शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

प्रभु कृपा

परमपिता परमात्मा आनन्द का अथाह सागर है। वह हम सब जीवों पर अपनी कृपा की वर्षा सदैव करता रहता है। वह ईश्वर एक ही है, परन्तु उसे लोग अलग-अलग नामों से पुकारते रहते हैं। वेद का कथन है-
           एको ही सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।
अर्थात् ईश्वर एक है, परन्तु मनीषी उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।
        वह ओंकार भी है और महाशक्ति या सुप्रीम पावर भी है। उस परमेश्वर को किसी भी नाम से पुकार लो, किन्तु वह रहेगा तो एक ही ब्रह्म। वही एक है जो अनन्त सुखों का भण्डार है। यह सर्वथा सत्य है कि ईश्वर रूपी इस सागर में मनुष्य जितना अधिक गहरे गोते लगता रहता है, उतनी ही उसे शान्ति की प्राप्ति होती है। तथाविध उसे आत्मिक बल भी मिलता है।
          भगवान की कृपा निष्काम कर्म करने से प्राप्त होती है। इसका अर्थ है कि जो भी कार्य मनुष्य करे उसे ईश्वर को समर्पित कर दे। मनुष्य को हर कार्य को अपना कर्त्तव्य समझकर करना चाहिए। उसमें से कर्त्तापन के भाव को दूर कर देना चाहिए। इस तरह मनुष्य को संसार में प्रभु की कृपा प्राप्त करने के लिए ही कर्म करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' में कहा है -
      कर्मण्येवाधिकारस्ते म फलेषु कदाचन।
      मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।।
अर्थात् मनुष्य को कर्म करना चाहिए पर फल की कामना कभी नहीं करनी चाहिए। कर्म के फल का कारण मत बनो। इससे कर्म न करने की प्रवृत्ति होती है।
          इसी प्रकार का भाव 'ईशोपनिषद' में भी ऋषि ने लिखा है-
        कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेछतं समा:।
        एवं त्वयि नान्यथेतो न कर्म लिप्यते नर:।।
अर्थात् इस संसार में कर्म करते हुए मनुष्य को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए। इससे भिन्न किसी और प्रकार का विधान नहीं है। इस तरह कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लिप्त नहीं होता।
         मनुष्य का संसार में अत्यधिक विश्वास होना पतन का कारण बन जाता है। जब उसे यह लगने लगता है कि इस संसार में रहकर यदि उसने  भोग-विलास न किया तो उसका यह मानव जीवन व्यर्थ हो जाएगा। उस समय मनुष्य के उत्थान का नहीं पतन का द्वार खुल जाता है। वह सांसारिक बन्धनों में बँधा हुआ, अपना जीवन व्यर्थ गँवा देता है। अन्त समय में रो-रोकर ईश्वर से क्षमा याचना करता है। सब कुछ समाप्त हो जाने के पश्चात फिर पश्चाताप करने के कोई औचित्य नहीं रह जाता। तब ईश्वर भी उसके लिए कुछ नहीं कर सकता। तब मनुष्य को चौरासी लाख योनियों के चक्कर मे घूमते रहना पड़ता है।
         इसके विपरीत जब मनुष्य को उस ईश्वर में अथक विश्वास हो जाता है कि वही उसका सच्चा मीत है। उसकी शरण में जाने से ही वास्तविक सुख प्राप्त होता है। वही हमारा हितैषी है और रक्षक है। वही इस संसार सागर से पार लगाने वाला है। तब वह मानव के शाश्वत-सुख और परम-शान्ति का मूल बन जाता है। जो भी मनुष्य ईश्वर की शरण में पूरी श्रद्धा और सच्चे मन से चला जाता है, उसे वह कभी निराश नहीं करता। वह उसे अपनी शरण में ले लेता है।
         यदि मनुष्य परमात्मा को पाने की राह की पर चलना पड़ता है तो उसे सांसारिक सुखों से वितृष्णा हो जाती है, यानी वे उसे अच्छे नहीं लगते।  तब मनुष्य भौतिक सुख-साधनों से विरक्त हो जाता है। उसे ईश्वर का सान्निध्य अच्छा लगने लगता है। वह हर पल, हर क्षण उसका ही सिमरन करना चाहता है। जब मनुष्य सांसारिक सुखों को छोड़ने की इच्छा करता है, तभी वह परमात्मा के सामीप्य का आनन्द प्राप्त कर सकता है। अन्यथा तो सब ठीक ही चल रहा है।
           जब तक मनुष्य संसार सागर रूपी नाव से नीचे नहीं उतरेगा, तब तक वह परमात्मा रूपी नाव पर सवार नहीं हो सकता। दो नावों पर एकसाथ सवारी नहीं की जा सकती। इस प्रकार करने से डूबना अवश्यम्भावी है। प्रभु का सामीप्य मनुष्य के लिए परम वरदान है। इस कृपा को प्राप्त करने का मनुष्य को सदा यत्न करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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