बुधवार, 13 दिसंबर 2017

सुखी कौन?

सुख की कामना हर मनुष्य करता है। जीवन की भागदौड़ उसे बिल्कुल मशीन की तरह बना देती है। वह इतना परेशान रहता है कि हर समय बेचैनी उसे मथती रहती है। चाहकर भी जीवन में आए हुए सुख के पलों का वह आनन्द नहीं ले पाता। सुख के पल तो वैसे भी रेत में पड़ी मछली की तरह हाथ से फिसल जाते हैं  इसलिए उसे बस यही लगता है कि सुख उससे कन्नी काटकर मुँह मोड़ लेता है। उसके हिस्से में तो विधाता ने बस कष्ट और परेशानियाँ ही लिख दी हैं।
         यद्यपि ऐसा होता नहीं है। हर मनुष्य के पास सुख और दुख दोनों ही अपने समयानुसार आते हैं। यानी 'चक्रनेमि क्रम' अर्थात जैसे पहिए की तीलियाँ स्वभावतः ऊपर-नीचे होती रहती हैं, उसी प्रकार सुख और दुख मनुष्य के जीवन में आते हैं। मनुष्य के पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार अपने समय से ही सुख और दुख उसके पास आते हैं। आम भाषा में हम कह देते हैं कि दुख अनचाहे मेहमान की तरह अचानक प्रकट हो जाते हैं।
          इन सब परिस्थितियों के चलते सुखी कौन रह सकता है? इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है। इस विषय पर किसी कवि ने बड़े सारगर्भित शब्दों में कहा है-
ये च मूढतमा: लोके ये च बुद्धे: परं गता:।
ते एव सुखं धार्यन्ते मध्यमा: क्लिश्यते जन:।।
अर्थात इस दुनिया में केवल दो प्रकार के लोग सुखी होते हैं। एक बुद्धिहीन हैं और दूसरे बुद्धिमान। इन दोनों के बीच के सभी लोग बहुत ही पीड़ित होते हैं।
          गहनता से मनन करने पर यही समझ आता है कि बुद्धिहीन लोग समस्या को समझ नहीं पाते या समझना ही नहीं चाहते। इसलिए यह सब उनकी समझ से परे का विषय होता है। वे इसकी चिन्ता भी नहीं करते। वे यह कहकर मस्त रहते हैं कि जो होगा देखा जाएगा। देखा जाएगा कह देना बहुत सरल होता है परन्तु जब उसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है तो उस समय नानी याद आने लगती है। सब झेलना बहुत कठिन हो जाता है। इसलिए वे सदा प्रसन्न रहते हैं। किसी भी स्थिति में टेंशन न लेकर हँसकर टाल देने वाले ये महानुभाव हर हाल में मस्त रहते हैं।
         दूसरी ओर बुद्धिमान हर समस्या का हल ढूंढ निकालते हैं। जब तक उन्हें कोई उपयुक्त हाल न मिल जाए वे चैन से नहीं बैठते। वे किसी भी समस्या को हल्के में नहीं लेते बल्कि उन समस्याओं से जूझते हुए उनसे पार पा लेते हैं। इस प्रकार वे सुख के साधन तक पहुँच जाते हैं। दूसरी बात यह है कि वे जानते हैं कि कोई भी कष्ट-परेशानी स्थाई नहीं होती। जैसे वह आती है, अपना समय पूर्ण हो जाने पर चली जाती है। इसलिए वे न तो घबराते हैं और न ही हार मानते हैं बल्कि डटकर उन स्थितियों का मुकाबला करते हैं। सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, यश-अपयश आदि द्वन्द्वों को सहजता से सहन करते हैं। अपने उद्देश्यों में सफल होकर उनका सुख लेते हैं।
          इन दोनों प्रकार के लोगों के मध्य अन्य शेष लोग समस्याओं को जानते-समझते तो हैं परन्तु उनका हल निकाल पाना उनके बूते से बाहर होता है। इसलिए अपनी समस्याओं में सदा घिरे रहते हैं। चाहकर भी उस मकड़जाल से बाहर नहीं निकल पाते। अतः सारा जीवन परेशान रहते हैं। ये लोग ऐसे महानुभावों की तलाश करते रहते हैं जो उन्हें मुक्ति दिला सकें। इसी चक्कर में उनमें से कुछ लोग गलत हाथों में पड़कर कुमार्गगामी भी हो जाते हैं। कुछ लोग तथाकथित धर्मगुरुओं, तान्त्रिकों या मन्त्रिकों के चंगुल में फँस जाते हैं।
          कवि इस श्लोक के माध्यम से संदेश देना चाहता है कि समयानुसार सभी स्थितियाँ जीवन में आती रहेंगी। उनसे डरकर परेशान नहीं होना चाहिए बल्कि उनका बहादुरी से सामना करके विद्वानों की तरह सुखी रहना चाहिए न कि बुद्धिहीनों की तरह लापरवाह बनना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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