शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

भोगा न भुक्ता

सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य इस संसार में आने के उपरान्त सोचता है कि वह सदा के लिए यहाँ रहेगा। उसकी सत्ता को कोई भी चुनौती नहीं दे सकता। यदि कोई ऐसा दुस्साहस करने की चेष्टा करता है तो उसे बरबाद करने में वह अपनी ओर से कोई कसर नहीं रखना चाहता।
       वह अपने अन्तस में उठने वाली सभी कामनाओँ को पूर्ण करके, उनका सुख भोगना चाहता है। उसके लिए किसी भी हद से गुजर जाता है। अपने ऊपर यदि वह नियन्त्रण रख सके तो बहुत से अपराध करने से बच सकता है।
        राजा भ्रतृहरि इन विषय भोगों के प्रति, अपनी असीम इच्छाओं के न समाप्त कर पाने को लेकर समझाते हुए कहते हैं-
              भोगा  न  भुक्ता  वयमेव  भुक्ता।
              तपो  न   तप्तं  वयमेव   तप्ताः॥
              कालो न  यातो   वयमेव  याता।
              तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥        
अर्थात हमने भोग नहीं भोग रहे बल्कि भोग हमें भोग रहे हैं। हम तपस्या से नहीं तप रहे परन्तु दु:खों के ताप से संतप्त हो गए हैं। समय व्यतीत नहीं हो रहा पर हम स्वयं ही जीवन की बाजी हारते जा रहे हैं। हमारी तृष्णाएँ किञ्चित भी बूढ़ी नहीं हुई हैं अपितु हम ही तृष्णा के वशीभूत होकर वृद्ध होते जा रहे हैं।
       इस विषय में एक कथा आती है कि इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के छः पुत्रों में से सबसे बड़े याति राजकाज आदि से विरक्त रहते थे। इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषेक करवा दिया। ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ।
        ययाति की दो पत्नियाँ थीं। शर्मिष्ठा के तीन और देवयानी के दो पुत्र थे। अपनी आयु भोगने के उपरान्त भी ययाति का मन विषय भोगों में ही लगा रहता था। वे वृद्ध नहीं होना चाहते थे। इसके उपाय स्वरूप उन्होंने अपनी वृद्धावस्था अपने पुत्रों को देकर उनका यौवन प्राप्त करना चाहा। पुरू को छोड़कर और कोई अन्य पुत्र इस पर सहमत नहीं हुआ। पुत्रों में पुरू सबसे छोटा था। पिता ने इसी को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाया और स्वयं एक सहस्र वर्ष तक युवा रहकर शारीरिक सुख भोगते रहे।
        तदनन्तर पुरू को बुलाकर ययाति ने कहा- 'इतने दिनों तक सुख भोगने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई। तुम अपना यौवन वापिस ले लो, मैं अब वानप्रस्थी बनकर तपस्या करूँगा।'
         महाभारत के आदिपर्व में बताया गया है कि घोर तपस्या करने के पश्चात ययाति स्वर्ग पहुँच तो गए परन्तु स्वर्ग के राजा इन्द्र के श्राप के कारण स्वर्ग से भ्रष्ट हो गए। अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर लौटते समय इन्हें अपने दौहित्र अष्ट, शिवि आदि मिले। इनकी कठिनाई को समझते हुए उन्होंने अपने अपने पुण्य के बल से इन्हें फिर स्वर्ग में वापिस भेज दिया। अन्तत: इन सबकी सहायता से राजा ययाति को अपने जीवन से मुक्ति मिली।
          इस कथा से यही सिद्ध होता है कि विषय-भोगों में मदान्ध हुए ययाति जैसे स्वार्थी राजा को यह भी होश नहीं रहा कि जिस पुत्र की युवावस्था को वह ले रहा है, उसने तो अभी दुनिया भी नहीं देखी है। विषयभोगों और स्वार्थ में अन्धा होकर मनुष्य कोई भी अनर्थ कर सकता है।
         ऐष्णाएँ मनुष्य को सदा ही लुभावने आकर्षण देकर नाच नचाती रहती हैं। मनुष्य भी इनके जाल में फँसकर जाने-अनजाने अपना जीवन नरक बना लेता है। यदि मनुष्य इन काम-वासनाओं पर लगाम लगा सके, संयम कर सके तो उनको अपने ऊपर हावी नहीं होने दे सकता है। इस तरह करने से उसका जीवन सुनियोजित ढंग से चल सकता है।
        इन पर नियन्त्रण करने के लिए शास्त्र और मनीषी हम मनुष्यों को जगाने का कार्य करते रहते हैं। इन भोगों पर विजय प्राप्त करके ही मनुष्य अपना इहलोक और परलोक दोनों सुधार सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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