बुधवार, 17 अप्रैल 2019

नया पाने की कामना

ऐसी कोई भी वस्तु जो हमारे पास नहीं होती, उसे हम बड़ी हसरत से देखते हैं और सोचते हैं कि काश फ़लाँ वस्तु हमारे पास भी होती। तब हम कितने भाग्यशाली होते। जब हम उसे देख लेते हैं तो बड़ी बेसब्री से उसे पाने की स्वयं से जिद करने लगते हैं। फिर जब यत्नपूर्वक उसे  प्राप्त कर लेते हैं, तब हमारे लिए उसकी उपादेयता ही नहीं रह जाती। उस समय वह वस्तु हमें बहुत साधारण-सी लगने लगती है।
          इसे इन्सानी फितरत ही कह सकते हैं कि जिस वस्तु को पाने के लिए वह मरा जा रहा होता है, उसे अपने पास किसी भी तरह पा लेने पर वह उसके लिए वही वस्तु खास न होकर आम बन जाती है। यह भी कोई बड़ी बात नहीं है कि थोड़े ही दिनों के बाद वही वस्तु मनुष्य की नजर से उतर जाए और वह उसकी ओर देखे ही नहीं। तब वह वस्तु घर के स्टोर रूम की शोभा बढ़ाने लगे। यह भी हो सकता है कि घर में आने-जाने वाले लोगों को वही वस्तु बहुत ही सुन्दर एवं विशेष प्रतीत हो, वे उसकी प्रशंसा भी करें।
          हम घर में बच्चों के व्यवहार को देखते हैं। वे जिस खिलौने को किसी दूसरे के पास या बाजार में देखते हैं, उसे खरीदने की जिद ठान लेते हैं। उनके पास घर पर चाहे कितने ही खिलौने क्यों न पड़े हों। जब तक वे उसे खरीद न लें तब तक उनका रोना-धोना चलता रहता है। जब वे उसे खरीद लेते हैं तो बहुत प्रसन्न हो जाते हैं। उस खिलौने से दो-चार दिन खेलते हैं, फिर उससे उनका मन भर जाता है। उस खिलौने से बोर होकर वे उसे फैंक देते हैं। उसी खिलौने को माता-पिता पीछे छिपाकर रख देते हैं। कुछ समय बीत जाने पर उसे देते हैं, ताकि वह बच्चा फिर कुछ दिन उसके साथ खेल सके।
          मनोविज्ञान की दृष्टि से समझें तो यही कहा जा सकता है कि मनुष्य उन्हीं वस्तुओं के पीछे पागलों की तरह भागता रहता है, जो उसके पास नहीं होतीं। जब उन्हें खरीद लेता है या अपने वश में कर लेता है तो वे मानो उसकी बपौती हो जाती हैं। फिर उनसे उसका दिल बच्चे के खिलौने की तरह भर जाता है और वे उसकी नजर से उतर जाती हैं। उसके बाद वह किसी औऱ वस्तु के पीछे भागने लगता है। यह मृगतृष्णा का खेल मानवजीवन में अनवरत चलता रहता है।
          कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपनी इच्छित वस्तु को मनुष्य अथक परिश्रम करके भी नहीं प्राप्त कर सकता। अथवा वह वस्तु उसकी सामर्थ्य या पहुँच से बाहर होती है। उस वस्तु को न खरीद सकने के मलाल उसे सारी आयु सालता रहता है। फिर उस दुख को वह अपनी नियति मान लेता है और अपने भगय को कोसता हुआ चुप लगा जाता है।
          सारा जीवन मनुष्य इसी उठापटक में लगा रहता है। उसे कभी सन्तोष नहीं मिल पाता, वह बस भटकता ही रहता है। मनुष्य की इच्छाएँ असीम होती हैं जो उसे कभी चैन से नहीं बैठने देतीं। एक कामना की वह पूर्ति कर लेता है, तो दूसरी को पाने की इच्छा पूर्ण करने की लालसा उसे सताने लगती है। यह क्रम तभी थम सकता है जब वह आपनी चाहतों पर लगाम लगाना सीख जाए।
        यही काम मनुष्य के लिए सबसे कठिन होता है। उसके लिए स्वयं पर नियन्त्रण रखना आवश्यक होता है, पर वह यह शुभ कार्य कर नहीं पाता। मनुष्य चाहे तो अपने मन को वश में करके उसे जीत सकता है और सदा सुखी रह सकता है। नहीं तो मन के वश में होकर मनुष्य, उसके अनुसार चलकर सारा जीवन हैरान और परेशान रहकर व्यतीत कर सकता है। अब यह तो मनुष्य की अपनी इच्छाशक्ति पर ही निर्भर करता है।
           मनुष्य का मन बहुत ही चञ्चल होता है। वह न स्वयं स्थिर रहता है और न मनुष्य को ही चैन लेने देता है। वह सदा ही उसे नाच नचाता रहता है और मनुष्य भी मन के इशारों पर चक्करघिन्नी की तरह नाचता रहता है। इस सारे प्रसंग से मनुष्य बहुत ही प्रसन्न रहता है। उसे लगता है कि मन के अनुसार चलकर मानो वह दुनिया को जीत लेगा। उसे मनचाही मुरादें मिल जाएँगी और वह अपना जीवन सुख-शान्ति से व्यतीत कर लेगा।
         परन्तु होता इसके बिल्कुल विपरीत है। मनुष्य को कितनी भी नेमते मिल जाएँ, फिर भी उसका हाथ याचना करने के लिए ही उठता है। एक के बाद एक वस्तुओं का संग्रह करने की प्रवृत्ति मनुष्य के दुख का कारण बनती है। इसलिए जहाँ तक हो सके अपनी कामनाओं पर अंकुश लगाने का प्रयास करना चाहिए। इससे मनुष्य अपने जीवन में भटकाव की स्थिति से बच जाता है व अपने लिए सुख-शान्ति के द्वार खोल देता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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