगा। तब कोई उसकी ओर चुभती नजरों से देखने की हिमाकत नहीं करेगा।
          कहते हैं बारह वर्ष बाद तो घूरे के भी दिन बदलते हैं। इन्सान के अपने भाग्य में भी परिवर्तन होगा, ऐसे सपने तो वह देख सकता है। कुछ सौभाग्यशाली लोग होते हैं जिनके जीवन में समय बीतते बदलाव आ जाता है। परन्तु कुछ दुर्भाग्यपूर्ण लोग भी संसार में हैं जो जन्म से मृत्यु तक एड़ियाँ घिसते रहते हैं। उनके लिए सावन हरे न भादों सूखे वाली स्थिति रहती है।
        उम्मीद वर्षो से घर की दहलीज पर खड़ी वो मुस्कान है जो हमारे कानों में धीरे से कहती है- 'सब अच्छा होगा।' और इसी सब अच्छा होने की आशा में हम अपना सारा जीवन दाँव पर लगा देते हैं। अपने जीवन को अधिक और अधिक खुशहाल बनाने के लिए अनथक श्रम करते हुए भी मुस्कुराते रहते हैं। अपने उद्देश्य को पाने में जुटा मनुष्य हसी-खुशी कोल्हू का बैल बन जाता है।
          घर-परिवार के दायित्वों को यदि मनुष्य सफलतापूर्वक निभा सके तो उससे अधिक सौभाग्यशाली कोई और हो नहीं सकता। किन्तु जब उनको पूरा करने की कवायद करता हुआ वह, बस जोड़तोड़ तक सीमित रह जाता है तब यह मानसिक सन्ताप उसे पलभर भी जीने नहीं देता। धीरे-धीरे उसकी हिम्मत जवाब देने लगती है। तब उसके कुमार्गगामी बन जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। 
        उस समय मनुष्य भूल जाता है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी भी किसी को कुछ नहीं मिलता। यदि इस सूत्र का स्मरण कर लिया जाए तो वह सदा सन्मार्ग का पथिक ही रहे। तब मनुष्य अपने जीवन को इस तरह नरक की भट्टी में झोंककर और अधिक कष्टों को न्यौता नहीं देगा। यदि वह अपने विवेक का सहारा ले सके तो सब बन्धु-बान्धवों का जीवन बरबाद होने से बचा सकता है।
         मनुष्य को सदा आशा का दामन थामकर रखना चाहिए। इस बात को उसे स्मरण रखना चाहिए कि जब काले घने बादल आकाश पर छा जाते हैं तब वे शक्तिशाली सूर्य को भी आक्रान्त कर लेते हैं। दिन में ही रात होने का अहसास होने लगता है यानि घटाटोप अंधकार छा जाता है। उस समय बादलों के बरस जाने के बाद सूर्य मुस्कुराता हुआ फिर से आकाश में चमकने लगता है। सब कुछ साफ-साफ दिखाई देने लगता है।
           मनुष्य के जीवन में भी कठिनाइयों के पल यदा कदा आते रहते हैं। उसे निराश हताश करते हैं। सब बन्धु-बान्धवों से उसे अलग-थलग कर देते हैं। उसका अपना साया ही मानो पराया हो जाता है। अपने चारों ओर उसे निराशा के बादल घिरते हुए दिखाई देते हैँ। ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी सुख की चाह में मनुष्य को आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। अपने समय पर स्थितियाँ फिर से अनुकूल हो जाती हैं और मनुष्य की झोली में पड़े हुए काँटे फूलों में बदल जाते हैं।
           उस समय मुरझाया हुआ मनुष्य पुनः फूलों की तरह महकने लगता है। तब मनुष्य को कर्तापन के वृथा अहंकार को अपने पास फटकने भी नहीं देना चाहिए। जीवन की हर परीक्षा में तपकर कुन्दन की तरह और निखरकर सामने आना चाहिए। हर परिस्थिति में उसे उस मालिक का अनुगृहीत होना चाहिए। तभी मनुष्य को मानसिक और आत्मिक बल तथा शान्ति मिलती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 25 सितंबर 2018

अन्धेर नगरी

'अन्धेर नगरी चौपट राजा' का अर्थ यही है कि राजा यानी शासक मूर्खतापूर्ण और निरंकुश व्यवहार करता है तो वह नगर या देश अन्धेर नगरी का शिकार हो जाता है। राजा की तरह प्रजा भी लक्ष्यहीन होकर भटक जाती है। वहाँ शासन सुशासन न होकर कुशासन हो जाता है। सभी लोग एक-दूसरे के प्रति असहिष्णु हो जाते हैं। उन्हें किसी की भावनाओं की कद्र नहीं होती। ऐसे देश में लूटपाट, चोरबाजारी, भ्रष्टाचार, दूसरे का गला काटना आदि रोजमर्रा की बात हो जाती है।
          'अन्धेर नगरी चौपट राजा' हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का सर्वाधिक लोकप्रिय नाटक है। छह अंकों के इस नाटक में विवेकहीन और निरंकुश शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हुए उसे अपने ही कर्मों द्वारा नष्ट होते दिखाया गया है।     
         न्याय व्यवस्था का एक ऐसा चौपट उदाहरण आज हम एक कहानी के माध्यम से देखते हैं जिसके लेखक का नाम नहीं ज्ञात। इसमें 'अँधा बाँटे रेवड़ी फिर फिर अपने को देत' वाली बात चरितार्थ होती है। यह कथा बताती है कि जिससे स्वार्थ सिद्ध होता है, उसी के पक्ष में न्याय किया जाना चाहिए। थोड़े से परिवर्तन और भाषागत शुद्धियों के साथ कथा आप सबके लिए प्रस्तुत है।
         एक बार एक हंस और हंसिनी सुरम्य वातावरण में भटकते हुए, उजड़े वीरान और रेगिस्तान के इलाके में पहुँच जाते हैं। हंसिनी ने हंस से कहा- "ये किस उजड़े इलाके में हम आ गये हैं? यहाँ न तो जल है, न जंगल और न ही ठण्डी हवाएँ हैं। यहाँ पर हमारा जीना मुश्किल हो जायेगा।"
         भटकते-भटकते शाम हो गयी तो हंस ने हंसिनी से कहा- "किसी तरह आज की रात इस जंगल में बीता लो, सुबह हम लोग शहर की ओर लौट चलेंगे।"
         धीरे-धीरे रात घिर आई। जिस पेड़ के नीचे हंस और हंसिनी रुके थे, उस पर एक उल्लू बैठा हुआ था। वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा था। उसकी आवाज सुनकर हंसिनी ने हंस से कहा- "अरे! यहाँ तो रात में सो भी नहीं सकते। यहाँ उल्लू तो चिल्ला रहा है।"
         हंस ने फिर हंसिनी को समझाया- "किसी तरह रात काट लो, मुझे अब समझ में आ गया है कि ये इलाका वीरान क्यों है? ऐसे उल्लू जिस इलाके में रहेंगे वह तो वीरान और उजड़ा हुआ रहेगा ही।"
         पेड़ पर बैठा उल्लू दोनों की बातें सुन रहा था। सुबह हुई, उल्लू नीचे आया और उसने कहा- "हंस भाई, मेरी वजह से आप दोनों को रात में तकलीफ हुई, कृपया आप लोग मुझे माफ कर दीजिए।"
         हंस ने कहा- "कोई बात नही भैया, आपका धन्यवाद।"
          यह कहकर जैसे ही हंस अपनी हंसिनी को लेकर आगे बढ़ा पीछे से उल्लू चिल्लाया- "अरे! यह हंस मेरी पत्नी को लेकर कहाँ जा रहा है।"
          हंस चौंका- "उसने कहा, आपकी पत्नी? अरे भाई, यह हंसिनी है, मेरी पत्नी है, मेरे साथ आई थी, मेरे साथ जा रही है।"
          उल्लू ने कहा- "तुम झूठ बोल रहे हो, खामोश हो जाओ, ये मेरी पत्नी है।"
          दोनों के बीच विवाद बहुत बढ़ गया। पूरे इलाके के लोग एकत्र हो गये। कई गावों की जनता आकर बैठ गई। पंचायत बुलाई गयी। पंच लोग भी आ गये और बोले- "भाई, किस बात का विवाद है?"
          लोगों ने बताया कि उल्लू कह रहा है- "हंसिनी उसकी पत्नी है और हंस कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है।"
         लम्बी बैठक और पंचायत के बाद पंच लोग किनारे हो गये और उन्होंने कहा- "भाई, बात तो यह सही है कि हंसिनी हंस की ही पत्नी है, लेकिन ये हंस और हंसिनी तो अभी थोड़ी देर में इस गाँव से चले जाएँगे। हमारे बीच में तो उल्लू को ही रहना है। इसलिए फैसला उल्लू के ही हक में ही सुनाना चाहिए।"
         फिर पंचों ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा- "सारे तथ्यों और सबूतों की जाँच करने के बाद यह पंचायत इस नतीजे पर पहुँची है कि हंसिनी उल्लू की ही पत्नी है और हंस को तत्काल गाँव छोड़ने का हुक्म दिया जाता है।"
           यह सुनते ही हंस हैरान हो गया। वह रोने, चीखने और चिल्लाने लगा- "पंचायत ने गलत फैसला सुनाया है। यह उल्लू मेरी पत्नी पर जबर्दस्ती हक जता रहा है।"
           रोते-चीखते हुए जब वह आगे बढ़ने लगा तब उल्लू ने हंस को आवाज लगाई- "ऐ मित्र हंस, रुको।"
           हंस ने रोते हुए कहा- "भैया, अब क्या करोगे? मेरी पत्नी तो तुमने ले ही ली, अब क्या तुम मेरी जान भी लोगे?"
           उल्लू ने कहा- "नहीं मित्र, ये हंसिनी आपकी पत्नी थी, है और रहेगी। लेकिन कल रात जब मैं चिल्ला रहा था तो आपने अपनी पत्नी से कहा था कि यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ उल्लू रहता है। मित्र, ये इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए नहीं है कि यहाँ उल्लू रहता है। यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ पर ऐसे पंच रहते हैं जो उल्लुओं के हक में फैसला सुनाते हैं।"
         इस कथा को लिखने का उद्देश्य मात्र इतना है कि शासक को अपने राजधर्म का पालन सदा ईमानदारी और सच्चाई से करना चाहिए। उसे नीर-क्षीर विवेकी होना चाहिए। दूसरों की बातों में नहीं आना चाहिए यानी कान का कच्चा नहीं होना चाहिए। उसके लिए पारदर्शिता का होना बहुत आवश्यक होता है। राजा यदि उच्च चरित्रवान होगा तो प्रजा भी तदनुसार आचरण करेगी क्योंकि शासक को पितातुल्य माना जाता है। उसे अपनी प्रजा के साथ सहृदयता और समानता का व्यवहार करते हुए आदर्श स्थापित करना चाहिए।
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