मंगलवार, 3 अक्तूबर 2017

साधु-सन्तों का दायित्व

साधु-सन्तों का देश, धर्म और समाज के प्रति महान दायित्व होता है। जब देश, धर्म और समाज पर कष्ट का समय आता है अथवा बाहरी शक्तियाँ उसकी अस्मिता को चुनौती देती  हैं तब साधु समाज हाथ पर हाथ रखकर कदापि नहीं बैठ सकता। वह उस परीक्षा की घड़ी में आपसी मनमुटाव का त्याग करके देश, धर्म और समाज के उद्धार के लिए कमर कस लेता है।
     समाज के प्रति साधु-सन्तों का दायित्व आमजन से कहीं अधिक होता है। धर्म और समाज की रक्षा करना उनके लिए भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। देश के हितों की रक्षा करना भी उनका एक विशेष दायित्व होता है। इससे वे अपना मुँह नहीं मोड़ सकते। यदि वे ऐसा करते हैं तो इसका अर्थ होता है कि वे वास्तव में सन्त न होकर स्वार्थी जन हैं, जिनकी इस देश और समाज को कोई आवश्यकता नहीं है।
        कुछ दशक पूर्व जब हमारा देश परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था तो उस समय आर्य समाज के संस्थपक महर्षि दयानन्द सरस्वती के ने स्वतन्त्रता संग्राम में अपना भरपूर योगदान दिया था। उस समय उनके साथ और भी कई सन्तों ने जनजागृति के कार्य किए होंगे। अन्ततः उनके योगदान ने भारत को स्वतन्त्र कराने में अहं भूमिका निभाई। हमें अपने ऐसे सन्तों पर गर्व है।
        जब तक राजनीति पर सन्तों और विद्वानों का प्रभुत्व रहा तब तक राजकार्य सुचारू रूप से चलता रहा। राजा और प्रजा दोनों ही कुकर्म करने से बचते थे क्योंकि उन्हें ईश्वर का डर होता था। राज्य में सुख-समृद्धि बनी रहे उसके राजा सच्चाई और ईमानदारी से यत्न करता था। राजा पुत्रवत अपनी प्रजा की रक्षा करता था। उसका ध्यान रखता था। प्रजा के सुख-दुख मानो राजा के अपने होते थे। राजा अपना वेश बदलकर भी अपनी प्रजा की स्थिति को जानने का यत्न करता था।
        जब ये स्थितियाँ विपरीत होने लगी यानी राजनीति में साधु-सन्तों को तिरस्कृत किया जाने लगा, तभी से सारी समस्याओं का जन्म होने लगा। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म के चाबुक का जब तक राजाओं को भय था तब तक राज्य प्रजाजनों के हितार्थ कार्य करते रहे। परन्तु जब धर्म का भय राजाओं के मन से दूर होने लगा तब वे स्वार्थी और मदान्ध होने लगे। एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ उन लोगों में बलवती होने लगी। यहीं से राजनीति में गिरावट आनी प्रारम्भ हो गई।
           सतयुग और त्रेतायुग तक ये सारी व्यवस्थाएँ सुचारू रूप से चलती रहीं। द्वापरयुग तक आते आते अन्य नैतिक मूल्यों की तरह इस परम्परा का भी बहुत हद तक ह्रास हुआ। परन्तु आज यह स्थिति बन गई है कि सारी मर्यादाओं को ताक पर रख दिया गया है। राजसत्ता को किसी का भी भय नहीं है। इसीलिए आज के राजतन्त्र में सर्वत्र रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, कालाबाजारी, अनैतिक कार्य करने वालों को प्रश्रय देना आदि अवगुण नित्य प्रति बढ़ते जा रहे हैं।
          शायद यही कारण है कि आज शासक वर्ग जनता की परवाह नहीं करता और वह जनता को मात्र एक वोट से अधिक कुछ नहीं जानती। जनता भी शासक वर्ग को कुछ नहीं समझती। वह जानती है कि पाँच वर्ष में एक बार नेता वोट माँगने के लिए झोली फैलाकर आएँगे और फिर दोनों के रास्ते अलग-अलग हो जाएँगे। दोनों ही पक्ष अपना-अपना उल्लू सीधा करने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। आज के समय में यह कोरी कल्पना प्रतीत होती है कि कभी राजनीति धर्म से प्रेरित होकर चलती थी। कुछ दशक पूर्व गौ हत्या रोकने के लिए आन्दोलन साधु समाज के द्वारा किया गया था। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि उस समय गौवंश की रक्षा के लिए आवाज उठाने वाले निहत्थे सन्तों और जनता पर गोलियाँ चलाई गई थीं।
           आज के इस युग में सच्चे साधु-सन्तों की एक बार फिर से महती आवश्यकता है जो अपने ज्ञान से समाज को सकारात्मक दिशा दे सकें। गर्त में जा रही इस स्वार्थपरक राजनीति को पुनः अपने निर्देश से ऊँचाइयों की ओर ले जा सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
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