रविवार, 20 अक्तूबर 2019

ताली एक हाथ से नहीं बजती

यह कथन बिल्कुल सत्य है कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है। हम अपने दोनों हाथों का प्रयोग करते हैं तभी ताली बजा सकते हैं। हाँ, एक हाथ से मेज थपथपाकर अपनी सहमति अथवा प्रसन्नता अवश्य ही प्रदर्शित कर सकते हैं।
        घर, परिवार अथवा समाज में लोगों के व्यवहार को देखते-परखते हुए ही हम इसका अनुभव कर सकते हैं।भाई-बहन, पति-पत्नी, मित्रों अथवा संबंधियों आदि में यदि मनमुटाव या झगड़ा होता है तब हम एक-दूसरे को दोष देकर अपना-अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं। यदि दोनों पक्षों की बात निष्पक्ष होकर सुन ली जाए तो पता चलता है कि गलती दोनों की होती है।
          यह तो हो ही नहीं सकता कि किसी एक की गलती के कारण झगड़ा हो जाए या वैमन्स्य हो। जब तक दोनों पक्ष आपस में न टकराएँ, तब तक दुश्मनी की नौबत नहीं आ सकती। इसलिए सावधानी रखनी आवश्यक है।
          यदि एक व्यक्ति चुप लगा जाए तो दूसरा कब तक बकझक करेगा। आखिर वह भी यह कहकर चुप हो जाएगा कि यह तो कुछ बोलता नहीं, कौन दीवारों से सिर फोड़े? समस्या तभी बढ़ती है जब दोनों ही बराबर की टक्कर दें। कोई भी व्यक्ति अपने आपको छोटा कहलाना पसन्द नहीं करता। इसलिए कोई भी झुकने के लिए तैयार नहीं होता। सब एक-दूसरे को देख लेने की धमकी देते हैं। तभी ऐसी कटु स्थिति बनती है।
          इसी प्रकार कार्यक्षेत्र में भी आपसी कटुता के कारण ही बास व कर्मचारियों के बीच मनमुटाव बढ़ता रहता है। इस कारण वहाँ कामबन्दी, तालाबन्दी अथवा धरने- प्रदर्शनों आदि की नौबत आती है।
        रिश्तों में भी अलगाव की स्थिति के लिए भी दोनों ही व्यक्ति जिम्मेदार होते हैं। एक का पक्ष लेकर दूसरे पर दोषारोपण करना अनुचित होता है। सभी समझदार लोगों को जागरूक रहना चाहिए और  दूसरों को भी सचेत करना चाहिए।
          रिश्तों में यदि झूठे अहं को छोड़कर दोनों थोड़ा-सा गम खा लें, तो बिखराव के कारण होने वाली बिनबुलाई समस्याओं से बचा जा सकता है।
        यह तो हो सकता है कि किसी एक की गलती दूसरे पर भारी पड़ जाती है। पर कमोबेश स्थिति यही होती है कि दोष दोनों का ही होता है। यह चर्चा हमारे भौतिक सम्बन्धों की है। 
        प्रकृति को हम दोष देते नहीं थकते कि वह हम पर अत्याचार करती है। कभी बाढ़ आ जाती है, कभी भूकम्प आ जाते हैं, कभी अतिवृष्टि होती है, कभी अनावृष्टि होती है, बीमारियाँ फैल रही हैं, हमारा पर्यावरण दूषित हो रहा है आदि। परन्तु क्या हमने कभी अपने गिरेबान में झाँककर देखा है कि इन सारी प्राकृतिक आपदाओं के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं। हमने स्वयं ही इनको दूषित करके सब मुसीबतों को न्यौता दिया है।
        प्रकृति से हम स्वयं छेड़छाड़ करते हैं। हम खुद को बहुत विद्वान मानते हैं। तभी प्राकृतिक संसाधनों का हम आवश्यकता से अधिक दोहन करते हैं। जब हम अपनी इन हरकतों से बाज नहीं आएँगे, तो उसका दण्ड कोई दूसरा नहीं हमें स्वयं को ही तो भोगना पड़ेगा। आज तक मुझे यह समझ नहीं आया कि फिर हम इतनी हाय तौबा क्योंकर करते हैं।
        प्रयास यही करना चाहिए कि जीवन में छोटी-मोटी कटुताओं को अनदेखा कर दिया जाए। उन्हें अनावश्यक तूल देकर आपसी सम्बन्धों की बलि न चढ़ाई जाए। सम्बन्धों को तोड़ने के लिए ताली को दोनों हाथों से न बजाएँ बल्कि उनमें मधुरता लाने का यथासम्भव यत्न करें।
चन्द्र प्रभा सूद
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