शुक्रवार, 30 जून 2017

मैं कौन हूँ

हम जीव इस संसार में जन्म लेते हैं और सारा जीवन सोचते रहते हैं कि मैं कौन हूँ? मैं इस संसार में क्यों आया हूँ? उसके बाद मुझे कहाँ जाना है? आदि ये सभी प्रश्न हमें बेचैन करते रहते हैं। आयुपर्यन्त हम इन पहेलियों को सुलझाने के लिए सिरा तलाश करते रहते हैं पर न जाने वह कैसा सूत्र है जो हमारे हाथ ही नहीं लगता।
        स्वामी दयानन्द सरस्वती जब गुरु विरजानन्द जी के द्वार पर पहुँचे तो गुरु ने पूछा- 'कौन है?' स्वामी जी ने उत्तर दिया- 'यही जानने आया हूँ।' महात्मा बुद्ध भी इन्हीं प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए राजपाट छोड़कर चले गए।
       इन पर विचार करना आवश्यक है तभी तो हम अपने विषय में जान सकेंगे। वेद वाक्य है-  'अहं ब्रह्मास्मि।'
अर्थात मैं ब्रह्म हूँ। इस वाक्य को गहराई से सोचे तो समझ आ जाएगा कि मैं उस अजर, अमर, अविनाशी परमात्मा का ही अंश हूँ।इसीलिए अपना रूप परिवर्तन करके अपने कृत कर्मों को भोगने के लिए बारंबार इस असार संसार में जन्म लेता हूँ। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि उस  परम आत्मा का एक अंश हूँ। उपनिषद् का मन्त्र है-
              द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया।
              समानवृक्षं परिषस्व जाते।
अर्थात एक ही वृक्ष पर दो पक्षी (परमात्मा व आत्मा) बैठे हुए हैं। एक (परमात्मा) केवल द्रष्टा है और दूसरा (आत्मा) भोग करने वाला है।
       इसी विचार को हम इस प्रकार भी कह सकते हैं-     'ईश्वर अंस जीव अविनासी।'
ईश्वर का अंश यह जीव (आत्मा) अविनाशी है। मैं आत्मा अग्नि हूँ, ज्ञान, प्रकाश, गति एवं अग्रणी हूँ। मेरे अंतस् में संकल्प की अग्नि निरंतर प्रज्ज्वलित रहती है।अत: मेरा जीवन पथ सदा प्रकाशमान रहता है-
            'अग्निरस्मि जन्मना जातवेद:।' 
यह हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि मैं ईश्वर का ही रूप हूँ और वह मेरे रोम-रोम में समाया हुआ है।
          मेरे सिर पर उसका वरद हस्त है। इसलिए संसार में आकर स्वयं को उसके निर्देश के अनुरूप बनाना है।
      मैं मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना हूँ। मुझे अपनी इस श्रेष्ठता का मान रखते हुए अपने को योग्य सिद्ध करना है।
        मुझमें ईश्वर ने सभी पंच महाभूतों के गुणों का समावेश किया है। पृथ्वी जैसा धैर्य मुझे दिया है। जल के समान शीतलता प्रदान की है। वायु के समान मुझे गतिशील बनाया है। अग्नि की भाँति तेजस्वी बनाया है। आकाश के तुल्य व्यापकता दी है।
        प्रभु ने मुझे विवेक शक्ति, भुजबल, साहस, आत्मविश्वास व स्वाभिमान का वरदान दिया है। कहने को मैं एक व्यक्ति हूँ पर सभ्यता व संस्कृति का प्रतिमान हूँ। दया, ममता, करुणा, प्रेम, वात्सल्य, शान्ति, क्षमा आदि का पालन करना मेरा धर्म है। मुझे अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस मानव जीवन को व्यर्थ नहीं गवाना है।
        'सर्वभूतहिते रत:' अर्थात प्राणिमात्रउच की भलाई करना मेरा दायित्व है। मेरा घर-परिवार ही नहीं सारी पृथ्वी मेरा कुटुम्ब है जिसकी परिकल्पना हमारे ऋषियों ने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' कहकर की है।
        ईश्वर ने जन्म इसलिए दिया है कि अपनी शक्तियों को जागृत कर आत्म साक्षात्कार करके उसमें लीन हो जाऊँ जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करूँ।
         अंत में यह कहना उपयुक्त होगा- 'सोहम् अस्मि।' दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मैं वही हूँ जो परमात्मा है। जैसा वह है वैसा मैं हूँ। मैं किसी रूप में उससे भिन्न नहीं हूँ। बस मुझे उसके गुणों का अपने में विस्तार करना है और उसके साथ एकरूप होना है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

गुरुवार, 29 जून 2017

धन्धा बनता चिकित्सा व्यवसाय

चिकित्सा सुविधाएँ आज विज्ञान की कृपा से सरलता से उपलब्ध हैं। अनेकानेक मल्टी स्पेशिलटी अस्पताल बड़े शहरों में खुल चुके हैं। उन्हें हम फाइव स्टार होटलों की श्रेणी में रख सकते हैं। जितना अधिक पैसा मनुष्य खर्च कर सकता है उतनी ही सुविधाएँ उसे उपलब्ध कराई जाती हैं।
           जितनी ऊपरी चमक-दमक ये हमें दिखाते हैं, उतनी ही अधिक जेब भी काटते हैं। ऐसा भी सुनने में आया है कि यहाँ कार्यरत डाक्टरों को अस्पताल की आय बढ़ाने के लिए टारगेट दिए जाते हैं। इसमें कितनी सच्चाई है मैं तो कम-से-कम नहीं कह सकती। इन अस्पतालों की सबसे बड़ी सुविधा यही है कि एक ही छत के नीचे सभी कार्य हो जाते हैं। रोगी को टेस्ट आदि करवाने के लिए कहीं अन्यत्र नहीं भागना पड़ता।
         आज वे डाक्टर बहुत ही कम रह गए हैं जो नब्ज पकड़ते ही रोग की जड़ तक पहुँच जाते थे। एक रोग को समझने के लिए आजकल के ये डाक्टर न जाने कितने ही टेस्ट करवा लेते हैं। उस पर भी बिमारी ठीक से पकड़ में आ जाएगी कोई गारन्टी नहीं। इस विषय पर भी सोशल मीडिया टी. वी., समाचार पत्र प्रकाशित करते रहते हैं कि रोग कोई और था, पर इलाज कोई और हो रहा था।
          आज की सबसे बड़ी समस्या है कि नवयुवा डाक्टरों की पीढ़ी में सहनशक्ति का अभाव है। इनकी सोच यही होती जा रही है कि जरा सी भी परेशानी हो शरीर का अंग काटकर फैंक दो। वे लोग उसके बाद होने वाले दुष्परिणामों को भोगने के लिए रोगी को छोड़ देते हैं।
          हो सकता है इसके पीछे यही कारण हो कि वे सोचते हैं कि लाखों रुपए खर्च करके पढ़ाई की है तो उसे वसूल लें। वे भूल जाते हैं कि बहुत नोबल व्यवसाय है डाक्टरी पेशा। डाक्टर को हम भगवान के समान मानते हैं। उससे यही आशा की जाती है कि वह अपने मरीज को उचित परामर्श दे और उसका ध्यान बिना किसी लालच के करे।
          ऐसे बहुत से किस्से हमने सुने हैं और टी.वी. के अनेक चैनलों पर दिखाए जाने वाले शो में भी देखते हैं, जहाँ रोगियों के साथ अन्याय किया जाता है। कभी-कभी किसी रोग का आपरेशन करते समय उसके शरीर के दूसरे अंग को निकालकर उसे महंगे दामों में बेच दिया जाता है। ऐसे रेकेट चलते रहते हैं।
            समय बीतने पर जब उसको कोई अन्य शारीरिक समस्या सामने आती है तब पता चलता है कि रोगी का कोई अंग विशेष निकाल लिया गया है। तब पीड़ित व्यक्ति ठगा-का-ठगा रह जाता है। फिर वह पुलिस में शिकायत करता है और अदालतों के चक्कर लगाता रह जाता है।
          ऐसे भी एपीसोड टी.वी. पर दिखाए गए हैं जिनमें नवजात शिशु को बेच दिया गया अथवा उन्हें पैसो के लालच में बदल दिया गया। यहाँ तक भी कह दिया गया कि उनके घर मृत बच्चे ने जन्म लिया है। ऐसा दुष्कर्म करते समय इन लोगों को उन बेचारे माता-पिता के दुख का भी ध्यान नहीं आता। दिल दहलाने वाले ये हादसे हैरान कर देते हैं।
         मेडिक्लेम के कारण रोगी आश्वस्त हो जाता है कि कोई भी रोग आ जाए उसके इलाज में कोई कमी नहीं रहेगी। शायद यही उसके जंजाल का कारण भी बनता जा रहा है। इस मेडिक्लेम का दुरुपयोग यही है कि आवश्यकता न होने पर भी रोगी को ऐसे डरा दिया जाता है कि उसे लगता है कि आप्रेशन के अतिरिक्त उसके पास कोई और उपाय नहीं है। इसका जिक्र भी टी.वी. व समाचार पत्रों में होता रहता है।
       सरकारी अस्पतालों की बदहाली के कारण लोग वहाँ इलाज के लिए जाना नहीं चाहते और इन लुभावने नामों के पीछे भागते हैं। इसी का फायदा उठाकर ये लोग बकरा हलाल करने वाली प्रवृत्ति के बनते जा रहे हैं।
         इसकी चर्चा भी समाचार पत्रों आदि में होती रहती है कि पैसे के लालच में ये इतने अन्धे हो गए हैं कि रोगी की मृत्यु हो जाने की सूचना एक-दो दिन बाद उसके परिजनों को दी गई।
       जगमग चमकते हुए ये सभी अस्पताल लोगों के जीवन में कितनी रोशनी कर पाते हैं, बस यही देखना और समझना है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

बुधवार, 28 जून 2017

सफलता पाने के लिए

अपने जीवन में सफलता की कामना करने वालों को हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए। स्वयं की सफलता के लिए प्रयत्न करने से पूर्व यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि जो भी व्यक्ति आगे बढ़ने के लिए कदम उठा रहा है, उसकी टाँग पीछे खींचने का प्रयास नहीं करना चाहिए। इसका सबसे बड़ा कारण है कि जो दूसरों की उन्नति की राह में रोड़े अटकाते हैं उसे भी पीछे की ओर धकेलने के लिए बहुत से लोग तैयार खड़े रहते हैं।
          मनुष्य को सदा ही सावधान रहना चाहिए। वह जो भी कमाता है, उसे उससे कम ही खर्च करना चाहिए। सफलता पाने के लिए यह आवश्यक हे कि उसके पास जितनी चादर हो उतने ही उसे अपने पैर फैलाने चाहिए। यह सुख और शान्ति का भी मूल मन्त्र है। अपना बचा हुआ धन अपने धूप-छाँव के समय के लिए बचाकर रखना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर किसी के समक्ष हाथ न फैलाना पड़े। उसे अपनी जिन्दगी को इस तरह लचीला बना लेना चाहिए जिससे किसी भी तरह की  परिस्थिति में वह स्वयं को एडजस्ट कर सके। रोने-धोने अथवा लानत-मलानत करने के स्थान पर जो कुछ अपने पास है, उसी मेँ प्रसन्न रहने का स्वभाव बनाना चाहिए।
          जब तक बहुत अधिक आवश्यक न हो तब तक कोई चीज उधार नहीं माँगनी चाहिए। कहते हैं कि उधार रिश्तों में कैंची का कार्य करती है। इसी प्रकार कर्ज लेने से भी सदा ही बचना चाहिए। यदि मनुष्य ऐसा कर सके तो इस कारण होने वाले उसके शत्रुओं की संख्या कभी बढ़ती नहीं है। ऋण लेने वाले के अपने ही प्रिय बन्धु-बान्धव यथाशीघ्र पराए हो जाते हैं। उसे अकेला छोड़ने में बिल्कुल समय नहीं लगते।
         इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं होता। यह केवल मनुष्य की अपनी सोच पर निर्भर करता है। प्रत्येक कार्य का अपना एक महत्त्व होता है। इन्सान को सदा यह सोचना चाहिए कि जो काम वह कर रहा है यदि वह उसे नही करता तो दुनिया पर क्या प्रभाव पड़ता? उसे स्वयं के बाहुबल पर पूरा भरोसा होना चाहिए। अपनी गलती को स्वीकार करने के लिए उसे सदा तैयार रहना चाहिए, कभी भी हिचकिचाना नहीं चाहिए। बल्कि अपना बड़प्पन दिखाते हुए, निस्संकोच होकर क्षमा याचना कर लेनी चाहिए।
         सफलता को चाहने वालों के लिए समय पर नियन्त्रण करना अथवा Time ka Management करना बहुत आवश्यक होता है। समय बहुत ही मूल्यवान है, इसे व्यर्थ के कार्यों में, टीका-टिप्पणी करने मेँ या दूसरों का अहित करने में बरबाद नहीं करना चाहिए। इन्सान को हमेशा अपने काम से काम रखना चाहिए। उसे यह भी सदा स्मरण रखना चाहिए कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही नहीं होता बल्कि विशेष प्रकार के प्रयत्न करने पड़ते हैं। अपने उन ईमानदार प्रयत्नों के बूते पर उन्हें सफल बनाना होता है।
         सफलता सदा उनकी दासी बनती है, जो अपने लक्ष्य को पाने के लिए दिन और रात एक कर देते हैं, हाथ पर हाथ रखकर निठ्ठले नहीँ बैठते अपितु अथक परिश्रम करते हैं। वे यह भी नहीं देखते कि कोई उनके पीछे चल रहा है अथवा जंगल के राजा शेर की तरह वे निपट अकेले चले जा रहे हैं। वे किसी की भी परवाह किए बिना अपने लक्ष्य को साधते हैं और उसे प्राप्त करके ही दम लेते हैं।
         सफल होने के लिए अपनी सोच को सदा सकारात्मक रखना चाहिर। साथ ही ईश्वर की उपासना करना कभी नहीं भूलना चाहिए। प्रार्थना मेँ अपार शक्ति होती है और इससे मनुष्य को आत्मिक तथा मानसिक बल मिलता हैं। इन बलों के साथ मिल जाने पर मनुष्य में ऊर्जा और स्फूर्ति बनी रहती है। वह कुछ भी कर गुजरने के लिए अपना मानस तैयार कर लेता है। उस समय कोई भी शक्ति उसे सफल होने से नहीं रोक सकती। अन्तत: वे अपने उद्देश्यों में सफल हो जाते हैं और फिर सफलता उनके कदम चूमती है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

मंगलवार, 27 जून 2017

मानव मस्तिष्क

मानव मस्तिष्क का कोई सानी नहीं है। इस छोटे से अवयव में न जाने क्या क्या रहस्य छिपे रहते हैं, ईश्वर के सिवा किसी ओर को इसका ज्ञान नहीं रहता। इसी के बल पर वैज्ञानिकों ने विश्व में अनेक चमत्कार किए हैं। उन्होंने मनुष्य की आवश्यकता के लिए सभी प्रकार के सुख-सुविधा के साधन तैयार किए है। उनके इसी बूते पर मनुष्य ने आज दूरियों को समेटकर, इस दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लिया है।
       मनुष्य ने चाँद-सितारों तक अपनी पैठ बढ़ा ली है। इस कारण अनेक नक्षत्रों पर उसका आवागमन बाधारहित होता जा रहा है। धरती, आकाश, समुद्र आदि कोई स्थान ब्रह्माण्ड में ऐसा नहीं है, जहाँ आज मानव की पैठ नहीं है। आज वह सिर उठाकर निर्बाध रूप से इसकी घोषणा कर सकने में समर्थ है। आज वैज्ञानिक निरन्तर आगे ही आगे बढ़ते जा रहे हैं। उनका पीछे लौटना निश्चित ही असम्भव है।
        मनुष्य के मस्तिष्क में तीन प्रकार की तरंगे कार्य करती हैं। पहली तरह की तरंगे उस समय अपना काम करती हैं या वे उस समय चलती हैं जब मनुष्य सोच विचार में लगा रहता है। उसके विचारों की उठा-पटक अनवरत चलती रहती है। सामन्यतः मनुष्य खाली बैठ नहीं सकता, जब वह कोई कार्य नहीं कर रहा होता तब भी उसके मस्तिष्क में विचार मन्थन की प्रक्रिया चल रही होती है।
         इस समय वह अपनी योजनाओं को बनाता है, उन्हें क्रियान्वित करके सफलता के सोपान पर चढ़ता है। फिर अपना सिर गर्व से ऊँचा उठाकर आकाश को छूने का दम्भ भरता है। जो मनुष्य अवसर चूक जाता है, वह दुनिया की रेस में पिछड़ जाता है। लोग उसे पीछे धकेलकर आगे बढ़ जाते हैं और पीछे मुड़कर उसकी ओर देखने का कष्ट भी नहीं करते। वह अलग-थलग पड़ा व्यक्ति फिर धीरे-धीरे दुनिया में गुमनामी के अंधेरों में खोने लगता है।
       दूसरी प्रकार की अल्फा तरंगे कहलाती हैं। वे तब चलती हैं जब हम शान्त होते हैं, निद्रा के आगोश में होते हैं और स्वप्न ले रहे होते हैं। उस समय मनुष्य अच्छा या बुरा बहुत कुछ देख रहा होता है। कभी जागने के बाद भी उसे स्वप्न की सारी बातें याद रहती हैं, तो कभी आंशिक। कभी कभी दिमाग पर जोर देने के उपरान्त भी उसे कुछ याद नहीं आ पाता।
        कभी-कभार मनुष्य को इतने डरावने और दिल दहला देने वाले स्वप्न आते हैं कि वह कई दिनों तक परेशान रहता है। कभी-कभी वह स्वप्न में अपने प्रियजनों के सानिध्य का आनन्द उठता है। यदा कदा अपनी समस्याओं का समाधान भी उसे स्वप्न के माध्यम से मिल जाता है जिसके लिए वह जागते हुए वह माथापच्ची कर रहा होता है तथा निराश हो रहा होता है। कई लोगों ने स्वप्न में मिले हल के कारण चमत्कार कर दिए।
        तीसरी तरह की तरंगें तब चलती हैं जब हम गहरी निद्रा में सो रहे होते हैं। वहाँ पर कोई स्वप्न नहीं होता। साकार और निराकार के पार का कुछ वहाँ पर होता है। चेतन और अवचेतन के पार जो कुछ भी होता है उसे बुद्धत्व कहते हैं। ये तरंगें उस समय साकार और निराकार अथवा हृदय और मष्तिष्क के बीच में कहीं पर स्थित होती हैं।
           यह वही समय होता है जब साधक इस स्थिति को साधकर उस ईश्वर के साथ एकाकार हो जाने के क्रम में एक कदम और आगे बढ़ जाता है। मनुष्य की यह उच्च स्थिति कहलाती है। इसे पा लेना हर किसी मनुष्य के वश की बात नहीं होती। बहुत ही बहुत ही भाग्यशाली होते हैं वे लोग जो इस अवस्था तक पहुँच पाते हैं।
       इस अवस्था को पाना बच्चों का खेल नहीं है अपितु बहुत कठिन है। दुनिया के आकर्षण इतने हैं कि वे मनुष्य को वहाँ तक पहुँचाने से पहले ही भ्रमित कर देते हैं और वह अपने लक्ष्य मोक्ष से भटक जाता है। फिर चौरासी लाख योनियों के फेर में फंसकर आवागमन के चक्र के जाल में उलझ जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

सोमवार, 26 जून 2017

हार न मानें

बारम्बार दुखों और कष्टों के आने पर भी जो मनुष्य गिरगिट की तरह अपना रंग नहीं बदलता अर्थात अपने अपने जीवन मूल्यों का त्याग नहीं करता, ऐसे ही खरे सोने जैसे मनुष्य का समाज में मूल्य बढ़ता है। लोग उसे महत्त्व देते हैं, उसका सम्मान भी करते हैं। ऐसे उस महात्मा मनुष्य के सद् गुणों के उदाहरण लोग समय-समय पर भावी पीढ़ियों को देते रहते हैं।
         सब लोग जानते हैं कि सोने को आग में तपाने पर ही वह खोट से रहित होकर कुन्दन बनता है। जिसे देखकर सबकी ही आँखें चुन्दिया जाती हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी दुखों और कष्टों की अग्नि में तपकर ही कुन्दन बनता है। जब मनुष्य उन विपरीत परिस्थितियों में रहकर सकारात्मक रवैया अपनाता है तभी उसकी वास्तविक पहचान बनती है। उसका नाम समाज में सम्मान से लिया जाता है।
        यहाँ हम दूध का उदाहरण लेते हैं। हम दूध को अग्नि पर उबालते हैं। फिर उसे जब ठण्डा करके जमा देते हैं, तभी वह दही बनता है। फिर दही को मथते हैं अर्थात उसके उस कठिन प्रक्रिया से गुजरने पर मक्खन बनता है। फिर मक्खन को आग पर पकाने से घी बनता है। यानी हर स्वरूप में ढलने के लिए दूध को सदैव एक असहनीय पीड़ा से गुजरना पड़ता है। तभी वह अपने हर रूप में और अधिक मूल्यवान बनता जाता है।
          इन सभी पदार्थों को समय-समय पर हम बाजार से खरीदते रहते हैं। बाजार में जाकर जब खरीदते हैं तो दूध से महँगा दही बिकता है, दही से महँगा मक्खन बेचा जाता है और मक्खन से कहीं अधिक महँगा घी मिलता है। दूध की सबसे मजेदार बात यह है कि इन सभी रूपों में उसका रंग एक ही रहता है। यानी वह है सफेद रंग। इस दूध की यह विशेषता होती है कि वह किसी भी रूप में आ जाए उसका रंग उस स्थिति में परिवर्तित नहीं होता।

इस उदाहरण को यहाँ देने का मात्र यही तात्पर्य है कि जीवन में कुछ भी पाने के लिए मनुष्य को सदैव उसका मूल्य चुकाना पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो कोई भी वस्तु इस संसार में यूँ ही नहीं मिल जाती। मनचाही वस्तु प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अथक परिश्रम करना पड़ता है, अपना सुख-चैन होम करना पड़ता है। तभी वह अपने जीवनकाल में कुछ प्राप्त कर सकने में समर्थ होता है।
          सकारात्मक विचार रखते हुए सन्मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति ही वास्तव में इस संसार में अपना नाम कमाता है। जो मनुष्य परेशानियों के आने पर भी घबराता नहीं है और न ही अपनी राह से भटकता है वही धैर्यवान महापुरुष कहलाता है। उसके पीछे चलने के लिए बहुत से लोग स्वेच्छा से तैयार हो जाते हैं। वह देश, धर्म और समाज का मार्गदर्शन करता है। उसका साथ पाना हर व्यक्ति के लिए सौभाग्य की बात होती है। उसका नाम इतिहास में युगों तक अमर हो जाता है।
          वैसे तो कोई भी विवेकी मनुष्य अपने संस्कारों का परित्याग करके कुमार्ग नहीं चलता। परन्तु फिर भी कुछ लोग ऐसे होते हैं जो परेशानियों से घबराकर सन्मार्ग को छोड़कर कुमार्गगामी बन जाते हैं। वे शार्टकट अपना लेते हैं जो पहले तो बहुत आकर्षक होता हैं और बाद में और अधिक कष्टप्रद हो जाता है। कुछ दूर चलने पर उन्हें अपनी गलती का अहसास हो जाता है। परन्तु उस समय चाहकर भी वे उस रास्ते को छोड़ नहीं पाते। जब चिड़िया चुग गई खेत वाली स्थिति हो जाती है तब पश्चाताप करते रहने से भी कोई हल नहीं निकल पाता।
        वास्तव में मनुष्य वही है जो अपने समक्ष आने वाली चुनौतियों का डटकर सामना करे। उनसे कभी हार न माने। उसे सदा अपने विवेक, अपने बाहुबल और अपनी कर्मठता पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए। साथ में उसे यह भी मानना चाहिए कि हर स्थिति में ईश्वर उसके साथ खड़ा है। वह कभी उसका अनिष्ट नहीं होने देगा।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

रविवार, 25 जून 2017

नशे से मुक्ति

नशा कोई भी हो, कैसा भी हो, विनाश का कारण ही होता है। उसे अपनाने वाला कोई भी व्यक्ति इस संसार में सुखी नहीं रह सकता। नशाखोर न अपना हित साधता है और न ही दूसरों का। वह सबकी आँख की कितकिरी बना रहता है।
      नशा तो नशा होता है। हर नशा मनुष्य को अकेला कर देता है। नशा कोई भी हो अच्छा नहीं होता चाहे वह धन-संपत्ति का हो, रूप-सौंदर्य का हो, पद का हो, विद्वत्ता का हो या मान-सम्मान का। यह तो उस नशे की बात हुई जिसे अथक परिश्रम करके हम कमाते हैं।
      अब हम चर्चा करते हैं उस नशे की या व्यसन की जो मनुष्य को कहीं का नहीं छोड़ता। यह नशा जुए, सट्टे, घोड़ों की रेस आदि किसी का भी हो सकता है। इनके नशे से भी किसी को फलते-फूलते नहीं देखा। कुछ समय के लिए तो अवश्य ऐसा प्रतीत होगा कि अमुक व्यक्ति के पास बड़ा धन आ गया है। पर जहाँ दाँव उल्टा पड़ा वहीं सब बरबाद हो जाता है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि इंसान सब हार जाता है व कर्जे में डूबकर दाने-दाने को मोहताज हो जाता है।
        शराब का नशा हो या स्मैक, चरस, गांजे का हो, होता बहुत भयंकर है। इसको करने से पैसे की बरबादी तो होती ही है और शरीर या स्वास्थ्य की हानि भी होती है। यह तो वही बात हुई न कि अपनी गाँठ का पैसा गया और जग हसाई भी हुई। मुँह के समक्ष भले ही कोई कुछ न कहे पर पीठ पीछे सभी बुराई करते हैं।
        लोग उन्हें सम्मान से संबोधित न करके शराबी, नशेड़ी, गंजेड़ी या स्मैकिया कहकर तिरस्कृत करते हैं। ये नशे इंसान को कहीं का नहीं छोड़ते। घर-बाहर इनसे कोई मित्रता नहीं करता। इनका मित्र बनना या कहलवाना भी कोई नहीं चाहता। अपने घर में भी इन लोगों को कोई बुलाना पसंद नहीं करता। इसका कारण है कि वे नहीं चाहते कि समाज में कोई उनको हेय दृष्टि से देखे।
    इन नशों को करने के लिए प्रतिदिन धन की आवश्यकता होती है। अब यह समस्या आड़े आती कि पैसा आए कहाँ से। काम-धन्धा तो ये टिककर नहीं कर पाते। अपनी लत के कारण ये लोग शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो जाते हैं। अपनी नशे की पिनक में रहने के कारण कार्य करने में दिन-प्रतिदिन असमर्थ होते जाते हैं।
        घर में मारपीट करके जबरदस्ती पैसा छीनकर अपनी लत पूरी करते हैं। कभी सड़कों पर तो कभी नालियों में गिरे पड़े मिलते हैं। घर की ओर ध्यान न देने के कारण घरेलू आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते। इसलिए पत्नी व बच्चों की अवहेलना का भी शिकार बनते हैं।
        घर से, नौकरी से या दोस्तों से जब पैसा नहीं मिलता तो ये लोग चोरी-चकारी से भी परहेज़ नहीं करते। आखिर इनको पैसा दे कौन? एक बार कोई दे देगा या दो बार देगा उसके बाद क्या? जो अपनी लत में पैसा बरबाद करता है वो उधार लिया धन नहीं चुका सकता।
         ये सारी दुखदायी स्थितियाँ मनुष्य को सामाजिक नहीं रहने देतीं। यह बड़ी भयावह स्थिति होती है। ऐसा मनुष्य अपना व अपनों पर भार होता है।
      नशे के कारण लिवर खराब हो जाता है,  हाथ काँपने लगते हैं और कैंसर जैसी बिमारियाँ घेर लेती हैं।
       आजकल नशे से मुक्ति पाने के लिए बहुत से रिहेबिलिटेशन सेंटर सरकार एवं सामाजिक संस्थाओं ने खोले हुए हैं। वहाँ जाने वालों को नशे से मुक्त कराया जाता है। इसे छोड़ने के लिए इच्छा शक्ति का होना बहुत जरूरी है।
      अपने बच्चों व परिवार से यदि सचमुच प्यार करते हैं तो यथासंभव इन कुव्यसनों से बचें और सम्मानजनक जीवन जीने का प्रयास करें। ईश्वर इन नशा करने वालों को सद् बुद्धि प्रदान करे।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp