शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

बच्चों की देखभाल

आजकल कहा जाता है कि माता-पिता को घर पर और अध्यापकों को विद्यालय मैं बच्चों पर हाथ नहीं उठाना चाहिए। इस तरह करने पर उनका विकास बाधित होता है। विदेशियों की तर्ज पर इस सोच का मुझे कोई औचित्य ही दिखाई नहीं देता। सरकार, शिक्षा व्यवस्था और न्यायालय सभी बच्चों को शारीरिक दण्ड देने के विरुद्ध हैं। मुझे तो यह फलसफा आज तक समझ में नहीं आता। अंग्रेजी भाषा में एक उक्ति है-
      Spare the rod and spoil the child.
कितना सटीक है यह कथन। आज बच्चे उद्दण्ड बनते जा रहे हैं। न वे माता-पिता की बात सुनते हैं और न अध्यापकों की।
           बच्चों को दण्ड न देने के कारण वे मुँहफट, और बेलिहाज होते जा रहे हैं। विदेशी बच्चों के कारनामें हम समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं और टीवी व सोशल मीडिया पर देखते रहते हैं। वहाँ माता-पिता यदि कुछ कह दें तो बच्चे पुलिस को फोन करके उन पर प्रताड़ना का केस बना देते हैं। स्कूलों में बच्चे पिस्तौल से अपने साथियों की या अपने अध्यापकों की हत्या कर देते हैं। घर वालों को पता ही नहीं चलता कि ऐसा क्यों हुआ? बच्चे के पास पिस्तौल कहाँ से आई?
          इक्का-दुक्का घटनाएँ हमारे देश में भी सुर्खियों मैं आई हैं। ये घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ने लगीं हैं। इनके बारे में सुनकर और जानकर मन को बहुत कष्ट होता है। हर माता-पिता को अपने बच्चे अपनी जान से भी प्यारे होते हैं। वे उन्हें किसी कष्ट या परेशानी में नहीं देख सकते। उन्हें गलतियों से, गलत साथियों और गलत रास्ते पर जाने से बचाना माता-पिता का परम दायित्व होता है। आज के हालात को देखते हुए हम यह विचार करने पर विवश हो जाते हैं कि आखिर बच्चों को बनाना क्या चाहते हैं? क्या हम उन्हें खुदा बनाकर रखना चाहते हैं?
           इस विषय को स्पष्ट करने के लिए एक श्लोक देना चाहती हूँ। इसमें कवि ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में समझाने का प्रयास किया है-
पित्रा प्रताडितः पुत्रः शिष्योऽपि गुरुणा तथा ।
सुवर्णं स्वर्णकारेण भूषणमेव जायते ।।
अर्थात पिता के द्वारा पीटा गया पुत्र, गुरु के द्वारा प्रताड़ित किया गया शिष्य तथा सुनार के द्वारा पीटा गया सोना, ये सब आभूषण ही बनते हैं।
           कवि ने बहुत सुन्दर उदाहरण दिया है कि सोने को जितना ठोका-पीटा जाता है, उतना ही वह शुद्ध बनता है। ऐसे ही स्वर्ण के आभूषण बनाए जाते हैं, जिन्हें पहनकर हम इतराते हैं। उसी तरह बच्चों को यदि उनकी गलती का माता-पिता और अध्यापक द्वारा उचित दण्ड दिया जाता है तो वे भी कुन्दन बनकर चमकते हैं। समाज में वे अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाते हैं।
           प्राचीन काल से लेकर अभी कुछ समय पूर्व तक ऐसा कोई नियम नहीं था कि बच्चे को डाँट या मार नहीं सकते थे। गुरुकुल पद्धति में माता-पिता अपने बच्चों को गुरु को सौंपकर निश्चिन्त हो जाया करते थे। गुरु किसी भी तरह अपने शिष्य को योग्य बनाने का प्रयास करते थे। हर प्रकार के उपाय करते थे। वहाँ रहकर बच्चे सभी प्रकार के कार्य किया करते थे। गुरु की सख्ती को भी सहन करते थे। अब से कुछ समय पूर्व तक बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास में तो कोई किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचती थी। गुरुजनों के कठोर व्यवहार के कारण वे बहुत कुछ सीखते थे।
           यहाँ एक बात कहना चाहती हूँ कि बच्चों की गलत हरकतों पर यदि जानबूझकर पर्दा डाला जाए तो वे बड़े होकर गलत राह पर चलते हैं। आखिर उन्हें एक बार , दो बार समझाना होता है। यदि फिर भी वे न मानें तो उनकी प्रताड़ना तो होनी चाहिए। सब जानते हैं कि आग में हाथ डाला जाए तो वह जल जाता है। तो क्या बच्चे के जिद करने पर उसे आग में हाथ डालने दिया जाएगा? सभी सुधीजन इस प्रश्न का न में ही उत्तर देंगे। इस कर्म के लिए बच्चे को डाँटा भी जाएगा और फिर भी यदि वह न माने अथवा जिद करे तो उसे पीटा भी जाएगा।
            जिन बच्चों को आवश्यकता से अधिक लाड़-प्यार मिलता है, वे बिगड़ जाते हैं। उसका उदाहरण है सम्भ्रान्त व समृद्ध परिवार के बच्चों का समाज विरोधी व अनैतिक गतिविधियों में लिप्त हो जाना। इनके विषय में समाचार पत्रों, टी वी और सोशल मीडिया पर चर्चाएँ होती रहती हैं। उनके माता-पिता अपने उच्च पद, राजनैतिक रसूख, पैसे के बल आदि के कारण उनके बचाव का असफल प्रयास करते रहते हैं। ऐसे बच्चों के माता-पिता सदा ही उनके लिए चिन्तित रहते हैं। उनकी जिन्दगी काँटों की सेज बन जाती है।
          बच्चे न्याय व्यवस्था के अपराधी बनकर सलाखों के पीछे न पहुँचे, इसलिए उन पर अंकुश लगाना आवश्यक है। यदि उनके साथ कठोरता बरतनी पड़े तो संकोच नहीं करना चाहिए। बच्चे भारत का भविष्य हैं। उन्हें नया इतिहास रचकर देश, धर्म, समाज और अपने माता-पिता का गौरव बढ़ाना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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