मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

यक्ष प्रश्न पत्नी का पति से

तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

पग-पग पर तुमने मेरे लिए बस
मर्यादाओं की रेखाएँ ही खींची
मैं उन पर अब तक उतरी खरी
न सुना तुम्हारा उलाहना कभी
भविष्य में भी नहीं सह पाऊँगी
तुम्हारी  परोसी गई अवहेलना
चाहे तुम नित नए बहाने खोजो
इस जीवन में हार नहीं मानूँगी
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

जब-जब, जैसे-जैसे, कैसे-कैसे
जीवन में सब कुछ तुम मुझको
बतलाते  गए  समय-समय पर
तुम्हारा मनचाहा मैं करती रही
अपने मुँह से कभी ऊफ न की
तुम्हारी परछाई बनकर रह गई
अपना सब कुछ मिटा दिया है
इस जीवन में बस तुम्हारे लेखे
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

तन, मन औ धन जो भी था मेरा
सब हँसते-हँसते सौप दिया था
बिना शिकन आए इस माथे पर
अपने पास तो कुछ नहीं बचाया
न मुझे इस बात का रहा मलाल
न ही मैंने विचारा इस पर कभी
तुम भी छोड़ो अब तेरा औ मेरा
बन  जाओ दो  जिस्म एकजान
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे  राम बन सके?

सब कुछ सहते  सब कुछ करते
तुम्हारी उन  इच्छाओं  पर मरते
तुम्हारे  पीछे-पीछे चलते-चलते
मैं तो इस जीवन  में पार आ गई
तुम भी आ जाओ इस पार प्रिय
हाथ थामे चल पड़ें हम दोनों ही
हसरत ही रह गई है मन में यही
साथ चलें न देखें पीछे मुड़ कभी
तुमने चाहा मैं तो  सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे  राम बन सके?

तुम्हारे तन व धन से क्या होगा
गर तुम मन से मेरे नहीं हो सके
तेरा मन शायद हो जाएगा मेरा
चाह निगोड़ी  रही राह ताकती
उस दिन की आस में हूँ मैं बैठी
पूरी हो जाएगी मेरी जब इच्छा
ऐसी कामना करती रहती सदा
कभी तो मनचाहा मिलेगा मुझे
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

तन से इस तन का मिल जाना
सच में पशु भी कर लेते जग में
मन का मिलना ही कठिन होता
जो बाँट दिया है तुमने किसको
छोड़ दो बीती सारी बातें पुरानी
गिले-शिकवे सब  बाहर रख दो
आओ पलटकर देखो जरा मीत
कुछ भी नहीं बदला है अब तक
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

नहीं चाहिए था राज्य  सिंहासन
मुझे केवल  तुम्हारा साथ चाहिए
जंगल-जंगल भटक-भटक करके
ठोकरें खाने को छोड़ ही देना था
तब फिर खोजना  हुआ व्यर्थ था
ढूँढ रही हूँ मन का अन्तिम कोना
तुम्हारी बाट जोहती आस है मेरी
प्रतीक्षा की घड़ियाँ समाप्त होंगी
तुमने चाहा मैं तो  सीता बन गई
पर क्या तुम  मेरे राम बन सके?

खुशी के लिए समय-समय पर
तुम्हारी दीं हुई  अग्नि परीक्षाएँ
जो मेरी  झोली में डाली  तुमने
सबको हँसकर  पास कर ली हैं
तुम्हें पा सकूँगी यह सोच करके
जीत न पाई मैं अहसास तुम्हारा
शायद यही है विधि का विधान
जिसे जान न पाई मैं विचारकर
तुमने चाहा मैं तो सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे राम बन सके?

इस मोड़ पर खड़ी हुई अब भी
तुम्हारी राह निहार रही हूँ मैं तो
एक ही लक्ष्य है मेरे जीवन का
पा जाऊँ तुम्हारा  विश्वास कभी
खत्म हो जाए यह घना  अंधेरा
चमकता उजाला आए पास मेरे
यानी मेरा अपना बस मेरा ही हो
शायद आ जाओ मेरे पास कभी
तुम मेरे ही राम बन मुस्काते हुए
तुमने चाहा मैं तो  सीता बन गई
पर क्या तुम मेरे  राम बन सके?
चन्द्र प्रभा सूद
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