मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

दिल जवान

कुछ लोगों के लिए कथित तौर पर आयु कोई मायने नहीं रखती। इसलिए वे स्वयं को सदा जवान मानते रहते हैं। उनका तकिया कलाम होता है,
   'उम्र बढ़ रही है तो क्या हुआ,
    दिल तो अभी जवान है।'
मन को चाहे कितना ही जवान क्यों न कहा जाए पर जब शरीर ही साथ नहीं देगा, तब तक दिल की जवानी किस काम आएगी? बढ़ती आयु के कारण जब चलने-फिरने में कठिनाई होने लगे, खाना खाने का मन न करे या हजम न हो, ऊँचा सुनने लगे, दाँतों के स्थान पर नकली दाँत आ जाएँ, आँखें कमजोर होने लगें पर उनकी दिल की यह जवानी बरकरार रहेगी। ऐसे मनुष्य को आम भाषा में केवल आत्ममुग्ध ही कहा जा सकता है जो जानते-बुझते हुए भी भ्रम में जीना चाहता है।
        साठ वर्ष की आयु पार होने पर यदि मनुष्य स्वयं को फुर्तीला और शक्तिशाली समझता है तो यह सर्वथा अनुचित होगा। वास्तव में बढ़ती आयु के साथ मनुष्य का शरीर भी ढलने लगता है। उसमें युवावस्था की तरह की चुस्ती और फुर्ती नहीं रह जाती। शरीर जब ढलान पर होता है, तब मनुष्य के शरीर की हड्डियाँ और जोड़ कमजोर होने लगते हैं।
         मन फिर भी कभी-कभी यह भ्रम बनाए रखना चाहता है कि ‘ये भी कोई काम है, इसे तो मैं चुटकी में कर लूँगा’। परन्तु सच्चाई बहुत जल्दी मनुष्य के सामने आ जाती है। वह चाहकर भी उस कार्य विशेष को सम्पन्न नहीं कर पाता। फिर अनावश्यक ही झेंप मिटाने के लिए बगलें झाँकने लगता है। इसलिए अपनी स्थिति और आयु को देखते हुए मनुष्य को स्वयं ही समय रहते सम्हल जाना चाहिए। इसी में बेहतरी कही जा सकती है।
          आयु बढ़ने यानी सीनियर सिटीजन होने पर कुछ बातों का ध्यान मनुष्य को रखना चाहिए। मनुष्य को धोखा तभी होता है जब उसका मन सोचता है कि ‘मैं कर लूँगा’ पर शरीर उस कार्य को करने से ‘चूक’ जाता है। उस समय परिणामस्वरूप एक्सीडेंट हो सकता हैं और शारीरिक क्षति भी हो सकती है। ये क्षति फ्रैक्चर से लेकर ‘हेड इंज्यूरी’ तक हो सकती है। कभी-कभी ये शारिरिक हानि जानलेवा भी साबित हो जाती है।
          सड़क पर चलते समय पैर यदि ऊँची-नीची जगह पड़ जाए तो मनुष्य गिरकर चोटिल हो सकता है। इसी प्रकार अपने घर में हो जाने वाली असावधानी भी जानलेवा साबित हो सकती है। उठने-बैठने में या चलते-फिरते समय हड़बड़ाहट के स्थान पर मनुष्य को धैर्यपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। घर हो या बाहर, मनुष्य को हर समय चौकन्ना रहना चाहिए। उसे सदा यही प्रयास करना चाहिए कि हर कार्य को सावधनी से और तसल्ली से सम्पन्न किया जाए।
          इसलिए प्रयास यही करना चाहिए कि पहले की तरह हड़बड़ी में काम करने की जो आदत थी उसे अब बदल ही दिया जाए। अनावश्यक जोश का प्रदर्शन करने से बचा जाए। इस अवस्था में सावधानी बरतना बहुत जरूरी है क्योंकि अब शरीर की शक्ति दिन-प्रतिदिन कम होने लगती है। छोटी-से-छोटी भूल के कारण लेने के देने पड़ सकते है।
         इस आयु में आने पर मनुष्य को अपने आहार-व्यवहार में परिवर्तन लाना चाहिए। सादा और सुपाच्य भोजन करना चाहिए। भोजन उतनी ही मात्रा में खाना चाहिए जो आसानी से पच जाए। शारीरिक गतिविधियाँ इस अवस्था में कम होने लगती हैं। इसलिए स्वाद के चक्कर में पढ़कर यदि मनुष्य जरूरत के अधिक भोजन करता है तो यह हानिकारक हो सकता है।
          सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि मनुष्य को सबके साथ एडजस्ट करके चलना चाहिए। दूसरों से एडजस्टमेंट की आशा नहीं रखनी चाहिए। अपने परिवार, भाई-बन्धुओं, पत्नी या पति, मित्र, पड़ोसी या समाज सबके साथ सौहार्द बनाकर रखने का प्रयास करना चाहिए। वृद्धावस्था भी प्रभु का ही वरदान है, इसे बहुत कम लोग समझ पाते हैं। प्रभु की इस कृपा को यूँ ही व्यर्थ न जाने दें। इस अवस्था में स्वयं को डालने की आदत बनानी चाहिए। इसे बोझ समझकर सदा घर-परिवार, समाज और ईश्वर को कोसने से बचना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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