शनिवार, 10 जून 2017

अपरिग्रह करें

अपरिग्रह से तात्पर्य है आवश्यकता से अधिक संग्रह न करके जरूरत के अनुसार करना। यह अपरिग्रह हमें मितव्ययिता सिखाता है। जिसका तात्पर्य है कि हम हमेशा अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखें उन्हें इतना अधिक न बढ़ाएँ कि जीवन भर अपना सुख-चैन गँवाकर मारामारी करनी पड़े।
         हर धर्म अनावश्यक रूप से संग्रह न करने का परामर्श देते हैं। यह संग्रह धन, संपत्ति, गाड़ी, वस्त्र, आभूषण आदि किसी भी वस्तु का हो सकता है। संग्रह प्रवृत्ति की जब अति हो जाती है तो मनुष्य घर-परिवार, बंधु-बांधवों व समाज से कट जाता है। बस अपने को झोंक देता है इस खबत में। घर-परिवार, बंधु-बांधवों यहाँ तक की अपने बच्चों को भी भूल जाता है। और यह जनून कभी-कभी पागलपन की हद तक भी पहुँचकर कष्टकारक बन जाता है।
       जब मनुष्य पर अति संग्रह की भावना हावी हो जाती है तब वह पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, अच्छा-बुरा सब भूल जाता है। वह जायज-नाजायज हर हथकंडा अपनाता है। उसी का परिणाम है आज समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, रिश्वतखोरी, बेइमानी, धोखा धड़ी एक दूसरे का गला काटने में भी परहेज न होना आदि। इंसान इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स, प्रापर्टी टैक्स और एक्साइज ड्यूटी बचाने के तरह-तरह के प्रपंच करने से बाज नहीं आता।
       तथाकथित धर्मगुरु जन साधारण को अपरिग्रह का उपदेश देते हैं पर स्वयं धन-संपत्ति का संग्रह करते हैं या दिन-प्रतिदिन देश-विदेश में उसे बढ़ाने की कोशिश में भोले-भाले लोगों से छल-प्रपंच करने में लगे रहते हैं। आखिर वे लोग क्योंकर भूल जाते हैं कि उनकी खबर लेने वाला वह ईश्वर की आँखें उन्हें हरपल व हरक्षण देखती रहती हैं। उनका अपना जमीर भी उन्हें कचोटता होगा पर शायद वे इतने खुदगर्ज बन जाते हैं कि अपनी अंतरात्मा की आवाज़ भी वे अनसुनी कर देते हैं। ऐसे उनके कथन का प्रभाव लोगों पर नहीं हो सकता।
         अपरिग्रह का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम घर-बार छोड़ कर साधु बन जाएँ और जंगलों में जाकर तपस्या करें। बल्कि अपरिग्रह की प्रवृत्ति हमें दुखों से बचाना चाहती है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि अपनी आवश्यकताओं को सीमित करके हम अपना जीवन सुखी बना सकते हैं। अपने ऊपर परेशानियों को कम लादेंगे तो टेंशन व अन्य बिमारियों से बचे रहेंगे।
          इसीलिए हमारे संतकवि ईश्वर से प्रार्थना करते हैं-
           साईं इतना  दीजिए जा में कुटुम्ब  समाए।
           मैं भी भूखा न रहूँ साधु भी भूखा न जाए॥
यह है अपरिग्रह का सटीक विचार।
       संग्रह करने की मनाही कदापि नहीं है। अपने घर-परिवार की आवश्यकताओं को भली-भाँति पूरा कर सकें तथा अपने अच्छे-बुरे समय के लिए तो अपने पास होना चाहिए। यदि ऐसा न हो तो फिर जिन्दगी की धूप-छाँव किस का मुँह देखेंगे? उस समय कोई भी सहायक नहीं बनता।
        यदि मनुष्य दृढ़ता पूर्वक अपनी आवश्यकताओं को सीमित करे तो आर्थिक विषमता समाप्त की जा सकती है।जीवन शांतिपूर्ण व सुखमय हो सकता है। इसका अर्थ है निरंतर श्रम करके समाज से उतना ग्रहण करें जितनी आवश्यकता है। शेष समाज के भलाई के कार्यों में लगाना चाहिए।
        हमारी संस्कृति में इसे अपनाने पर बल दिया है। महात्मा बुद्ध व भगवान महावीर ने अहिंसा के साथ-साथ अपरिग्रह पर बल दिया है जिसकी आज के युग में बहुत सार्थकता है। विचारकों ने हमेशा परिग्रह का तिरस्कार करके अपरिग्रह को महत्त्व दिया है।
       यह हम पर निर्भर करता है कि हमें जीवन में सुख-शांति चाहिए या मारा-मारी वाली दुख-परेशानियों से भरी जिन्दगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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