शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

पूर्ण बनने के लिए

संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसे हम पूर्ण कह सकें क्योंकि उसमेँ अच्छाई और बुराई दोनों का ही समावेश होता है। इसीलिए कभी वह गलतियाँ या अपराध कर बैठता है तो कभी महान कार्य करके अमर हो जाता है। यानी कि उसमें हमेशा स्थायित्व की कमी रहती है। यदि वह पूर्ण हो जाए तो भगवान ही बन जाएगा तथा ईश्वर कहलाने लगेगा।
         केवल और केवल वह परमपिता परमात्मा ही इस जगत में पूर्ण है। इसीलिए उसकी यह सृष्टि भी पूर्ण है। उसमें से कोई कमी नहीं निकाली जा सकती। वह मालिक सभी भौतिक गुण-दोषों से परे है, उसमें किसी प्रकार की कोई कलुषता नहीं हो ही सकती। इसीलिए हम सब उसे पूर्णब्रह्म कहकर सम्बोधित करते हैं और उसकी पूजा-अर्चना करके सदा ही उससे कुछ-न-कुछ माँगते रहते हैं। उसके विषय में निम्न मन्त्र कहता है-
            ऊँ पूर्णमिद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदुच्यते।
            पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
अर्थात- वह जो दिखाई नहीं देता है पर वह पूर्ण है। वह दृश्यमान जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण है। क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण से उत्पन्न हुआ है। उस पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण को निकाल भी दिया जाए तब भी पूर्ण ही शेष बचता है।
        यह पूर्णता कहलाती है जहाँ अपूर्ण होने का कोई भाव ही नहीं है। सब तरह से हमें उसकी पूर्णता का साक्षात्कार होता है। उसमें से कुछ ले भी लिया जाए तब भी सागर के जल की तरह वह सदा पूर्ण ही रहता है।
        यह सत्य है कि इन्सान पूर्ण नहीं हो सकता पर पूर्णता को प्राप्त करने का प्रयास अवश्य कर सकता है। इस बात से भी कोई इन्कार नहीं कर सकता कि हर मनुष्य की अपनी एक शक्ति होती है और उसी प्रकार उसकी कोई-न-कोई कमजोरी होती है। उसी के आधार पर समाज में उसकी एक निश्चित पहचान बन जाती है।
         इस असार संसार के किसी मनुष्य के पास धनबल होता है। किसी अन्य व्यक्ति के पास विद्याबल होता है। दूसरे किसी के पास सत्ता का बल होता है। कुछेक के पास शारीरिक बल होता है। कुछ ऐसे सन्त प्रकृति के लोग भी होते हैं जिनके पास आत्मिक शक्ति होती है। इनके अतिरिक्त वे लोग होते हैं जो अपने घमण्ड में सदा ही चूर रहते हैं। वे उसे ही अपनी शक्ति मानकर इतराते रहते हैं।
        बल या शक्ति की ही भाँति हर मनुष्य की अपनी-अपनी कमजोरी भी होती है। शारीरिक बल या आत्मिक बल अथवा मानसिक बल किसी की भी कमी मनुष्य मे हो सकती है। इनके अतिरिक्त धन, विद्या, अनुभव जन्य ज्ञान, अनुशासन में से किसी एक की भी कमी उसकी कमजोरी बन जाती है। और भी मनुष्य की कमजोरियाँ हो सकती हैं यथा पानी को देखकर डरना, ऊँचाई से घबराहट, अग्नि से भय, किसी पशु विशेष से डर जाना, कहीं भी भीड़ को देखकर परेशान हो जाना आदि।   
         समझदार मनुष्य वही है जो अपनी ताकत या शक्तियों का अनावश्यक प्रदर्शन न करे। जिससे लोग उसकी ताकत का दुरूपयोग करने के लिए उसे उकसाने न लग जाएँ। यदि मनुष्य उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों के झाँसे में आ गया तो उसका विनाश निश्चित समझ लीजिए। इसका कारण है कि अपनी चाटुकारिता होती देखकर वह जीवन की वास्तविकता से विमुख होने लगता है। वह उसे ही सच्चाई मान लेता है।
        अपनी कमजोरियों को भी दूसरों के सामने प्रकट न होने दे जिससे किसी को उसका उपहास उड़ाने का अवसर न मिल सके। इससे उसका मनोबल कमजोर नहीं पड़ेगा।
     जिस प्रकार मछली पेड़ पर नहीं चढ़ सकती और पशु, पक्षी या इन्सान पानी में अपना घरौंदा नहीं बना सकते। सबके लिए उपयुक्त स्थान निश्चित हैं। उसी प्रकार मनुष्य की शक्ति अथवा कमजोरी उसके गले की हड्डी नहीं बनने चाहिए। उसे अपनी शक्ति का उपयोग देश, धर्म, परिवार, समाज की भलाई के लिए करना चाहिए। इसी तरह अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त करके चमत्कार करने उसे निरन्तर आगे बढंना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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