शिक्षा का मंदिर कहे जाने वाली शिक्षण संस्थाओं को जब देखती हूँ तो मन में एक टीस उठती है क्योंकि ये मंदिर भी अब भौतिकतावाद की चपेट में आ चुके हैं । यहाँ अर्थ का महत्व बहुत बढ़ गया है। अन्य क्षेत्रों की ही भाँति यहाँ भी भ्रष्टाचार, शोषण, रिश्वतखोरी, डोनेशन, आपसी लड़ाई-झगड़ा, बंदरबांट, नियम-कानून को ताक पर रखकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। पब्लिक सेक्टर के संस्थानों के ऐसे किस्से गाहेबगाहे अखबारों में सुर्खियाँ बटोरते रहते हैं।
यही कारण है कि गुरु की उपाधि को अलंकृत करने वाला हमारा भारत देश आज इन बुराइयों के कारण शिक्षा में गुणवत्ता की समस्या से जूझ रहा है। इसका कारण हम सब अच्छी तरह जानते हैं।
पहले मैं स्कूलों की बात करती हूँ। सरकारी व सरकार से अनुदान प्राप्त स्कूलों में यह समस्याएं न के बराबर होंगी। पर सरकारी स्कूलों में शिक्षा की स्थिति दयनीय है।स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी मूलभूत सुविधाओं से वे स्कूल वंचित हैं। इसी कारण वहाँ शिक्षा की गुणवत्ता संतोषजनक नहीं है। अपवाद स्वरूप कुछ स्कूल ऐसे हैं जहाँ पर दाखिले के लिए अभिभावक लालायित रहते हैं पर वे उंगुलियों पर गिने जा सकते हैं।
पब्लिक स्कूलों में बच्चों से इतना शुल्क(फीस), बस के किराये के नाम पर अतिरिक्त धन, दाखिले के समय डोनेशन, गाहे बगाहे विद्यालय में होने वाले फंक्शन के नाम पर भी धन वसूला जाता है जिसे दे पाना आम भारतीय के बस में नहीं। वो रोजीरोटी के चक्कर में फँसा दो जून का भोजन परिवार को दे नहीं पाता तो इतना अधिक धन बच्चों की शिक्षा पर कैसे व्यय कर सकता है? यह गम्भीरता से सोचने का विषय है। यही स्थिति उच्च शिक्षण संस्थानों में भी है वहाँ कोई अधिक अच्छी स्थिति नहीं है।
हर संस्था में अधिक-अधिक कैसे वसूला जाए की होड़ सी लगी हुई है। शिक्षण संस्थान न हुए कि व्यापारिक केन्द्र बन गए हैं। आज शिक्षा धनाढ्य वर्ग की बपौती बनती जा रही है। निम्न वर्ग अपनी समस्याओं के कारण शिक्षा से वंचित रहने को विवश है।
इन सब समस्याओं के साथ सबसे बड़ी समस्या है कर्मचारियों के प्रति प्रबंधकों का पक्षपात पूर्ण रवैया। उनके कर्मठ, ईमानदार व सत्य व्यवहार के अलावा उनके चालूससी वाले व्यवहार को अधिक महत्त्व दिया जाता है। वहाँ कर्मचारियों को कम वेतन देना, आवश्यकता होने पर छुट्टी देने से आनाकानी करना, पदोन्नति देने में मनमानी करना, सरकार द्वारा निश्चित मानदेय न देना मामूली बात है। कई संस्थाओं में सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता। इसके अतिरिक्त पी एफ, बोनस, एल टी सी, मेडिकल सुविधा से भी उन्हें वंचित रखा जाता है। वहाँ कर्मचारियों के सिर पर तलवार लटकी रहती है। इसलिए अनावश्यक रूप से उन्हें समझौते करने पड़ते हैं।
स्वयं तो ये संस्थान अपनी यूनियन बनाकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलते हैं पर अपने यहाँ यूनियन होना बर्दाश्त नहीं करते और उन पर अनाप-शनाप आरोप लगाकर उन्हें प्रताड़ित करते हैं।
ऐसे अनिश्चित माहौल में बहुत से शिक्षक ऐसे हैं जो कक्षा में पढ़ाने के स्थान पर यह सोचते हैं कि किस प्रकार ट्यूशन्स करके अधिक धन कमाया जाए। कइयों ने तो अपने कोचिंग सेन्टर खोले हुए हैं।
मैंने कुछ नया नहीं कहा। हम सब इस कुव्यवस्था के शिकार हैं। हमारी मूलभूत आवश्यकता शिक्षा के विषय में सरकार के साथ-साथ हमारा जागरूक होना बहुत आवश्यक है।
रविवार, 28 सितंबर 2014
शिक्षण व्यवस्था: चिन्तन
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