शनिवार, 17 जून 2017

पितृ दिवस पर विशेष -


नन्ही-नन्ही सी
अपनी अँगुलियों से
थामकर पिता का हाथ
हम चला करते थे ठुमक-ठुमककर।

हमारी तुतलाती
बोली पर हरषाते
मस्ती में खोते हुए
पिता हो जाते हैं बलिहारी सौ-सौ बार।

उनके ही साथ
जाना मेले-ठेलों में
बाजार और पहाड़ों पर
वह समय बन जाता था तब उत्सव सम।

पिता के कन्धे पर
चढ़कर बन जाते थे
हम राजा इस जग के
अपनी सामर्थ्य से भी बड़े कद वाले।

रूठना-मनाना
वो मान-मुनव्वल
सभी तो करते थे
पिता हमारी खुशियों की ही खातिर।

अपने सपनों की
ऊँची उड़ान भरते
पिता के ही तो कारण
जिनको बुनते रहते हैं बैठे हुए हम।

पीठ थपथपाना
किसी उपलब्धि पर
मनोबल बढ़ाना हारने पर
नहीं भूल सकते उनकी खुशियो को।

मानो न मानो
छुपी है भलाई ही
उन सभी लम्हों में
पिता की कठोरता से कहे शब्दों में।

सदा ही अपनी
सामर्थ्य से बढ़कर
सोचते हैं और फिर
करते हैं पिता अपने बच्चों के हित।

नन्हे से पौधे को
अपने हाथों से सींच
बनाते पिता महान वृक्ष
उसकी छाया में बैठ पाते मधुर फल।

पिता की आस
सन्तान का साथ
अपने अन्तिम चरण में
मत तोड़ो उनकी यह छोटी-सी चाह।

वे हैं तो हम हैं
उनसे ये जीवन हैं
उनके बिना तो वरना
इस जग में हमारा अस्तित्व क्या है?
चन्द्र प्रभा सूद
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