बुधवार, 31 अगस्त 2016

कड़ी परीक्षा

परमात्मा सज्जनों की बहुत कड़ी परीक्षा लेता है किन्तु उनका साथ कभी नहीं छोड़ता। विद्यालय या कालेज में जब भी विद्यार्थियों की परीक्षा ली जाती है तो उसका अर्थ यही होता है कि विद्यार्थी उस परीक्षा में सफल होकर अगली परीक्षा के लिए तैयार हो रहा है।
       स्कूल की परीक्षाओं में सफल होने के बाद कालेज की परीक्षाओं से उसे गुजरना पड़ता है। उसके बाद नौकरी पाने की परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ती है। फिर जीवन की भागदौड़ में आयुपर्यन्त उसे एक के बाद एक समस्याओं से जूझना पड़ता है, उससे छुटकारा नहीं मिलता।
        इसी तरह जीवन की इन परीक्षाओं का क्रम निरन्तर चलता रहता है। मनुष्य एक परीक्षा में सफल होता है तो फिर एक नई परीक्षा उसकी प्रतीक्षा में पलक-पाँवड़े बिछाए तैयार बैठी होती है। उसे जीवन भर इनसे दो-चार होते रहना होता है और फिर निश्चित ही सफल भी होना होता है।    
        इसीलिए इस जीवन को युद्धभूमि कहा जाता है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त मनुष्य बस कभी स्वयं से तो कभी अपनी परिस्थितियों से अनवरत संग्राम करता ही रहता है। शायद मानव जीवन की यही त्रासदी कहलाती है।
         बार-बार इन परीक्षाओं में उलझने का कारण है कि वह मालिक मनुष्य को सोने की तरह खरा बनाना चाहता है। जैसे सोने को शुद्ध करने के लिए उसे अग्नि में तपाया जाता है उसी प्रकार ईश्वर मनुष्य को दोषमुक्त तथा शुद्ध-पवित्र बनाने के लिए कठिन परीक्षाओं में डालता है यानी कष्टों और परेशानियों की अग्नि में तपाता है। ताकि मनुष्य कुन्दन की तरह निखरकर सबके समक्ष आ सके।
        यह शुद्धता केवल मात्र शरीर या मन की नहीं होती बल्कि मन, वचन और कर्म तीनों की होती है। ईश्वर चाहता है कि उसका प्रियजन जो भी विचार अपने मन में करे, वैसा ही अपनी वाणी से बोले और फिर उसी के अनुसार आचरण भी करे।
         मनुष्य मन में कुछ और सोचे तथा वाणी से कुछ अलग बोले और आचरण सर्वथा विपरीत करे तो यह उसके व्यवहार की कुटिलता होती है, सरलता या सहजता नहीं कहलाती। जब तक मन, वचन और कर्म से वह एक नहीं होगा तब तक उसके कथन का स्थायी प्रभाव दूसरे लोगों पर नहीं पड़ सकता। यह बात उस मालिक को बिल्कुल पसन्द नहीं है।
        दुखों और परेशानियों की भट्टी में तपकर मनुष्य जब खरे सोने की तरह  विशुद्ध और चमकदार बन जाता है। तब इस खरे सोने को वह मालिक फिर वैसे ही अपने पास सम्हालकर रख लेता है जैसे अपने स्वर्णाभूषणों को हम तिजोरी में, बैंक के लाकर आदि में सुरक्षित रख देते हैं।
         इसके विपरीत दुर्जनों को भगवान देता तो बहुत कुछ है परन्तु उन्हें अपना साथ नहीं देता। अर्थात वह उन्हें अपने से विमुख कर देता है। उनके मन में रहता हुआ, उन्हें चेतावनी देता हुआ भी उनकी पहुँच से दूर हो जाता है। उस समय उन दुर्जनों की पूजा-अर्चना, दान आदि सब मात्र प्रदर्शन के लिए ही रह जाते हैं क्योंकि उस प्रभु को दूसरों को कष्ट देने वाले, मारकाट, चोरी, भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोरी आदि अनैतिक कार्य करने वालों की तथाकथित भक्ति नहीं चाहिए होती।
         वे जब तक अपने सभी कुकृत्यों को त्यागकर सहृदय, परोपकारी, दयालु नहीं बन जाते तब तक वह दर्शक की तरह बना रहता है। वह मालिक तब तक उनका हाथ नहीं थामता जब तक वे अपने सच्चे मन से प्रायश्चित नहीं करते।
        सज्जनों की महानता कर्मठता, सहृदयता, दूसरों के प्रति सहानुभूति का भाव ही उन्हें दुर्जनों से अलग करते हैं। इसीलिए वे लोकप्रिय बन जाते हैं। समाज उन्हें हृदय से सच्चा हितैषी व मार्गदर्शक स्वीकार करता है। दुष्ट सबकी आँखों की किरकिरी बनते हैं। मजबूरी में उनके साथ कोई सम्बन्ध रख सकता है पर मन से उनके साथ जुड़ाव नहीं कर पाते। उनके मुँह के सामने वे डर के मारे कुछ न कह पाएँ पर पीठ पीछे सदा उनकी अवमानना ही करते हैं।
        मनुष्य को स्वय ही यह निश्चित करना है कि वह ईश्वर का कृपा पात्र बनना चाहता है अथवा मालिक से दूरी बनकर अपयश की भागी बनना चाहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 30 अगस्त 2016

दबाव या प्रैशर से बचें

दबाव अथवा प्रैशर आधुनिक भौतिक युग की देन है। आज सभी लोग भागमभाग की जिन्दगी जी रहे हैं। दूसरों की देखादेखी हर व्यक्ति अपनी सुख-सुविधा के अधिक-से-अधिक साधन जुटाना चाहता है। उसके लिए बहुत सारे पैसों की आवश्यकता होती है। इस धन को कमाने के लिए दिन-रात एक करता हुआ वह कोल्हू के बैल की तरह जुता रहता है।
        बच्चे, युवा, बड़े-बुजुर्ग प्रायः सभी लोग किसी-न-किसी दबाव में रहते हैं। बच्चों के सिर पर पढ़ाई का और फिर कैरियर बनाने का दबाव रहता है। समय की माँग के कारण माता-पिता उनके परीक्षा परिणाम में अच्छे अंक लाने के लिए उन पर दबाव बनाए रहते हैं। यदि कहीं कमी रह जाए तो उनका भविष्य प्रभावित हो जाता है। यही कारण है कि बच्चों का बचपन मानो आज कहीं खो सा गया है।
        युवाओं के समक्ष अपने भावी जीवन और अच्छी नौकरी मिलने का दबाव होता है। दिनभर इतना दबाव रहता है कि उनके कार्यक्षेत्र में आने-जाने का कोई समय निश्चित नहीं रहता। इसी कारण वे अपने पारिवारिक, सामाजिक दायित्वों को पूर्ण करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उनके पास समय का प्रायः अभाव-सा रहता है। जिसके कारण उनकी सोशल लाइफ सिमटती जा रही है और वे अलग-थलग होते जा रहे हैं।
         अपने दायित्वों को निपटाने और रिटायरमेंट के पश्चात भी बड़े-बुजुर्ग आज के बदलते माहौल के चलते दबाव में रहते हैं। नौकरी के लिए बच्चों के बाहर चले जाने के कारण उनके खानपान, शरीरिक स्वास्थ्य, देखभाल, सुरक्षा, अकेलेपन आदि की समस्या के कारण उन पर मानसिक दबाव बना रहता है।
        कच्ची दाल को पकाने के लिए जब हम प्रैशर कुक्कर में डालकर गैस पर रखते हैं तो प्रैशर से वह पक जाती है। तब वह खाने लायक हो जाती है और हमें पुष्ट करती है।
       यह दबाव परिवर्तन लाता है। वह परिवर्तन कोई अनुभव कर पाता है और किसी को वह महसूस नहीं होता। सबमें इसे अनुभव करने की क्षमता अलग-अलग होती है। इस दबाव से एनर्जी या शक्ति के कारण शारीरिक अथवा मानसिक बदलाव होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसकी गुणवत्ता यानी क्वालिटी और क्वांटिटी पर निर्भर करता है।
        इस दबाव को सहन करने की क्षमता भी सबकी अलग-अलग होती है। कुछ लोग इसे किसी भी तरह सहन कर लेते हैं। वे अपने दुखों और परेशानियों से स्वयं को बचाकर निकाल लेते हैं। डटकर उनका सामना करते हुए विजयी हो जाते हैं।
         इसके विपरीत कुछ लोग इस दबाव को बर्दाश्त नहीं कर पाते। वे लोग अपने दुखों और परेशानियों से घबरा जाते हैं और कायरतापूर्ण मार्ग अपना लेते हैं। यानी वे आत्महत्या जैसा घृणित कार्य कर लेते हैं।
         इन लोगों के विषय में हम प्रतिदिन समाचार पत्रों, टी वी व सोशल मीडिया पर हम पढ़ते व सुनते हैं। इनमें बाढ़, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओलावृष्टि आदि के कारण फसल के नष्ट हो जाने पर किसान हो सकते हैं। खराब परीक्षा परिणाम डर से घबराए छात्र हो सकते हैं। व्यापार में हानि अथवा अन्य कारणों से आर्थिक स्थिति के बिगड़ने का बोझ न सहने वाला कोई भी हो सकता है। कुछ लोग अपनी शारीरिक दुरावस्था से घबराकर भी इस मार्ग को अपना लेते हैं।
         कहने का तात्पर्य है कि पारिवारिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक अथवा राजनैतिक  किसी भी तरह के दबाव को न झेल पाने के कारण नेता, अभिनेता, न्याय व्यवस्था का रक्षक या सामान्य जन कोई भी इस गलत मार्ग को अपनाने वाला हो सकता है।
          आजकल मनुष्य हमेशा ही तनाव में रहता है। उसकी भलाई के लिए कही गई किसी भी बात पर वह अनावश्यक ही भड़क उठता है। वह जाने-अनजाने असहनशील बनता जा रहा है। इस कारण उसका शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। यह दबाव या तनाव बहुत से रोगों को निमन्त्रण देता है। इसीलिए छोटी आयु से ही बहुत से बच्चे दवाइयों पर निर्भर रहने लगे हैं।
         अनेक बुराइयों की जड़ इस तनाव को अपने सिर पर हावी नहीं होने देना चाहिए। अपने को यथासम्भव शान्त रखने का प्रयास करना चाहिए। दिन में थोड़ा समय निकालकर परिवार के साथ चर्चा करनी चाहिए। अवकाश का दिन बच्चों से मस्ती करनी चाहिए। इसे कम करने के लिए योग का आश्रय लिया जा सकता है। मेडिटेशन या ध्यान लगाया जा सकता है। इससे दबाव या प्रैशर दूर होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 29 अगस्त 2016

पूर्ण बनने के लिए

संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे हम पूर्ण कह सकें क्योंकि उसमेँ अच्छाई और बुराई दोनों का ही समावेश होता है। इसीलिए कभी वह गलतियाँ या अपराध कर बैठता है तो कभी महान कार्य करके अमर हो जाता है। यानी कि उसमें हमेशा स्थायित्व की कमी रहती है। यदि वह पूर्ण हो जाए तो भगवान ही बन जाएगा तथा ईश्वर कहलाने लगेगा।
         केवल और केवल वह परमपिता परमात्मा ही इस जगत में पूर्ण है। इसीलिए उसकी यह सृष्टि भी पूर्ण है। उसमें से कोई कमी नहीं निकाली जा सकती। वह मालिक सभी भौतिक गुण-दोषों से परे है, उसमें किसी प्रकार की कोई कलुषता नहीं हो ही सकती। इसीलिए हम सब उसे पूर्णब्रह्म कहकर सम्बोधित करते हैं और उसकी पूजा-अर्चना करके सदा ही उससे कुछ-न-कुछ माँगते रहते हैं। उसके विषय में निम्न मन्त्र कहता है-
ऊँ पूर्णमिद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदुच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
अर्थात- वह जो दिखाई नहीं देता है पर वह पूर्ण है। वह दृश्यमान जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण है। क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण से उत्पन्न हुआ है। उस पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण को निकाल भी दिया जाए तब भी पूर्ण ही शेष बचता है।
        यह पूर्णता कहलाती है जहाँ अपूर्ण होने का कोई भाव ही नहीं है। सब तरह से हमें उसकी पूर्णता का साक्षात्कार होता है। उसमें से कुछ ले भी लिया जाए तब भी सागर के जल की तरह वह सदा पूर्ण ही रहता है।
        यह सत्य है कि इन्सान पूर्ण नहीं हो सकता पर पूर्णता को प्राप्त करने का प्रयास अवश्य कर सकता है। इस बात से भी कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हर मनुष्य की अपनी एक शक्ति होती है और उसी प्रकार उसकी कोई-न-कोई कमजोरी होती है। उसी के आधार पर समाज में उसकी एक निश्चित पहचान बन जाती है।
         इस असार संसार के किसी मनुष्य के पास धनबल होता है। किसी अन्य व्यक्ति के पास विद्याबल होता है। दूसरे किसी के पास सत्ता का बल होता है। कुछेक के पास शारीरिक बल होता है। कुछ ऐसे सन्त प्रकृति के लोग भी होते हैं जिनके पास आत्मिक शक्ति होती है। इनके अतिरिक्त वे लोग होते हैं जो अपने घमण्ड में सदा ही चूर रहते हैं। वे उसे ही अपनी शक्ति मानकर इतराते रहते हैं।
        बल या शक्ति की ही भाँति हर मनुष्य की अपनी-अपनी कमजोरी भी होती है। शारीरिक बल या आत्मिक बल अथवा मानसिक बल किसी की भी कमी मनुष्य मे हो सकती है। इनके अतिरिक्त धन, विद्या, अनुभव जन्य ज्ञान, अनुशासन में से किसी एक की भी कमी उसकी कमजोरी बन जाती है। और भी मनुष्य की कमजोरियाँ हो सकती हैं यथा पानी को देखकर डरना, ऊँचाई से घबराहट, अग्नि से भय, किसी पशु विशेष से डर जाना, कहीं भी भीड़ को देखकर परेशान हो जाना आदि।    
         समझदार मनुष्य वही है जो अपनी ताकत या शक्तियों का अनावश्यक प्रदर्शन न करे। जिससे लोग उसकी ताकत का दुरूपयोग करने के लिए उसे उकसाने न लग जाएँ। यदि मनुष्य उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों के झाँसे में आ गया तो उसका विनाश निश्चित समझ लीजिए। इसका कारण है कि अपनी चाटुकारिता होती देखकर वह जीवन की वास्तविकता से विमुख होने लगता है। वह उसे ही सच्चाई मान लेता है।
        अपनी कमजोरियों को भी दूसरों के सामने प्रकट न होने दे जिससे किसी को उसका उपहास उड़ाने का अवसर न मिल सके। इससे उसका मनोबल कमजोर नहीं पड़ेगा।
     जिस प्रकार मछली पेड़ पर नहीं चढ़ सकती और पशु, पक्षी या इन्सान पानी में अपना घरौंदा नहीं बना सकते। सबके लिए उपयुक्त स्थान निश्चित हैं। उसी प्रकार मनुष्य की शक्ति अथवा कमजोरी उसके गले की हड्डी नहीं बनने चाहिए। उसे अपनी शक्ति का उपयोग देश, धर्म, परिवार, समाज की भलाई के लिए करना चाहिए। इसी तरह अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त करके चमत्कार करने उसे निरन्तर आगे बढंना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 28 अगस्त 2016

अपनी तुलना किसी से न करें

मनुष्य को जीवन में ,अपनी तुलना कभी किसी दूसरे से नहीं करनी चाहिए। उसे इस बात को अपने मन में गहरे बिठा लेनी चाहिए कि वह ईश्वर की एक रचना है। इसलिए वह जैसा भी है सर्वश्रेष्ठ है। ईश्वर के हर कार्य में अच्छाई होती है। उसे भी मालिक ने कुछ सोचकर ही इस संसार मे भेजा है।
          उस प्रभु की बनाई हर रचना अपने आप में सर्वोत्तम और अद्भुत होती हैं। किसी भी इन्सान में इतनी सामर्थ्य नही है कि उसे समझ सके अथवा उसमें से कोई कमी नहीं निकालकर स्वयं को सर्व शक्तिमान सिद्ध सके। इसलिए अपने में विद्यमान कमियों अथवा आने वाली परेशानियों को देखते हुए सदा ही अपने आप को कोसते रहना उचित नहीं है। उस मालिक पर पूर्ण आस्था रखनी चाहिए।
       यहाँ एक उदाहरण लेते हैं। हम एक बीज बोते हैं और उससे एक बहुत बड़ा वृक्ष उत्पन्न होता है। पर जब हम उस बीज को खोलकर देखते हैं तो हमें कुछ भी ऐसा भी नहीं दिखाई देता। उस समय हम समझ ही नहीं पाते कि यह नन्हा-सा बीज महान वृक्ष का कारक होगा।
        एक छोटे से बीज में इतना बड़ा वट वृक्ष समाया होता है। उसी प्रकार मनुष्य के अन्तस् में भी अनन्त सम्भावनाएँ विद्यमान रहती हैं। आवश्यकता होती है तो बस उन्हें तलाशने की। अपनी आन्तरिक सामर्थ्य को पहचानकर उसके अनुसार कार्य करने वाले को जीवन में कभी हार का स्वाद नहीं चखना पड़ता।
        मनुष्य को यह सोचकर कभी दुखी नहीं होना चाहिए कि उसके पास कुछ नहीं है। उसके पास यह नहीं है या वह नहीं है, सोचने के स्थान पर उसे पुनः पुनः यह मनन करना चाहिए कि सीमित समय के लिए मिले हुए इस मानव जीवन में उसके पास क्या-क्या है? उसे अपने जीवन में क्या-क्या करना चाहिए? क्या वह अपने जीवन में कुछ नए मानकों की स्थापना कर सकता है?

        मनुष्य को यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि दुनिया की कोई भी शक्ति उसे तब तक नहीं हरा सकती जब तक वह स्वयं ही हार न माने। अपना मनोबल उच्च रखते हुए मनुष्य को संसार सागर में छलाँग लगा लेनी चाहिए। यह निश्चित मानिए कि वह इसे पार करने की सामर्थ्य रखता है। चाहे तो सफलता अवश्य ही उसके कदम चूमेगी।
        इसमें कोई दोराय नहीं है कि यदि मनुष्य सही है, उसने कोई गलती नहीं की तो उसे क्रोध नहीं करना चाहिए। अपने बेगुनाह होने की बात को दृढ़तापूर्वक सबके समक्ष रखना चाहिए।
         इसके विपरीत यदि मनुष्य ने गलती की हैं तो उसे गुस्सा करने का हक बिल्कुल नहीं है। तब तो यह चोरी और सीनाजोरी वाली बात हो जाएगी जिसकी सराहना किसी तरह नहीं की जा सकती। उस समय क्षमा याचना करने से उसे परहेज नहीं करना चाहिए। अपनी गलती के लिए क्षमा याचना करने वाला कभी छोटा नहीं हो जाता बल्कि उसे महत्त्व दिया जाता है।
          घर-परिवार के लोग तथा बन्धु-बान्धव सभी यही चाहते हैं कि उनका प्रियजन अपने जीवनकाल में कुछ अच्छा करे। लेकिन इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि वे कभी नहीं चाहते कि उनका वह प्रियजन उनसे बेहतर करें। जहाँ पर वह उनसे आगे बढ़ने लगता है, सभी उसकी टाँग खींचने में लग जाते हैं। उसे नीचा दिखाकर आत्मतुष्टि करते हैं।
           यदि मनुष्य अपने पूर्व निर्धारित दृष्टिकोण में किञ्चित मात्र परिवर्तन कर ले तो उसका काया कल्प सम्भव हो सकता है। इसलिए हर समय को उपयुक्त समय मानते हुए ही मनुष्य को सदा उत्साह और लग्न से अपने दायित्वों का निर्वहण करते रहना चाहिए। 
          नकारात्मक विचारों का परित्याग करते हुए, अपनी सोच का दायरा विस्तृत करके उसे सकारात्मक बनाते हुए, दुनिया के साथ कदम ताल करते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 27 अगस्त 2016

छीनकर खाने वाले

इस संसार का यही दस्तूर है कि छीन कर खाने वालों का पेट कभी नहीं भरता उनकी भूख और-और करके सुरसा के मुँह की तरह दिन-प्रतिदिन बढ़ती रहती है। उसमें सब कुछ समाता जाता है। इसके विपरीत जो मिल-बाँटकर खाते हैं वे ईश्वर की कृपा से कभी भूखे नहीं सोते। उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर नित्य प्रति चलने वाले बहुत से निस्वार्थ लोग मिल जाते हैं।
         छीना-झपटी करने वाले अपने इस जीवनकाल में सदा अतृप्त रहते हैं। इसका कारण है उनकी लालची मनोवृत्ति। स्वयं कुछ करना नहीं पर दूसरों के पास जो कुछ भी अच्छा लगे उसे छीन लो। ऐसी ही मनोवृत्ति वाले लोग भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, लूट-खसौट जैसे कार्यों को अंजाम देते हैं। इन लोगों को समाज का शत्रु कहा जाता है जो दूसरे के खून-पसीने से कमाए हुए धन पर ऐश करना चाहते हैं। ये लोग कितना भी धन एकत्र कर लें अथवा सुख-सुविधाएँ बटोर लें पर इनका मन अमीर नहीं होता। मन से ये गरीब ही रहते हैं क्योंकि इनका भटकाव समाप्त नहीं होता।
         इनकी ऊपरी चमक-दमक देखकर भले ही लोग इनसे प्रभावित हो जाएँ परन्तु जब उनकी वास्तविकता सामने आती है तो उनसे किनारा करने में भी वे लोग समय नहीं लगते और उस समय अपनी गलती का सुधार कर लेते हैं।
          इन लोगों के बच्चों में भी जीवन में संघर्ष करके कुछ पाने की आवश्यकता महसूस नहीं होती। वे उस नाजायज आए धन का दुरूपयोग करते हैं और उसे उड़ाते हैं। सयाने कहते हैं- पैसा बोलता है। उनके इसी व्यवहार से यह उक्ति सिद्ध हो जाती है। तभी उनके पैसे में बरकत नहीं होती। इधर आता है उधर जाता है। पता ही नहीं चलता कहाँ आया और कहाँ गया?
         वे यदि किसी की सहायता करते हैं या दान देते हैं तो उसमें प्रशंसा पाने का उनका स्वार्थ हावी होता है। केवल अपना प्रचार करना ही उनका उद्देश्य होता है।
          इसके विपरीत मिल-जुलकर और बाँटकर खाने वालों को किसी नाम अथवा यश की कामना नहीं होती। वे इन सब तुच्छ भौतिक उपाधियों के पीछे नहीं भागते  बल्कि वे दास की तरह उनके पीछे-पीछे चलती हैं। दोनों प्रकार के लोगों में बस यही अन्तर होता है।
         सदा दूसरों के कष्ट को दूर करने वाले कोई साधारण जीव नहीं हो सकते। वे लोग अपने आप में विशेष होते हैं। उन्हें अपनी चिन्ता नहीं होती, वे यथासम्भव परहित की कामना में जुटे रहते हैं। ईश्वर उनके खजानों में कभी कोई कमी नहीं रखता जो मिल-बाँटकर खाते हैं।
           उनके पास यदि कभी किसी वस्तु की कमी हो भी जाए तो उन्हें पता भी नहीं चलता और वह वस्तु किसी अन्य बहाने से उनके पास आ स्वयं आ जाती है जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होती है। इसके पीछे उन महापुरुषों की इच्छाशक्ति और निस्वार्थ भावना ही कारण होती है जिसके परिणाम स्वरूप ईश्वर उनको सदा बरकत देता है।
         ऐसे लोगों का कभी कोई कार्य नहीं अटकता। उनके सत्कार्यों में साथ देने वाले बहुत से लोग उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार वे सैंकड़ों व हजारों हाथों वाले बन जाते हैं।
         जहाँ तक हो सके छीनकर खाने वाले बनकर अकेले हो जाने की बनिस्बत दूसरों के साथ मिल-बाँटकर खाने वाला बनने का यत्न करना चाहिए। हम सभी अपने बच्चों  को सदा दोस्तों के साथ शेयरिंग करके ही खाने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं। इसका अर्थ यही है कि ऐसा करना अच्छा होता है। अत: हमें स्वय भी इस आदत का अनुसरण करना चहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

दूसरों से आँख मिलकर बात करना

किसी की आँख में आँख डालकर बात करना बड़े जीवट का काम है। ऐसा वही मनुष्य कर सकता है जो किसी से भी न डरता हो। यह तभी सम्भव हो सकता है जब मनुष्य का मनोबल उच्च हो और उसके पास आत्मिक बल हो। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आत्मिक बल उसी व्यक्ति के पास हो सकता है, जिसके साथ सच्चाई और ईमानदारी होती है।
        इस सच्चाई की शक्ति से तो बड़े-बड़े साम्राज्य तक हिल जाते हैं। शारीरिक बल न होते हुए भी मनुष्य आत्मिक बल के रहते किसी से भी लोहा ले सकता है। यहाँ हम महात्मा गांधी के जीवन का उदाहरण ले सकते हैं जिन्होंने कृशकाय होते हुए भी अंग्रेजी साम्राज्य से टक्कर ली। उनकी एक आवाज पर हजारों लोग अपने सारे काम-काज छोड़कर भागे चले आते थे। विदेशी शासक के अत्याचारों को भी हँसकर सहन करते थे।
         इसी प्रकार के अनेक उदाहरणों से हमारा इतिहास भरा हुआ है जहाँ केवल आत्मिक बल अथवा सच्चाई की ताकत के कारण लोग शक्तिशालियों से भिड़ गए और उनकी नाक में दम कर दिया।
        टीवी पर, सोशल मीडिया पर एवं समाचार पत्रों में भी आए दिन ऐसे समाचार देखने, सुनने और पढ़ने को मिलते रहते हैं। दृढ़तापूर्वक प्रतिकार करने वालों की कमी नहीं है।
        आम व्यवहार में हम सभी प्रायः इन वाक्यों का प्रयोग करते रहते हैं- 'मेरी आँखों में देखकर बोल', 'नजरें क्यों चुरा रहे हो?', 'हिम्मत है तो नजर मिलाकर बात कर', 'आँखों में आँखें डालकर बात कर' आदि।
       इन सभी वाक्यों से पता चलता है कि कोई व्यक्ति स्वयं कितना ही धोखेबाज, मक्कार, हेराफेरी मास्टर क्यों न हो, उसे हर बात सच्ची ही सुननी होती है बस। असत्य भाषण अथवा अनर्गल प्रलाप कोई नहीं सुनना चाहता। झूठ और फरेब के कारण असामाजिक तत्त्व और आतंकवादी आदि अपने पुराने वफादारों तक को जान से मार देने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। इस विषय पर अनेक फिल्में तथा टीवी सीरियल बने हैं। जिन्हें देखकर इन लोगों का व्यवहार समझा जा सकता है।
         कार्यक्षेत्र आदि में भी बास चाहता है कि उसके अधीनस्थ सत्य का व्यवहार करें। यदि कोई उसके समक्ष असत्य बोलता है तो वह अपना आपा खो देता है और उल्टा-सीधा बहुत कुछ सुना देता है। इस कृत्य के लिए सरकारी दफ्तरों में मेमो इश्यू कर दिए जाते हैं पर प्राइवेट में तो कर्मचारी को नौकरी से हाथ तक धोना पड़ जाता है। इससे उसका कैरियर बरबाद हो जाता है।
         अपने घर में यदि बच्चे बड़ों से किसी भी कारण से सच्चाई छिपाएँ तो उनके साथ डाँट-डपट की जाती है अथवा सजा भी दी जाती है। किन्तु यदि घर के सदस्य एक-दूसरे से पर्देदारी करने लगें तो वह परिवार टूटकर बिखर जाता है। कोई भी व्यक्ति दूसरे का असत्य आचरण सहन नहीं कर पाता।
         मनुष्य की जुबान की बड़ी कीमत होती है। इसकी सच्चाई और ईमानदारी के कारण लाखों करोडों के व्यापार उचन्ती में हो जाते हैं। जहाँ किसी के मन में धोखाधड़ी करने की भावना आ गई वहाँ व्यापारिक सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं और तब फिर साख गिर जाने से व्यापार में हानि होने लगती है।
         मनुष्य की आँखों की चमक से ही ज्ञात हो जाता है कि उसकी बात में कितनी सच्चाई है और कितनी धूर्तता है। उसकी बात विश्वसनीय है अथवा नहीं। ऐसा व्यक्ति किसी से नजर नहीं मिला सकता। बात करते समय वह या तो इधर-उधर देखेगा या नाखून दाँतों से कुतरेगा या पैर के अँगूठे से जमीन खोदेगा या फिर नजरें चुराने का प्रयास करता है अथवा हकलाने लगता है।
        सत्य की शक्ति इतनी अधिक होती है कि सत्यवादी के मुँह से निकलने वाला हर वचन ब्रह्मवाक्य बन जाता है। ऐसे व्यक्ति की बोलते समय न कभी जुबान लड़खड़ाती है और न ही वह किसी से डरता है। सबके सामने सिर उठाकर और दूसरों से आँखें मिलाकर वह बात कर सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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