शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

शून्य होने से बचें

शून्य का अपने आप में कोई भी महत्त्व नहीं होता परन्तु जब वह एक से नौ तक किसी भी संख्या के साथ जुड़ जाता है तब उसका मूल्य बढ़ जाता है। उदाहरण के तौर पर यदि शून्य को एक के साथ जोड़ दिया जाए तो वह दस बन जाता है।
           इसी प्रकार से क्रमशः बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी और नब्बे बन जाता है। यदि किसी संख्या के साथ एक से अधिक शून्य जोड़ दिए जाएँ तो अरबों-खरबों तक की संख्या बन जाती है। कहने का तात्पर्य है किसी भी संख्या के साथ यदि शून्य बढ़ाते जाएँगे तो वह रकम उतनी ही बड़ी-बड़ी होती जाएगी।
          हमारा जीवन भी उसी प्रकार शून्य होता है। यदि उसमें हम सत्कर्मों को न जोड़ें तो। तब हमारे उस जीवन का कोई मूल्य नहीं रह जाता। मनुष्य अपने खाते में जितने अधिक शुभकर्म जोड़ता जाता है उतना ही संसार में उसका मूल्य बढ़ता जाता है। वह जीरो से हीरो बनने लगता है। अर्थात वह संसार में महान बनकर सबके हृदयों में विराजमान हो जाता है।
            मनुष्य का दिमाग उसे ईश्वर ने वरदन स्वरूप दिया है। विवेक शक्ति उसे ब्रह्माण्ड के अन्य जीवों से विशेष बनाती है। वह अपने दिमाग या विवेक का उपयोग यदि नहीं करता तब सभी लोग उसे सदा ही मूर्ख समझते हैं यानि शून्य या जीरो। उसके लिए महामूर्ख, गोबर गणेश, मिट्टी का माधो, गधा, अक्ल से पैदल इत्यादि विशेषणों का वे प्रयोग करते हैं।
        इससे भी अधिक यदि किसी मनुष्य का जन्म से ही दिमाग नहीं होता तो मेंटली रिटार्टिड कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यदि कहें तो वह मानव तन पाकर भी शून्य जैसा ही होता है। उसे अपनी कोई समझ नहीं होती पशुवत विचरण करता हुआ वह अपने घर-परिवार वालों को एक बोझ की तरह लगता है। उसके जन्म पर किसी को भी प्रसन्नता नहीं होती। उसके इस दुनिया से विदा होने पर सभी संबंधी राहत की साँस अवश्य लेते हैं।
            विचार यह करना है कि हम शून्य होने से बचना चाहते हैं या नहीं? मेरे विचार में कोई भी मनुष्य शून्य होना नहीं चाहेगा। उसका प्रयास यही होना चाहिए कि ऐसे कौन से कार्य वह करे कि दूसरों को सदा ही उसकी अनुपस्थिति अखरे। वह हमेशा सभी के आकर्षण का केन्द्र बना रहना चाहता है।
           चाहने मात्र से यह सब सम्भव नहीं हो सकता। उसके लिए मनुष्य को अपने आपको योग्य पात्र बनना होता है। मनुष्य को यह पात्रता कमानी होती है जो सदा ही समाज के नियमों के अनुसार आचरण करने से मिलती है।
            मनुष्य के शुभकर्मों की अधिकता जब होती है तब उस जीव को मनुष्य का जन्म मिलता है। अपने पूर्वकृत अशुभ कर्मों को भोग लेने के पश्चात ही जीव को उनसे छुटकारा मिलता है उससे पहले कदापि नहीं। अन्यथा वह चौरासी लाख योनियों में अपने अशुभ कर्मों के फल को भोगने के लिए बस बारबार चक्कर काटता रहता है और कष्ट भोगता है।
          इस जन्म और मृत्यु के बंधन से जीव जब तक मुक्त नहीं हो जाता तब तक उसे इस भवसागर के भंवर में गोते खाने पड़ते हैं इसके अतिरिक्त उसके पास और कोई चारा नहीं होता। इसलिए जब तक शरीर स्वस्थ है और मृत्यु उससे दूर है तब तक उसे अपने पुण्य कर्मों की सूची को बढ़ाते रहना चाहिए और शून्यता की इस दुखदायी स्थिति से बचने का यथासंभव प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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