रविवार, 23 अक्तूबर 2016

जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन

हमारे आचरण पर हमारे खानपान का बहुत प्रभाव पड़ता है। शायद सुनने में अटपटा-सा लग रहा है पर यह सत्य है। छांदोग्य उपनिषद हमें बताती है-
            आहारशुद्धौ सत्तवशुद्धि: ध्रुवा स्मृति:।
             स्मृतिलम्भे  सर्वग्रन्थीनां  विप्रमोक्ष:॥
अर्थात आहार शुद्ध होने से अंत:करण शुद्ध होता है। इससे ईश्वर में स्मृति दृढ़ होती है। स्मृति प्राप्त हो जाने से हृदय की अविद्या जनित सभी गाँठे खुल जाती हैं।
हमारे बड़े-बजुर्ग कहते थे-
                'जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन'
अर्थात जैसी कमाई का अन्न घर में आएगा वैसा ही परिवार जनों का आचरण भी हो जाएगा।
         तामसिक और राजसिक भोजन करने से स्वास्थ्य की हानि होती है जिसका मानसिक प्रभाव पड़ता है। मन में तमोगुण बढ़ता है अर्थात मनुष्य पर कुविचार हावी होते हैं जिसका परिणाम हम अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार, बलात्कार, तेजाब फैंकना, पारिवारिक विघटन आदि बुराइयों के रूप में देखते हैं। मन में अवसाद बना रहता है व सद् कार्यों में मन नहीं लगता। हमारा मन इन्द्रियों के वश में होकर भटकता रहता है।
         यदि हम स्वास्थ्य के नियमों के अनुसार मौसम के अनुकूल भोजन करेंगे तो शरीर स्वस्थ रहेगा अन्यथा रोगी हो जाएगा। फिर अपनी मेहनत की कमाई डाक्टरों के हवाले करनी पड़ेगी। रोगी व्यक्ति स्वयं अपने को संभाल नहीं पाता तो घर-परिवार के दायित्वों का निर्वहण कैसे कर सकेगा? यह कष्ट उसे और अधिक पीड़ित करता है। इसीलिए कहा है-
             'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'
अर्थात जब शरीर स्वस्थ होगा तभी मनुष्य अपने धर्म का पालन करेगा और अपने दायित्वों को पूर्ण करेगा।
        यदि हम कहें कि शरीर और मन दोनों की सृष्टि अन्न से ही होती है तो यह कथन अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनि सात्विक आहार पर बल देते थे।
        इससे शरीर पुष्ट होता है और मन में सद् विचारों की अधिकता होती है। हम लोग खाने के लिए जीते हैं जबकि खाना जीने के लिए होना चाहिए। आजकल घर का शुद्ध खाना खाने के बजाय जंक फूड का प्रचलन बड़ता जा रहा जो स्वास्थ्य की हानि कर रहा है। छोटे-छोटे बच्चे बीपी, शूगर, मोटापा, दिल की बिमारी, कमजोर नजर और न जाने किन-किन बिमारियों के शिकार होते जा रहे हैं।
       विचारणीय है कि जिन परिवार जनों के लिए मनुष्य पाप-पुण्य, छल-फरेब, झूठ- सच सब करता है उसका पुण्य बटोरने के लिए तो सब तैयार हो जाएँगे पर पाप का हिस्सा बाँटने वाला उसके अतिरिक्त और कोई नहीं होगा। तो फिर यह अत्याचार व अनाचार से धन क्यों कमाना? क्यों किसी का गला काटना या दिल दुखाना?
         वास्तव में सच्चाई व ईमानदारी की कमाई में जो बरकत होती है उसका कोई मुकाबला नहीं हो सकता। इसी कमाई से घर-परिवार व स्वयं मनुष्य सुखी रहता है। संतान भी योग्य, आज्ञाकारी व संस्कारी होती है। हो सकता है वह दुनिया की नजर में लूज़र हो पर उसका कोई भी ऐसा कार्य नहीं जो सीमित साधन होने पर भी पूरा न हो। ईश्वर ऐसे व्यक्ति का खास ख्याल रखता है व उसे निराश नहीं होने देता।
      कहते हैं हमारे शरीर में सभी देवी-देवताओं का निवास होता है। तामसिक भोजन का अंश उनको मिलता है तो वे कमजोर हो जाते हैं और सात्विक भोजन से पुष्ट होते हैं।
       अपने घर-परिवार को संस्कारी बनाने के लिए उन्हें सात्विक अन्न खिलाएँ जो तन और मन दोनों के लिए आवश्यक है।
चन्द्र प्रभा सूद
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