मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा

इस कथन से कोई भी मनुष्य इन्कार नहीं कर सकता कि मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा होता है। मूर्ख मित्र अपनी मूर्खता के कारण कब वार कर दे यह कोई नहीं जान सकता। इसका कारण यही है कि ऐसा मित्र स्वयं ही नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है? वह जानबूझकर हमारा अहित नहीं करता अपितु अनजाने में उससे गलती हो जाती है। वह अपने ही प्रिय मित्र पर घात तक कर बैठता है।
         अपने शत्रु के विषय में हम जानते हैं कि वह तो दुश्मनी निभाएगा ही। उससे हम सदा ही सतर्क रहते हैं। हमारा यही प्रयास रहता है कि शत्रु वार करे उससे पहले हम चौकस हो जाएँ। ऐसा करने से शत्रु के वार का हम पर प्रभाव कम पड़ता है। वैसे तो हमारा यत्न यही रहता है कि उसे ऐसा कोई मौका न दिया जाए कि वह हम पर हावी हो जाए।
        एक कथा प्रचलित है कि किसी राजा ने एक बन्दर को पाला था। उसे वह मित्र की तरह मानता था। वह बन्दर राजा की बहुत सेवा करता था। एक बार राजा सो रहा था और बन्दर उसे पंखा कर रहा था। इतने में एक मक्खी उड़कर राजा के मुँह पर इधर-उधर बैठने लगी। बन्दर उसे उड़ाने का यत्न करने लगा पर वह मक्खी इतनी ढीठ थी कि वह मान ही नहीं रही थी। मक्खी की इस ढिठाई पर बन्दर को क्रोध आ गया और तलवार लेकर उसे मारने के लिए सोचने लगा। इसी बीच राजा की नींद खुल गयी। उसने बन्दर के हाथ में तलवार देखकर सोचा कि मूर्ख मित्र से तो शत्रु ही अच्छा है। यदि मैं समय पर न जागता तो यह बन्दर मुझे मार ही डालता।
         यह कथा हमें समझाने के लिए है कि क्रोध में आकर मूर्ख मित्र कब हम पर वार कर दे पता नहीं चलता। शत्रु के वार करने का तो हमें हमेशा अंदेशा रहता है। सबसे बड़ी बात यह है कि शत्रु को छुपकर वार करने की आवश्यकता नहीं होती। उसका तो खुला चैलेंज होता है।
         अतः इस प्रकार मूर्ख मित्र के हाथों विनाश करवाने से अच्छा है कि शत्रु से ही हाथ मिला लिया जाए और उसे अपना बना लिया जाए।
         मूर्ख को मित्र बनाना चाहें तो अवश्य बनाइए। पर उससे समझदारी की उम्मीद रखना मनुष्य की मूर्खता है। हाँ, अपनी जी हजूरी आप उससे करवा सकते हैं। उसे अपना चमचा बना सकते हैं। अपने बराबर बिठाकर परामर्श नहीं कर सकते। उससे दूरी बनाकर रखने में ही सदा अपनी भलाई समझनी चाहिए।
         आज हम राजनीति में देखते हैं कि एक दल के सदस्य दूसरे दल वालों को अनाप-शनाप कोसते हैं, आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है और आम जनों के सामने ऐसा  प्रदर्शन करते हैं कि मानो एक-दूसरे को कच्चा चबा जाएँगे। परन्तु जब किसी कारणवश अपना दल छोड़कर कर किसी अन्य दल में जाकर शामिल हो जाते हैं तो कुछ देर पहले वाले सब प्रसंगों को भुलाकर नए दल का गुणगान करते नहीं थकते। अपने पुराने दल के साथियों के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं जो पहले इस दल के सदस्यों के साथ करते थे।
        इस प्रकार रातों-रात सभी समीकरण बदल जाते हैं। जब हमारे पथप्रदर्शक नेता लोग शत्रु को मित्र बनाने में संकोच नहीं करते तो आम जन को भी अपने शत्रु से हाथ मिलाने से बचना नहीं चाहिए।
          यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम कैसे मित्रों का चुनाव करना चाहते हैं? जैसा रुचिकर हो वैसा मानकर अपने भविष्य के लिए जीवन का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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