सोमवार, 29 सितंबर 2014

निष्काम कर्म

ईशावास्योपनिषद् जो यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है में हमें समझाते हुए ॠषि ने कहते हैं-
           ईशावास्यमिदं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
           तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध्रः कस्यस्विद्धनम्॥१॥
           कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजिविषेच्छतं समा:।
           एवं त्वयि नान्यथेतो न कर्म लिप्यते नर:॥२॥
        पहले मन्त्र में ऋषि कहते हैं कि जो कुछ भी इस संसार में है वह सभी ईश्वर का है।  इस लिए सब पदार्थों का भोग करो परंतु लालच न करो।
         दूसरे मन्त्र में ऋषि कहते हैं कि कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करो। इसके अतिरिक्त मनुष्य के पास और कोई चारा नहीं है। जब मनुष्य त्यागपूर्वक भोग करता है तो कर्म में लिप्त नहीं होता।
        इन मन्त्रों में ऋषि ने स्पष्टरूप से जोर देकर कहा है कि जो कुछ भी इस संसार में ईश्वर ने बनाया है वह सब हमारे लिए है। उसके साथ शर्त है कि उसका यही सोचकर उपभोग करो कि सब ईश्वर का है, हमारा कुछ भी नहीं है। इस दुनिया से जब हम विदा लेते हैं तो सब कुछ इस संसार में छोड़ कर जाते हैं। साथ कुछ भी नहीं ले जा सकते। मनुष्य खाली हाथ यहाँ आता है और खाली हाथ चला जाता है। हम सब इस सार को जानते हैं, समझते हैं फिर भी लालच नहीं छोड़ते। जायज-नाजायज सभी काम करते हैं।
     ईश्वर ने मनुष्य को लिए झोली भर खजाने दिए हैं पर हम ऐसे अभागे हैं कि उसका अंश मात्र भी नहीं ले पाते। हमेशा अपने झूठे अहंकार में डूबे रहते हैं और भूल जाते हैं परमपिता परमात्मा के उपकारों को। इसीलिए ऋषि सब कुछ ईश्वर पर छोड़ कर निष्काम कर्म करने पर बल दे रहे हैं

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