सोमवार, 30 नवंबर 2015

पगला मन मेरा

पगला मन मेरा
फूलों की तरह ही
नित मुस्कुराना और
भंवरों की तरह गुनगुनाना चाहता है

यह दिन-रात
नदी जैसी मस्ती में
निरन्तर बहना चाहता है
सारी बाधाओं को पार करना चाहता है

प्रात: पक्षियों के
मनमोहक कलरव
सुनकर यह दीवाना
चहुँ ओर चहकते हुए उड़ना चाहता है

यह मन मयूर
बादल की गरज
सुन करके मस्ती में
इधर-उधर झूमते हुए नाचना चाहता है

चातक पक्षी-सा
वर्षा की पहली बूँद
का आस्वादन करके
आनन्दित हो मत्त हो जाना चाहता है

सोचती हूँ अब
कैसे समझाऊँ मैं
इस पगले दीवाने को
मेरी कोई बात नहीं मानना चाहता है

यह नहीं जानता
इसकी मनोकामनाएँ
असीम हैं शायद यहाँ
पूर्ण नहीं होंगी कोई बताना चाहता है

पर यह है कि
किसी भी सूरत
नहीं समझना चाहता
बहुत मासूम, अल्हड़ बनना चाहता है

मैं अक्सर ही
सोचती हूँ कि आज
खत्म हो रही मस्ती को
यह अब प्रसन्नता से पाना चाहता है

शुभकर्मों से
मिल पाया यह
जीवन है तो अब सारी
ऊँचाइयाँ छू ले, ये मेरा दिल चाहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

रविवार, 29 नवंबर 2015

अग्नि

अग्नि का गुण जलाना होता है। हम इसे छू नहीं सकते। हम जानते हैं कि इस पर हाथ रखेंगे तो वह जल जाएगा और फिर बहुत कष्ट देगा। उष्णता, तेज और प्रकाश इसके स्वाभाविक गुण होते हैं। अग्नि से हमारा जीवन चलता है। हम हर प्रकार के अन्न को इसी के माध्यम से पकाकर खाते हैं और स्वादिष्ट भोजन का आनन्द लेते हैं।
          यदि यह अग्नि न होती तो हम आज भी आदि मानव की तरह पेड़ों से तोड़कर सब कच्चा ही खाते। इसी अग्नि के कारण हम जीवन में सभी प्रकार की सुख और सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं। हमारे घर और बाहर हर ओर रौशनी होती है।
         अग्नि तीन प्रकार की मानी जाती है- दावानल, बड़वानल और जठराग्नि।
दावानल जंगल में लगने वाली आग होती है जो जरा-सी हवा चलने पर बड़े-बड़े जगलों को जलाकर राख कर देती है। उसमें बड़े-बड़े वृक्ष, पशु और पक्षी जलकर खाक हो जाते हैं। बड़वानल समुद्र में लगने वाली आग को कहते हैं। पानी की यही आग है जिससे हम बिजली बनाते हैं और जीवन का आनन्द लेते हैं।
        जठराग्नि मनुष्य के शरीर में होती है। यह भोजन को अच्छे से पचाने में सहायता करती है। शरीर की अग्नि जब सुचारू रूप से काम करती है तब मनुष्य के चेहरे पर तेज चमकता है उसकी रौनक ही अलग दिखाई देती है। युवावस्था में प्राय: लोगों के चेहरों पर हम देख सकते हैं। अपने जीवन को संयमित रखने वालों के चेहरों पर तेज हमेशा दिखाई देता है।
        यदि यह अग्नि शरीर में बढ़ जाए तो बहुत-सी परेशानियों को जन्म देती है। मनुष्य का चेहरा लाल हो जाता है। पसीना भी बहुत अधिक आने लगता है। एसिडिटी और रक्त संबंधी दोष शरीर में हो जाते हैं।
शरीर में जलन होने लगती है। जरा-सी ठंड लग जाने पर खाँसी-जुकाम जैसी परेशानी हो जाती है।
          बारबार छींकते रहना पड़ता है। आवाज भारी हो जाती है और गला बैठने लगता है। यदि शरीर की अग्नि मन्द हो जाती है तो मनुष्य का चेहरा कान्तिहीन हो जाता है। उस समय उसे बहुत से रोग घेर लेते हैं। उसकी पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है जिससे उसका भोजन पच नहीं पाता। पेट की बहुत-सी बिमारियों से मनुष्य घिर जाता है। पेट खराब हो जाने से खाने-पीने के परहेज करने पड़ते हैं।
        कभी घरों, बाजारों या फैक्टरियों आदि में आग लग जाए तो कितना नुकसान कर देगी पता नहीं। न जाने कितने ही लोगों की जान भी चली जाती है।
         यह अग्नि किसी को भी क्षमा नहीं करती जो इससे घिर जाता है वह फिर भस्म हो जाता है परन्तु जब यह बुझ जाती है तो चींटियाँ भी इस चलने लगती हैं। इसी प्रकार मनुष्य जब रोगों से घिर जाता है तो वह भी तेजहीन हो जाता है। उसका चेहरा पीला या सफेद पड़ जाता है। उस समय वह सामर्थ्यहीन होकर ईश्वर से अपनी मृत्यु की गुहार लगाता है।
          अग्नि के प्रभाव से विभिन्न पदार्थ रूप परिवर्तित करते हैं। अग्नि हमेशा ही शुद्ध होती है। इसमें कैसा भी कचरा डाल दो उसे भस्म कर देती है। इसी अग्नि में ही शव का दाह संस्कार भी करते हैं। किसी वस्तु अथवा विचार की शुद्धता की परीक्षा अग्नि में तपने के बाद ही होती है। यह रूक्ष होती है। अग्नि संयोग और वियोग दोनों का ही कारण भी होती है। कहने का तात्पर्य है कि स्त्री और पुरुष के प्रेम का आधार अग्नि तत्त्व होता है। इसके मन्द पड़ जाने पर अलगाव की स्थिति बन जाती है।
         अग्नि हर स्थान पर अपनी शुद्धता को दर्शाती है। इसके न होने पर इसके तेज, प्रकाश और ताप से ही इस सृष्टि का जीवन है। इसके न होने पर चारों ओर अंधकार तथा शीत का प्रकोप हो जाएगा जिसके कारण इस जीव जगत का अस्तित्व ही नहीं रहेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

शनिवार, 28 नवंबर 2015

वायु का जीवन पर प्रभाव

वायु के प्रकोप पर चर्चा करते हैं। वैसे तो वायु हमारी जीवनी शक्ति है। इसके बिना हम एक पल भी नहीं रह सकते। इसके न होने की स्थिति में सब समाप्त हो जाता है, ब्रह्माण्ड में कुछ भी शेष नहीं बचता। वायु जहाँ हमें सुख देती है वहीं बहुत सारे कष्ट भी देती है चाहे वह हमारे शरीर के अन्दर हो या ब्रह्माण्ड में। इसके साथ छेड़छाड़ हमेशा ही हमें बहुत मंहगी पड़ती है। फिर भी हम नहीं सुधरते।
           वायु शरीर रूपी यन्त्र और शरीर के अव्ययों को धारण करती है। इस वायु का गुण सुखाना होता है। यह रुक्षता पैदा करती है। यही मन को भी चंचल बनाती है। शरीर से जब प्राणवायु निकलती है तो वह मिट्टी हो जाता है।
          जब हमारे शरीर के भीतर की वायु बिगड़ने लगती है तब पेट में अफारा हो जाता है, पेट फूल जाता है। डकारें और पाद आने लगते हैं। अर्थात ऊपर और नीचे से हवा निकलने लगती है। कभी-कभी मनुष्य को हिचकियाँ आने लगती हैं। इसी प्रकार शरीर के अंग यानि हाथ, पैर और गर्दन आदि हिलने लगते हैं।
         दूसरे शब्दों में कहे तो पार्किन्सन रोग हो जाता है। कुछ लोगों की आँख, कुछ के गाल और कुछ के होंठ भी चलने लगते हैं। इन सबसे भी अधिक कष्टकारी वह स्थिति होती है जब मनुष्य के शरीर में लकवा मार जाता है जिससे वह अपाहिज की तरह बिस्तर पर पड़ जाता है। स्वय कुछ भी नहीं कर पाता बल्कि वह दूसरों की कृपा का मोहताज हो जाता है। उस समय वह ईश्वर से अपने लिए मौत की गुहार लगता है। इसके कारण हृदय रोग तथा मस्तिष्क रोग भी होते हैं।
           प्रकृति से छेड़छाड़ करने पर वायु वायु बिगड़ जाती है जिसके कारण से झंझावात आता है। तब सब तहस-नहस होने लगता है। आँधी-तूफान बरबादी करने लगते हैं। हर ओर प्रलंयकारी स्थिति बनने लगती है। ब्रह्माण्ड में वायु तब बिगड़ती है जब हम उसे प्रदूषित करते हैं।
        तब उसी प्रदूषित वायु का सेवन करने से हम अनेक रोगों की चपेट में आ जाते हैं। साँस की बिमारियाँ इसी प्रदूषित वायु का उपहार हैं। श्वास नली के कैंसर जैसे भयंकर रोगों तक की चपेट
हमारे शरीर की वायु हो या हमारे ब्रह्माण्ड की वायु उन दोनों को दूषित करने के दोषी हम स्वयं हैं। गलत खान-पान का परिणाम होता है शरीर की वायु का दूषण जो समय-समय पर रोग के रूप में आकर हम लोगों को चेतावनी देती रहती है। पहले हम जीभ के चटोरेपन के कारण आवश्यकता से अधिक खा लेते हैं या फिर वे खाद्य खाते हैं जिनका हमें परहेज करना चाहिए। उन्हें खाकर बीमार पड़ते हैं।
          इसके कुपित हो जाने पर बीज फल के रूप में परिणत नहीं हो पाते। ऋतुओं के क्रम को भी वायु ही बिगाड़ती है।
           हमारे गलत रहन-सहन का कारण होता है वायु प्रदूषण। हम अपने सुविधा पूर्वक आवागमन के लिए विभिन्न प्रकार के वाहनों का प्रयोग करते हैं जिसके कारण नित्य वायुप्रदूषण बढ़ता रहता है। अपनी जरूरत की वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए फैक्टरियाँ लगाते हैं जिनका धुँआ भी वायु को दूषित करता है। अपने घरों और दफ्तरों आदि को सुरक्षित करने और उन्हें सजाने तथा दैनन्दिन आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु कागज के लिए हम पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई करते जाते हैं जो वायु को दूषित करने का प्रमुख कारण बन जाता है। इस प्रदूषित वायु से हम रोगों को आमन्त्रण देते हैं।
         इस प्रकार शरीर और वातावरण दोनों ही प्रकार की वायु को दूषित करके हम रोगों की चपेट में आ जाते हैं। तब हम डाक्टरों के पास जाकर अपना समय और धन दोनों बरबाद करते हैं।
          वायु का स्थान ईश्वर के समान है। यह अव्यय भी है और अविनाशी है। यह प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश का कारण है। वायु सुख और दुख का कारण है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

माता पिता के चरणों में संसार

निर्विवाद सत्य है कि माता-पिता का स्थान संसार में सबसे ऊपर है। ईश्वर को हम लोगों ने कभी नहीं देखा परन्तु हाँ, उसकी उपस्थिति को हम हर कदम पर अनुभव करते हैं। माता-पिता साक्षात ईश्वर का स्वरूप हैं जो उसे इस पृथ्वी पर लाने का महान कार्य करते हैं। आजन्म उनकी सेवा करके भी मनुष्य उनके इस ऋण से उऋण नहीं नहीं हो सकता। जो मनुष्य उन्हें ईश्वर की तरह मानते हुए उनका हर प्रकार से ध्यान रखता है और उनका सम्मान करता है उसे सभी प्रकार के सुख-साधन ईश्वर उन्हें देता है।
          इनका दिल दुखाने के विषय में तो सोचना भी अपराध है। वे मनुष्य सारा जीवन परेशान रहते हैं जो अपने माता-पिता की अवहेलना करते हैं। मात्र दिखावा करने से उनकी सेवा नहीं की जा सकती। उसके लिए मन में पूर्ण श्रद्धा रखनी आवश्यक होती है। यहाँ मुझे एक कथा याद आ रही है।
        कथा कहती है कि कभी किसी समय देवताओं के मध्य यह विवाद उत्पन्न हुआ कि सबसे पहले पूजा किसकी हो? इसलिए सभी देवता मिलकर ब्रह्मा जी के पास गए और उनके समक्ष अपनी समस्या रखी। तब ब्रह्मा जी ने कहा कि जो देवता समस्त पृथ्वी की परिक्रमा करके सबसे पहले लौटकर आएगा, सभी देवों में उसकी उपासना पहले की जाएगी।
          सभी देवगण अपने लक्ष्य का संधान करने के लिए चल पड़े। गणेश जी अपने वाहन मूषक के साथ वहीं रुके रहे। यह देखकर देवर्षि नारद परेशान हो गए कि गणेश जी परिक्रमा के लिए क्यों नहीं जा रहे। उनका वाहन मूषक है जो धीरे-धीरे चलता है फिर भी उन्हें कोई चिन्ता नहीं है हारने की। नारद जी ने जब उनसे इसका कारण पूछा तो गणेश जी ने अपने माता-पिता यानि कि भगवान शंकर और भगवती पार्वती की परिक्रमा की और कहा कि मेरी परिक्रमा तो पूर्ण हो गई।
          पूछने पर उन्होंने बताया कि माता-पिता के चरणों में ही मेरा सारा संसार है। अतः मुझे अन्यत्र कहीं भी जाने की आवश्यकता ही नहीं है।
         अपने माता-पिता की परिक्रमा करके गणेश जी सबसे पहले ब्रह्मा जी के पास पहुँचे। सभी देवता जब लौटे तो गणेश जी के वाहन मूषक के पैरों के निशान देखकर वे हैरान हो गए कि गणेश जी सबसे पहले परिक्रमा करके कैसे लौट आए? तब ब्रह्मा जी ने बताया कि गणेश जी ने अपने माता-पिता की परिक्रमा करके मानो सारे संसार की परिक्रमा कर ली हैं। उनकी इसी मातृ-पितृ भक्ति के कारण ही किसी भी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान का सम्पादन करते सब देवताओं में सबसे पहले गणेश जी वन्दना की जाती है।
         यह कथा हमें समझाती है कि माता-पिता के चरणों में सम्पूर्ण जगत है, जो इस सत्य का मनसा पालन करता है उस जैसा मनुष्य तो इस धरा पर कोई और हो नहीं सकता। माता-पिता घर-परिवार का आधार स्तम्भ होते हैं। ये वह धुरी होते हैं जिनके ईर्दगिर्द परिवार का पहिया घूमता रहता है। इसीलिए कहा जाता है- 'माता-पिता की बादशाही होती है और भाई-बहनों का व्यापार।'
          माता-पिता की सेवा और अर्चना को  महत्त्व देते हुए निम्न श्लोक कहता है-
येन माता पिता सेव्या पूजिता वा
मन्दिरे तेन पूजा कृता वा न वा॥
अर्थात जो मनुष्य माता-पिता की सेवा और पूजा करता है वह मन्दिर जाकर पूजा करे अथवा न करे।
           हमारे शास्त्र भी यही मानते हैं कि मन्दिर में मूर्तियों के आगे माथा टेको या नहीं पर घर में जीवित विद्यमान साक्षात ब्रहम रूप माता और पिता की पूजा-अर्चना अवश्य करो। पूजा-अर्चना का अर्थ थाली सजाकर पूजा करना नहीं बल्कि उनकी आवश्यकताओं को पूर्ण करना और उन्हें यथोचित मान-सम्मान देना है। अपने लोक-परलोक को सुधारने के लिए कृत संकल्प हो
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 26 नवंबर 2015

वायुमंडल में नकारात्मक हवा

वायुमण्डल में चारों ओर ही नकारात्मक बयार बह रही है। इसका गहरा प्रभाव हम सबके तन यानि स्वास्थ्य, मन, धन और मस्तिष्क सब पर  हो रहा है।
          सबसे पहले हम तन की चर्चा करते हैं। पर्यावरण के दूषित होने कारण हमारे शरीर पर प्रभाव पड़ता है। गाड़ियों, एसी, फेक्टरियों आदि के धुँए के कारण दूषित वायु के चलने से साँस संबंधी बिमारियों से बहुत लोग झूझ रहे हैं। हमारी नदियों को कारखानों का कचरा और सीवर का गंदा पानी दूषित कर रहा है। इससे पेट संबंधी बिमारियों से लोगों को न चाहते हुए झूझना पड़ रहा है।
           हमारे खाद्यान्नों, सब्जियों और फलों आदि पर इस दूषित जल के कुप्रभाव तथा खेती में किसानों द्वारा डाले गए उन जहरीले कीटनाशक रासायनिकों के कारण ये सब खाने योग्य नहीं है परन्तु फिर भी हम खा रहे हैं। इसलिए जन साधारण को कैंसर जैसे अनेकानेक असाधारण रोग दिन-प्रतिदिन पीड़ित कर रहे हैं।
           वाहनों के बढ़ते शोर, समय-असमय बजने वाले डीजे व बैंड-बाजे की कनफाड़ू धुनों से हमारे कानों से सबंधित बिमारियाँ बढ़ रही हैं।
           ईश्वर ने हमारे चंचल मन को बहुत ही संवेदनशील बनाया है। जरा से भी नकारात्मक विचार इसे मथने लगते हैं और यह व्याकुल हो जाता है। चारों ओर ही निराशा का माहौल पसरा हुआ है। समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, अपहरण, लूट, बलात्कार, हत्या जैसी जघन्य घटनाएँ निराशा को जन्म देती हैं। राजनैतिक उठा-पटक भी नित्य ही विचलित करने में पीछे नहीं रहती।
         इन सब घटनाओं को पढ़कर और सुनकर मन तार-तार होने लगता है। दूसरा कारण मन के पीड़ित होने का है बिमारियों की चपेट में आना। शरीर जब किसी भी कारण से अशक्त हो जाता है तब मनुष्य लाचार हो जाता है और दूसरों पर आश्रित हो जाता है।
         ऐसी स्थिति में मन में निराशा के भाव आना स्वाभाविक होता है।
          इस सबके अतिरिक्त कुछ फिल्मी गीतों में भी निराशा के भाव झलकते रहते हैं। कमप्यूटर पर खेले जाने वाले साहसिक खेल बच्चों को आत्महत्या करने के लिए उकसाते हैं जिनकी चर्चा टीवी सीरियलों, समाचार पत्रों आदि में समय-समय पर होती रहती है। ये सभी कारण मानव मन को विचलित करने के लिए पर्याप्त होते हैं। अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं को ताबड़तोड़ बढ़ती मंहगाई के कारण पूर्ण न कर पाना भी मानसिक अवसाद का एक बड़ा कारण बन जाता है। इस तरह मन का अस्वस्थ होना अनेक मनोरोगों को जन्म देता है।
           धन बेचारा क्या-क्या करे? मनुष्य की दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करे या हर रोज बीमार पड़ जाने पर डाक्टरों के पास जाकर व्यय हो जाए। अब शरीरिक और मानसिक रोगों का इलाज करवाना भी तो जरूरी है। दिन-रात एक करके और खून-पसीने से कमाए धन को और समय को डाक्टरों के पास जाकर खर्च करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। फिर भी कोई गारन्टी नहीं है कि मनुष्य पूर्णरूपेण स्वस्थ हो ही जाएगा।
         सरकार कितने ही कड़े कानून क्यों न बना ले उससे कोई हल नहीं निकल सकता जब तक हम स्वयं जागरूक नहीं होंगे। बहुत-सी समाजसेवी संस्थाएँ अपने-अपने स्तर पर हमें जगाने का प्रयास करती रहती हैं। सरकार भी विज्ञापनों के माध्यम से भी जन जागरण का यत्न करती है। फिर भी इच्छाशक्ति और विश्वास की शायद कहीं कमी रह जाती है। इसीलिए ये परेशानियाँ हम सब लोगों को झेलनी पड़ती हैं।
           एवंविध वायुमण्डल व पर्यावरण को दूषित करने के दोषी हम सभी लोग हैं। इसका निदान भी हम सबको मिलकर ही खोजना होगा। अपने तुच्छ स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचना ही मानवता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 25 नवंबर 2015

एकल परिवार

एकल परिवार में रहने वाले बच्चों को प्राय: माता और पिता दोनों का ही सारा प्यार व दुलार मिलता है। वहाँ उनके सारे नखरे भी उठाए जाते हैं। परिवार के सीमित होने के कारण बच्चों की ओर माता-पिता का पूरा ध्यान रहता है। बच्चों की हर छोटी-बड़ी जायज-नाजायज माँग को पूरा करने में माता-पिता कोई कसर नहीं रखते। वहाँ बच्चों को बिगाड़ने में माता-पिता दोनों की बराबर की भूमिका रहती है।
           एकल परिवार के बच्चे अपेक्षाकृत अधिक जिद्दी व नकचढ़े होते हैं। अपनी जरा-सी जिद पूरी न होने पर सारे घर को सिर पर उठा लेते हैं। तोड़-फोड़ करना और घर के सामान को इधर-उधर फैंकना, रूठकर मुँह फुला लेना इन बच्चों के लिए मामूली बात होती है। जब तक माता-पिता उनकी जिद पूरी न करें अथवा पूरी करने का आश्वासन न दे दें तब तक ये सब चलता है।
        अकेले रहने के कारण वे दूसरे बच्चों को बर्दाशत नहीं कर पाते। उनके साथ अपने खिलौने तथा अन्य वस्तुएँ साझा करने में उन्हें अच्छा नहीं लगता।
         संयुक्त परिवारो में रहने वाले सबके साथ मिल-जुलकर रहना देखा-देखी स्वयं ही सीख जाते हैं। इन बच्चों के स्वभाव में अपेक्षाकृत रिश्तों की समझ अधिक होती है और वे उन्हें अच्छे से निभाते हैं।
         ये बच्चे किसी के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते। असल में इसके लिए इन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। वास्तव में ये बच्चे अकेले घरों में रहते हैं जहाँ सब इनकी मरजी से चलता है। घर में यदि कुछ मेहमान आ जाएँ तो वे बेचैन होने लगते हैं। सबके आ जाने पर बातचीत से होने वाले शोर से वे प्राय: दूर रहना चाहते हैं। दूसरों की उपस्थिति में वे सदा असहज अनुभव करते हैं। इसलिए बारबार अपने माता-पिता से यही प्रश्न पूछते रहते हैं कि आए हुए मेहमान कब जाएँगे।
         आज इक्कीसवीं सदी में शिक्षा के प्रचार-प्रसार होने से युवावर्ग के शिक्षित होने के कारण तथा बढ़ती मंहगाई के चलते पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने की जद्दोजहद करनी पड़ती है। घर में समृद्धि भी आवश्यक होती है। इसलिए एकल परिवारों में माता और पिता दोनों ही अपनी रोजी-रोटी के कारण बहुत व्यस्त रहते हैं। इसलिए उनके बच्चे प्राय: क्रच में पलते हैं अथवा नौकरों की देखरेख में।
        क्रच में तो फिर भी अनुशासन रखना पड़ता है। वहाँ पर बच्चों को खाना-पीना, सोना-जागना, खेलना आदि सभी कार्य समय पर करने होते हैं। यदि वहाँ पर ऐसा न किया जाए तो वे अपना व्यवसाय ठीक से नहीं चला सकते।
      परन्तु नौकरों के पास पलने वाले बच्चों की परिस्थतियाँ विपरीत होती हैं। वहाँ बच्चे अपनी मनमानी करते हैं। वे जानते है कि नौकर उन्हें कुछ कह नहीं सकते। यदि जरा-सा भी कुछ नौकर कह दें तो फिर उनकी शामत आ जाती है। इसलिए वहाँ बच्चे नौकरों को दिनभर सताते रहते हैं और नचाते रहते हैं।
          संयुक्त परिवारों में ऐसी समस्याएँ न के बराबर होती हैं। वहाँ बच्चे बड़ों की देखा-देखी स्वयं ही बहुत कुछ सीख जाते हैं।
            आज परिस्थतियों के चलते एकल परिवार समय की माँग बन रहे हैं। माता-पिता को यह ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे इतना अधिक हाथ से न निकल जाएँ जो आने वाले समय में वे उनके अपने लिए तथा समाज के लिए सिरदर्द बन जाएँ।
         माता-पिता का दायित्व है कि जब भी समय मिले बच्चों को अपने पास बिठाकर संस्कारित करें। सभी लोगों को यह बात सदा स्मरण रखनी चाहिए कि बच्चे केवल उनके नहीं हैं अपितु घर-परिवार एवं देश-समाज की अमानत भी हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 24 नवंबर 2015

बच्चों को न कहें

माता-पिता का दायित्व है कि अपने बच्चों को वे न सुनने की आदत डालें। इससे घर में शान्ति बनी रहती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि बच्चा जब भी कुछ माँगे उसे न कह दिया जाए।
          बच्चे का क्या है वह तो बाजार की हर वस्तु खरीदना चाहता है चाहे वे उसके काम की हो या नहीं। ऐसा करना किसी भी माता-पिता के लिए भी सम्भव नहीं होता। इतनी मंहगाई में उन्हें घर का बजट भी देखना होता है और सुख-दुख के लिए कुछ बचाना भी होता है। इसके अतिरिक्त  बच्चों की शिक्षा और अपने बुढ़ापे के लिए कुछ बचत करनी होती है।
          कभी-कभी बच्चे ऐसी वस्तु की माँगकर बैठते हैं जिसे खरीदना माता-पिता के लिए सम्भव नहीं हो पाता। उस समय उन्हें चाहिए कि वे अपने बच्चे को प्यार से समझाइए। उसे अपनी स्थिति से अवगत कराइए। यदि बच्चा समझ जाए तो ठीक है अन्यथा दृढ़ता से न कर दीजिए।
         बच्चे माता-पिता के लिए अमूल्ल दौलत होते हैं। उनकी सुख-सुविधाओं को पूरा करने के लिए वे दिन-रात एक करते हैं। कोई नहीं चाहता कि उनके बच्चो को कभी गरम हवा का झौंका भी परेशान कर पाए।
           कहने का तात्पर्य है कि आप अपने बच्चे की सभी जायज आवश्यकताओं और माँगो को पूरा कीजिए। यदि आपको लगता है कि कोई माँग अनावश्यक है तो दृढ़ता पूर्वक उसे नकार दीजिए। उस समय वह चाहे कितनी भी जिद करे उसे अनदेखा कीजिए और पिघलिए मत।
         यदि एक बार उसको न कहने के बाद उसकी जिद या रोने-धोने पर आपने उसकी बात मान ली तो हमेशा के लिए समस्या हो जाएगी। वह सोचेगा कि एक बार कहने पर वस्तु नहीं मिली तो आसमान सिर पर उठा लेने से मिल जाएगी। परन्तु यदि आप अपने कथन पर अमल करेंगे तो बच्चा समझ जाएगा कि वह कुछ भी जुगत भिड़ा ले यहाँ दाल गलने वाली नहीं है।
          एक-दो बार ऐसा करने पर धीरे-धीरे स्वयं ही बच्चे को समझ में आ जाएगा कि उसकी सारी फरमाइशों को पूरा नहीं किया जा सकता। उसके रोने-धोने अथवा जिद-बहस करने का कोई लाम नहीं होगा। फिर वह भविष्य में ऐसा व्यवहार नहीं करेगा। बच्चों को भी यह बात अच्छी तरह सख्ती से समझानी आवश्यक है कि माता-पिता के हाँ कहने का अर्थ होता है हाँ और उनके न कह देने का मतलब न होता है।
        आज इक्कीसवीं सदी के बच्चे बहुत ही समझदार हैं। वे अपनी हद जानते हैं और उन्हें यह भी पता है कि उनके माता-पिता कहाँ तक उनकी बात मानेंगे और वे कहाँ तक उन्हें झुका सकते हैं। इसलिए वे बार-बार ऐसी नाजायज माँग नहीं करेंगे जिसके लिए उन्हें न सुनने को मिले।
          माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को जिद करने या रोने-धोने का अवसर ही न दें। आदर्श स्थिति तो यही है कि जिन वस्तुओं की उन्हें सचमुच आवश्यकता है उन्हें उनके माँगने से पहले ही लाकर दें। यदि किसी कारणवश आप ऐसा नहीं कर पाए तब उनके कहते ही खरीद दें। ऐसी स्थिति में घर में सदा सौहार्द का वातावरण बना रहता है।
         मेरा अपना मत है कि बच्चों को यदि घर की वास्तविक स्थिति की जानकारी हो तो उन्हें अपने माता-पिता के न कहने का अर्थ समझ में आ जाएगा। फिर वे न तो अनावश्यक माँग करके माता-पिता को परेशान करते हैं और न ही फालतू की जिद करते हैं।
            बच्चे आपके अपने हैं, उन पर आपका पूरा अधिकार है। उनसे डरने या उन्हें डराने की आवश्यकता नहीं है। उनके साथ मित्रवत व्यवहार कीजिए। बच्चों को अपने विश्वास में लीजिए, उनसे दूरी मत बनाइए। अपने पास बिठाकर समय-समय पर उनसे चर्चा करते रहिए। कोई-न-कोई सकारात्मक हल अवश्य ही निकल आएगा।