मंगलवार, 31 जुलाई 2018

बच्चों के हाथ में मोबाइल

बच्चों का जमाना मोबाइल फोन का है। यह बच्चों की पहली पसन्द है।इसका प्रचलन इतना बढ़ गया है कि आज बच्चे नशे की हद तक इसके प्रयोग कर रहे हैं। फोन का प्रयोग करके वे ओवर स्मार्ट बनते जा रहे हैं। उनका इस सीमा तक मोबाइल फोन का प्रयोग करना उनके लिए घातक सिद्ध हो रहा है। उनका बस चले तो वे चौबीसों घण्टे फोन पर लगे रहें। उनका खाना-पीना, खेलना सब इस मोबाइल की बदौलत हो रहा है।
         घर में यदि कोई मेहमान आ जाए, उन्हें कोई मतलब नहीं होता। उन्हें नमस्कार करना भी उन्हें भारी पड़ता है। वे उठते हैं और दूसरे कमरे में चले जाते हैं। यानी घर में भी किसी से बात करने के लिए राजी नहीं होते। यदि उन्हें बाजार से कुछ सामान लाने के लिए कह दिया जाए तो वे प्रसन्न होकर नहीं जाते बल्कि भुनभुनाते हुए चल पड़ते हैं।
         आजकल माता-पिता की व्यस्तता के कारण बच्चे प्रभावित हो रहे हैं। वे अकेले होते हैं तो सारा समय मोबाइल पर लगे रहते हैं। इससे उनकी पढ़ाई पर असर पड़ रहा है। वे अपनी कक्षा में पिछड़ रहे हैं। घर और स्कूल दोनों स्थानों पर उन्हें डाँट कहानी पड़ती है। इस कारण वे अकेलेपन और अवसाद का शिकार हो रहे हैं। ऐसे में उन्हें अपने माता-पिता के साथ की आवश्यकता होती है, जिसका उनके पास अभाव है। इसलिए माता-पिता की सहानुभूति भी उन्हें नहीं मिल पाती।
         मोबाइल भी बहुत बड़ी समस्या बनती जा है। खास कर छोटे बच्चों में। छोटे बच्चों को नाश्ता कराने या भोजन खिलाने के लिए माताएँ नर्सरी राइम्स लगा देती हैं। इससे बच्चे बिना किसी परेशानी के खा लेता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि बच्चे को बोलना भी नहीं आता पर मोबाइल चलाना आता है। उसकी अंगुलियाँ बड़ी तेजी से मोबाइल पर चलती हैं। यदि उससे फोन वापिस लिया जाए तो वह सारे घर को सिर पर उठा लेता है। कभी-कभार गुस्से में आकर वह मोबाइल को उठाकर पटक देता है, इससे मोबाइल को हानि पहुँचती है, कभी-कभी वह टूट जाता है।
           पिछले दिनों किसी ऑनलाइन खतरों वाला खेल को खेलते हुए कई बच्चों की जान चली गई। वे लोग ऐसे ही बच्चों को अपने जाल में फँसाते हैं जिनके माता-पिता के लिए इनके पास समय नहीं होता। वे आसानी से उनके शिकार बनकर अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं।
           उसे घर के हर सदस्य का फोन चाहिए होता है। बच्चा बिना किसी की सहायता लिए अपनी पसन्द के कार्टून लगा लेता है। उसे देखते-देखते वह कार्टून कैरेक्टर की तरह व्यवहार करने लगता है। समझ न होते हुए भी किसी को मैसेज कर देता है और कभी किसी अनजान को फोन मिला देता है। आज प्रायः बच्चे ऐसे ही स्वभाव के होते जा रहे हैं। यह वास्तव में बहुत ही चिन्ता का विषय बनता जा रहा है।
          बच्चे मित्रों के साथ बाहर खेलने नहीं जाते। उसके स्थान पर टीवी और फोन से चिपके रहते हैं। इस कारण शरीरिक व्यायाम न करने के कारण वे मोटापे का शिकार हो रहे हैं। छोटे बच्चों की आँखों पर मोटे-मोटे चश्मे लग रहे हैं। डॉक्टर के पास यदि बच्चे को ले जाएँगे तो वह भी बच्चे को समय देने का ही सुझाव देगा।
          थोड़ा बड़ा होने पर जब बच्चा अपना अधिक समय पढ़ाई की ओर न देकर फोन पर लगा रहता है, तब उसको डाँट-फटकार सुननी पड़ती है। उस समय उसे समझ नहीं आता कि उसकी गलती क्या है? वह तो बचपन से ही इस तरह करता आ रहा है।
          इस बीमारी से बचने के लिए आरम्भ से ही बच्चों के फोन को प्रयोग करने का समय निश्चित कर देना चाहिए। इससे कुछ सीमा तक इस समस्या से बचा जा सकता है। बच्चों का क्या है, वे तो परेशान करेंगे ही, रोना-धोना भी होगा, यदि नियमों का कड़ाई से पालन किया जाए तो उन्हें समझ में आ जाएगा कि उनके लिए क्या उचित है और क्या अनुचित है।धीरे-धीरे इसका परिणाम सकारात्मक होगा।
           पूरा सप्ताह यदि माता-पिता व्यस्त रहते हैं तो भी घर आकर उन्हें बच्चों से बात करनी चाहिए। उनकी समस्याओं को सुनना चाहिए। अवकाश के दिन उन्हें अधिक समय देना चाहिए। यदि सम्भव हो तो कभी पिकनिक जाने या घूमने का कार्यक्रम बनाना चाहिए। इस प्रकार बच्चे मार्ग से भटकने से बच सकते हैं। वे माता-पिता, परिवार और देश का गौरव बन सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 30 जुलाई 2018

अँधेरे से डर

अन्धकार से बच्चों को ही नहीं बड़ों को भी डर लगता है। कहने और सुनने में भले ही हमें विचित्र लगे परन्तु यह सच्चाई भी है और वास्तविकता भी। बचपन से ही मनुष्य अन्धेरे से डरने लगता है। बच्चे को यदि अन्धेरे में जाने के लिए कहा जाए तो वह साफ इन्कार कर देता है। यदि गलती से कहीं अन्धेरे का उसे सामना करना पड़े तो वह चीख-पुकार मचता है। अपने घर के सभी सदस्यों को रोते हुए पुकारता है। उसे लगता है कि कोई आ जाएगा और उसे उस अन्धकार से मुक्ति मिल जाएगी।
         बड़े होने के बाद भी कुछ लोगों के मन से बचपन का बैठा हुआ ये डर निकल नहीं पाता। वे बड़े होने के बाद भी अन्धेरे से डरते हैं। उससे लड़ने का कभी प्रयास नहीं करते। उन्हें यह कहते हुए जरा भी झिझक नहीं होती कि उन्हें अन्धेरे में जाने से डर लगता है। वे सदा किसी ऐसे साथी की तलाश में रहते हैं जो उन्हें अन्धकार के उस डर से बचा सके। उसकी सहायता ले करके वे अपना कार्य पूर्ण करने का प्रयत्न करते हैं।
        मनुष्य जब इस असार संसार में जन्म लेता है, उस समय उसे अन्धकार से बाहर निकालकर आना होता है। माँ के गर्भ में नौ मास तक वह अन्धेरे में व्यतीत करता है। उस वातावरण से घबराकर वह ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उसे अन्धकार से मुक्त करे। बच्चा जब जन्म लेता है तब उसके पश्चात शायद यही कारण हो सकता है कि वह अन्धकार से डरता है। उससे छुटकारा पाने के लिए रोता है।
       बड़े होने के बाद धीरे-धीरे मनुष्य का यह डर कम होने लगता है। फिर उसके जीवन में एक दिन ऐसा भी आता है जब वह उस डर को अपने वश में करके, उस पर विजय प्राप्त कर लेता है। तब वह अपने  बन्धु-बान्धवों को या अपने आने वाली पीढ़ी को उस डर को अपने मन से बाहर निकाल फैंकने का परामर्श देता है।
       अन्धेरा केवल उसी स्थान पर नहीं होता जहाँ प्रकाश का आभाव होता है। अपितु मनुष्य अपना सारा जीवन अपने अन्धेरों से लड़ने में व्यतीत करता हैं। बिमारी-हारी, पराजय, दुःख-परेशानियाँ, व्यापर आदि में हानि, सन्तानहीन होना या अधिक सन्तान होना, घर-परिवार या बच्चों की चिन्ता आदि के अतिरिक्त प्राकृतिक आपदाओं अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओलावृष्टि, भूकम्प, बाढ़, लेण्ड स्लाइड होना, जंगलों में आग लगना, आँधी-तूफान आना भी मनुष्य के लिए अन्धकार के ही प्रतीक कहे जा सकते हैं। उन असहनीय स्थितियों से उभरने में उसे बहुत ही कष्टों का सामना करना पड़ता है।
         जब ऐसी मानवीय अथवा प्राकृतिक आपदाओं से मनुष्य को जूझना पड़ता है तब उसे नानी याद आती है। उस समय उसे प्रतीत होता है कि वह अन्धेरों की ऐसी गुफाओं में खो गया है, जहाँ से उसकी मुक्ति असम्भव है। मनुष्य को आशा रूपी प्रकाश का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। रात कितनी भी गहरी काली हो उसे समाप्त होना ही होता है। इसी तरह बादल कितने ही घने काले हों, कितना भी अन्धेरा कर ले, उन्हें बरसकर अन्यत्र जाना ही होता है और उजाला करना पड़ता है।
        मनुष्य यह भूल जाता है कि अन्धेरे के बाद ही प्रकाश का आनन्द लिया जा सकता हैं। उजाले का मूल्य मनुष्य को तभी ज्ञात हो सकता हैं जब वह अन्धकार के दारुण दुखों से दो-चार हो जाता है। मनुष्य को इन सभी अन्धेरों से बाहर निकलने का मार्ग स्वयं ही खोजना होता है। जब तक वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो जाता, तब तक वह उनसे मुक्त नहीं हो सकता। वह इन अन्धेरों से डरता हुआ सदा इधर-उधर भटकता रहता है।
          मनुष्य यदि वास्तव में अपने इन अन्धेरों के डर से ऊपर उठना छठा है तो उसे आत्मचिन्तन करना चाहिए, सज्जनों की संगति करनी चाहिए, सद् ग्रन्थो का परायण करना चाहिए और ईश्वर की आराधना करनी चहिए। ईश्वर ही मनुष्य को सभी प्रकार के अन्धेरों से मुक्त करने में समर्थ है।
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रविवार, 29 जुलाई 2018

अपनी सन्तान से हारना

किसी व्यक्ति के हँसते-मुस्कुराते हुए चेहरे को देखकर यह अनुमान लगाना कदापि उचित नहीं है कि उसे अपने जीवन में कोई गम नहीं है। अपितु यह सोचना अधिक समीचीन होता है कि उसमें सहन करने की शक्ति दूसरों से कुछ अधिक है।
        पता नहीं अपनी कितनी मजबूरियों और परेशानियों को अपने सीने में छुपाकर वह दूसरों के चेहरे पर हँसी ला पाता है। ऐसे साहसी लोग इस दुनिया में बहुत कम मिलते हैं।
       प्रायः लोग यही सोचते हैं कि जिसके पास भी वे बैठें, वह उनके दुखों की दास्तान को दत्तचित्त होकर सुने और अपनी सहानुभूति उसके लिए प्रकट करे। उसे यह पता चलना चाहिए कि उसका वह साथी मनुष्य कितनी पीड़ा भोग रहा है।
       वह अपने घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों से सताया हुआ है। उसे नौकरी या व्यापार में बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। वह धन की कमी या अस्वस्थता के कारण हताश है, जीवन से निराश है। इन सबसे बढ़कर उसे किसी अपने से सदा के लिए बिछुड़ जाने का दर्द है।
         यह सब सोचते समय मनुष्य भूल जाता है कि हर मनुष्य किसी-न-किसी पीड़ा से गुजर रहा है। किसी के पास उसके दुखों-परेशानियों पर मलहम लगाने का समय नहीं है। इस मँहगाई के चलते सभी लोग अपने जीवन की भागदौड़ में इतने व्यस्त हैं कि उनके पास समय का अभाव रहता है। आज हर इन्सान को जीवन जीने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है अन्यथा वह जीवन की रेस में पिछड़ जाता है।
       अपने हिस्से के दुखों, तकलीफों और परेशानियों को मनुष्य को स्वयं ही भोगना पड़ता है। कोई भी उन्हें उसके साथ भोगते हुए साझा नहीं कर सकता। जिन लोगों को अपना हमदर्द समझता है, वह उनसे अपने दुख साझा करने का यत्न करता है।
        पहली बात तो यह है कि कोई उसकी बात को ध्यान से सुनना ही नहीं चाहता। दूसरी बात यह है कि कोई सुनता है और प्रत्यक्ष में सहानुभूति का प्रदर्शन करता है तो पीठ पीछे उसकी छिछालेदार करने का अवसर तलाशता है। नमक-मिर्च लगाकर, बढ़ा-चढ़ाकर और चटखारे लेकर उसका सबके सामने उपहास करता है। जहाँ तक हो सके अपने दुख अपनी परेशानियों को अपने हृदय में ही समा लेना चाहिए।
        यहाँ हम सर्कस के जोकर की चर्चा कर सकते हैं। वह बहुत ही सफाई से अपने जीवन की परेशानियों को अपने अंतस में दफन कर देता है। जब वह स्टेज पर आता है तो अपनी अदाओं से सबको हँसाकर लोटपोट कर देता है। किसी को भी उसके जीवन के दुखों और कष्टों का ज्ञान ही नहीं हो पाता।
      वह एक गुमनाम-सी जिन्दगी जीता हुआ जोकर सबको खुश करने का भरसक प्रयास करता है। वहाँ सर्कस में बैठे हुए वे लोग उसके मसखरेपन का आनन्द लेते हैं। वहाँ से बाहर निकलकर दो-चार मिनट उसके बारे में बात करते हैं। उसके बाद अपने-अपने कामों में व्यस्त होकर उसे भूल जाते हैं।
       जोकर की तरह यदि अपने अंतस में अपनी सारी व्यथाओं को अपने जीवन का अभिन्न अंग मान लेने से किसी के सामने उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं रहती। मनुष्य स्वयं ही उन पर विचार करता हुआ बाहर निकलने का मार्ग खोज लेता है।
       मनुष्य को सदा स्मरण रखना चाहिए कि चन्द्रमा को भी अमावस्या का दंश झेलना पड़ता है। सूर्य को ताप से जलना पड़ता है। दिन को अंधेरे से मुक्त होने के लिए संघर्ष करना होता है। सोने को खरा बनने के लिए आग में तपना पड़ता है।
        संसार में हितचिन्तक बहुत कम हैं। अधिकतर लोग दूसरों का मजाक बनाते हैं। यही उनका मनोरंजन होता है। इसलिए वे ऐसे अवसर की तलाश करते रहते हैं और अपना शिकार ढूँढते ही लेते हैं। ऐसे लोगों को पहचानाने की कोशिश करनी चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो उनसे किनारा करना ही श्रेयस्कर होता है।
         सज्जनों की सगति, स्वाध्याय और ईश्वर की उपासना से मनुष्य कठिन-से-कठिन परिस्थिति में भी नहीं हारता। उसे अपने कष्ट भी फूल की तरह लगने लगते हैं। हँसने वाले के सभी मीत बनते हैं और बिसूरते रहने वाले से किनारा कर लेते हैं। उसे स्वयं ही भान हो जाता है कि फूलों की तरह मुस्कुराने और खुशियों की सुगन्ध चारों ओर बिखेरनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 28 जुलाई 2018

अकेलापन

मनुष्य का अकेलापन इस संसार में उसके लिए सबसे बड़ा अभिशाप होता है। मनुष्य तो क्या अन्य जीव-जन्तु भी अकेले नहीं रह पाते। इसलिए वे झुण्ड बनाकर रहते हैं। प्रायः पशु-पक्षी अपने-अपने साथियों के साथ समूहों में नजर आते हैं। भेड़, बकरी, हाथी आदि सभी पशु मिलकर चलते हुए दिखाई देते हैं। पक्षी भी अपने झुण्ड में ही उड़ते हैं। इससे वे सभी शायद अधिक सुरक्षित अनुभव करते हैं।
       पालतू पशुओं के लिए भी यही चिन्ता की जाती है कि उन्हें अकेला न छोड़ा जाए। यदि किसी कारण से उन्हें कुछ दिनों के लिए अकेला छोड़ दिया जाए तो उन्हें अकेलापन सालने लगता है। वे उदास हो जाते हैं और खाना-पीना तक त्याग देते हैं। जब तक घर के सदस्य वापिस न लौट आएँ, तब तक उन्हें अच्छा नहीं लगता। यही कारण है कि उनके लिए भी आजकल बहुत से क्रच खुलने लगे हैं।
        इसी प्रकार यदि अकेली मछली को घर में रखे एक्वेरियम में छोड़ दिया जाए तो उसे भी अकेलापन बहुत अधिक सताता है। फलस्वरूप वह शीघ्र ही दुनिया से विदा ले लेती है। इसलिए वहाँ अनेक प्रकार की मछलियाँ रखनी होती हैं जिससे वे सब मिलकर रह सकें और घर में आने वाले सभी बच्चों और बड़े लोगों का मनोरञ्जन कर सकें।
        मनुष्य तो फिर एक सामाजिक प्राणी है, वह भला अकेला क्योंकर रहे। उसे सबके समीप आने के लिए अपने रिश्तों को समझने की, सहेजने की और समेटने की महती आवश्यकता होती है। यदि मनुष्य के मन के किसी कोने में ऐसा भाव घर कर जाए कि जिन्दगी में कुछ भी शेष नहीं बचा है, जीवन नीरस हो रहा है, जीवन मुरझाने लगा है, पलभर के लिए भी कोई खुशी नहीं मिल रही है तो उस समय मनुष्य को अपनों के प्यार की आवश्यकता होती हैं।
      इसलिए रिश्तों के स्नेह की वर्षा उस पर करनी चाहिए। यदि मनुष्य ऐसा कर सके तो उसे अपने जीवन में वास्तविक आनन्द और प्रसन्नता मिल सकती है। मनुष्य को स्वयं खुश रहने के लिए खुशियाँ बाँटते रहना चाहिए और सदैव मुस्कुराते रहना चाहिए। रोते-बिसूरते रहने वालों से सभी बन्धु-बान्धव किनारा करने में ही अपनी भलाई समझते हैं। इस क्षणभंगुर जीवन में मनुष्य जितना दूसरों को साथ लेकर चलता है, उतना ही उसका समय आनन्दमय बन जाता है। अन्यथा अकेले हो जाने पर सबको कोसने से कोई लाभ नहीं होता।
          दुर्भाग्य से यदि किसी की भी गलती से कोई अपना दूर हो जाता है तो उसे अपने करीब लाने के लिए बारबार ईमानदार प्रयास करना चाहिए। इस प्रयास में तभी सफलता मिल सकती है जब मनुष्य पूरे मन से अपने लक्ष्य में जुट जाए। आधे-अधूरे मन से किए गए प्रयत्न असफल हो जाते हैं। अपने जीवन को जीवन्त बनाने हेतु कदापि संकोच नहीं करना चाहिए।
       इसका अनुभव तो बहुत से लोगों को होगा कि गमले रखा हुआ अकेला पौधा भी अधिक दिनों तक हरा-भरा नहीं रह पाता, वह मुरझाने लगता है। यदि उसके पास बहुत से दूसरे पौधे रख दिए जाएँ तो वे सब खिले रहते हैं। इसका यही अर्थ है कि पेड़-पौधों को भी अपने साथियों की बहुत ही आवश्यकता होती है। उन्हें भी अकेलापन काटने को दौड़ता है।
       मैंने अपने पुराने स्टाइल के बने हुए घर में देखा है कि रोशनी के लिए एक कमरे में दीपक रखने के लिए आमने-सामने वाली दीवार में दो स्थान बनाए हुए थे। इसका कारण शायद यही रहा होगा।
       मनुष्य हो या सृष्टि का अन्य कोई भी जीव, हर किसी को किसी-न-किसी के साथ की आवश्यकता होती है। अपने आसपास यदि कहीं कोई अकेला व्यक्ति दिख जाए तो उसे सहारा देने का यत्न करना चाहिए। अपना अमूल्य समय देकर उसे असमय मुरझाने से बचाना चाहिए। यदि दुर्भाग्य से मनुष्य अकेला हो तो उसे किसी मित्र का साथ लेकर, आनन्दपूर्वक जीने का साधन करना चाहिए। इस तरह एक मनुष्य स्वयं को भी मुरझाने से बचा सकता है।
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मंगलवार, 24 जुलाई 2018

गलतफहमी

ऑटो रुका तो दिव्या और कमल ने राहत की साँस ली। बहुत देर से वह दोनों बस स्टॉप पर बैठे हुए कैब को बुक करवा रहे थे। कैब है कि मिल ही नहीं रही थी। सर्द रात होने के कारण सड़कें भी सुनसान पड़ी थीं। एक साहित्यिक कार्यक्रम से निकलने में ज़रा-सी देर क्या हो गई मुसीबत ही आ गयी। दो कैब कैंसिल हो चुकी थीं।
         बस स्टॉप पर अभी कुछ देर पहले ही आये दो व्यक्ति लगातार दोनो पति-पत्नी को घूर रहे थे और आपस में इशारे भी कर रहे थे। दिव्या का दिल आशंका से घबराने लगा था। कमल ने शीघ्रता से ऑटो ड्राइवर को अपने गन्तव्य का पता दिया। ऑटो वाला जाने को तो तैयार हो गया परन्तु ऑटो में बैठे दूसरे व्यक्ति की ओर इशारा करके बोला कि वह उसका मित्र है और कुछ आगे जाकर उतर जाएगा। कमल ने ऐतराज़ करना चाहा पर दिव्या ने उसका हाथ पकड़कर उसे रोक दिया।
             तभी वहाँ खड़े दोनो व्यक्ति उनके पास आ गए और ऑटो वाले से उस आदमी को उतार देने के लिए हील हुज्जत करने लगे। ऑटो वाला नाराज़ होकर चला गया। दिव्या का कलेजा काँप उठा। आये दिन समाचार पत्रों में आने वाली लूटपाट और दुष्कर्म की खबरें उसके दिमाग में रील की तरह घूम गईं।
          उसे वह दोनों व्यक्ति सन्दिग्ध लग रहे थे। उसने डर के कारण कमल की बाँह जकड़ रखी थी। आखिर इन दोनों को दाल भात में मूसलचन्द बनने की आवश्यकता ही क्या थी। क्यों टाँग अड़ा रहे हैं उनके मामले में? कमल भी बहुत परेशान लग रहा था। तभी एक और ऑटो रुका, उन दोनो व्यक्तियों ने उससे कुछ सवाल-जवाब किये। फिर कमल की ओर मुड़ते हुए बोले- "आपलोग इसके साथ चले जाइए, वो ऑटो वाला बदमाश था, गलत इरादे से अपने साथी को लेकर घूम रहा था। कभी बिना सोचे-समझे ऐसे किसी के भी साथ मत चल दिया करिए।"
        दिव्या और कमल अवाक होकर उन दोनों का चेहरा देखते रह गए। अपने शंकालु स्वभाव पर अब वे दोनों शर्मिंदा नज़र आ रहे थे।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 21 जुलाई 2018

सन्तों का दायित्व

साधु-सन्तों का देश, धर्म और समाज के प्रति महान दायित्व होता है। जब देश, धर्म और समाज पर कष्ट का समय आता है अथवा बाहरी शक्तियाँ उसकी अस्मिता को चुनौती देती  हैं तब साधु समाज हाथ पर हाथ रखकर कदापि नहीं बैठ सकता। वह उस परीक्षा की घड़ी में आपसी मनमुटाव का त्याग करके देश, धर्म और समाज के उद्धार के लिए कमर कस लेता है।
     समाज के प्रति साधु-सन्तों का दायित्व आमजन से कहीं अधिक होता है। धर्म और समाज की रक्षा करना उनके लिए भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। देश के हितों की रक्षा करना भी उनका एक विशेष दायित्व होता है। इससे वे अपना मुँह नहीं मोड़ सकते। यदि वे ऐसा करते हैं तो इसका अर्थ होता है कि वे वास्तव में सन्त न होकर स्वार्थी जन हैं, जिनकी इस देश और समाज को कोई आवश्यकता नहीं है।
        कुछ दशक पूर्व जब हमारा देश परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था तो उस समय आर्य समाज के संस्थपक महर्षि दयानन्द सरस्वती के ने स्वतन्त्रता संग्राम में अपना भरपूर योगदान दिया था। उस समय उनके साथ और भी कई सन्तों ने जनजागृति के कार्य किए होंगे। अन्ततः उनके योगदान ने भारत को स्वतन्त्र कराने में अहं भूमिका निभाई। हमें अपने ऐसे सन्तों पर गर्व है।
        जब तक राजनीति पर सन्तों और विद्वानों का प्रभुत्व रहा तब तक राजकार्य सुचारू रूप से चलता रहा। राजा और प्रजा दोनों ही कुकर्म करने से बचते थे क्योंकि उन्हें ईश्वर का डर होता था। राज्य में सुख-समृद्धि बनी रहे उसके राजा सच्चाई और ईमानदारी से यत्न करता था। राजा पुत्रवत अपनी प्रजा की रक्षा करता था। उसका ध्यान रखता था। प्रजा के सुख-दुख मानो राजा के अपने होते थे। राजा अपना वेश बदलकर भी अपनी प्रजा की स्थिति को जानने का यत्न करता था।
        जब ये स्थितियाँ विपरीत होने लगी यानी राजनीति में साधु-सन्तों को तिरस्कृत किया जाने लगा, तभी से सारी समस्याओं का जन्म होने लगा। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म के चाबुक का जब तक राजाओं को भय था तब तक राज्य प्रजाजनों के हितार्थ कार्य करते रहे। परन्तु जब धर्म का भय राजाओं के मन से दूर होने लगा तब वे स्वार्थी और मदान्ध होने लगे। एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ उन लोगों में बलवती होने लगी। यहीं से राजनीति में गिरावट आनी प्रारम्भ हो गई।
           सतयुग और त्रेतायुग तक ये सारी व्यवस्थाएँ सुचारू रूप से चलती रहीं। द्वापरयुग तक आते आते अन्य नैतिक मूल्यों की तरह इस परम्परा का भी बहुत हद तक ह्रास हुआ। परन्तु आज यह स्थिति बन गई है कि सारी मर्यादाओं को ताक पर रख दिया गया है। राजसत्ता को किसी का भी भय नहीं है। इसीलिए आज के राजतन्त्र में सर्वत्र रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, कालाबाजारी, अनैतिक कार्य करने वालों को प्रश्रय देना आदि अवगुण नित्य प्रति बढ़ते जा रहे हैं।
          शायद यही कारण है कि आज शासक वर्ग जनता की परवाह नहीं करता और वह जनता को मात्र एक वोट से अधिक कुछ नहीं जानती। जनता भी शासक वर्ग को कुछ नहीं समझती। वह जानती है कि पाँच वर्ष में एक बार नेता वोट माँगने के लिए झोली फैलाकर आएँगे और फिर दोनों के रास्ते अलग-अलग हो जाएँगे। दोनों ही पक्ष अपना-अपना उल्लू सीधा करने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। आज के समय में यह कोरी कल्पना प्रतीत होती है कि कभी राजनीति धर्म से प्रेरित होकर चलती थी। कुछ दशक पूर्व गौ हत्या रोकने के लिए आन्दोलन साधु समाज के द्वारा किया गया था। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि उस समय गौवंश की रक्षा के लिए आवाज उठाने वाले निहत्थे सन्तों और जनता पर गोलियाँ चलाई गई थीं।
           आज के इस युग में सच्चे साधु-सन्तों की एक बार फिर से महती आवश्यकता है जो अपने ज्ञान से समाज को सकारात्मक दिशा दे सकें। गर्त में जा रही इस स्वार्थपरक राजनीति को पुनः अपने निर्देश से ऊँचाइयों की ओर ले जा सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
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