शनिवार, 18 जुलाई 2020

कुसंगति से मानहानि

कुसंगति से मानहानि

मान-सम्मान हर व्यक्ति को प्रिय होता है।एक छोटे बच्चे को भी यदि अपमानित किया जाए, तो वह भी उसे सहन नहीं कर पाता। वह रूठकर बैठ जाता है। फिर बड़ा व्यक्ति उसे कैसे आत्मसात कर सकता है? जिस व्यक्ति में आत्मसम्मान की भावना नहीं, वह मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं। उसे मनीषी मृत व्यक्ति के समान मानते हैं। मान मनुष्य का आभूषण है। अपने आत्मगौरव के लिए वह अपने प्राणों की बाजी तक लगा देता है।
          मनुष्य का मान तभी तक बना रहता है, जब तक वह अच्छी संगति में रहता है। यानी भले लोगों के साथ रहता है। जहाँ उसकी संगति बिगड़ी यानी किसी भी कारण से चाहे डर के कारण या लालचवश या किसी आकर्षण में फँसकर उसने कुसंगति की ओर अपना कदम बढ़ाया, वहीं उसका पतन आरम्भ हो जाता है। उस समय वह सज्जनों की छाया से भी परे भागने लगता है।
          किसी कवि ने उदाहरण देते हुए समझाने का प्रयास किया है कि दुर्जन की संगति से मनुष्य की कदम-कदम पर मानहानि होती है-
अहो दुर्जनसंसर्गात् मानहानि: पदे पदे।
पावको लोहसंगेन मुद्गरैरभिताड्यते॥
अर्थात् दुष्ट मनुष्य की संगति करने पर कदम-कदम पर मानहानि होती है। जब अग्नि लोहे के साथ मित्रता करती है, तो उसे लोहे के हथोड़े की चोट खानी ही पड़ती है।
        इसीलिए मनीषी हमें बारबार समझाते हैं कि कुसंगति का परिणाम हमेशा ही दुःखदायी होता है। संगति के बदल जाने से हर कदम पर मनुष्य को मानहानि का विष पीना पड़ता है । कवि ने यहाँ शक्तिशाली अग्नि का उदाहरण दिया है, जिसको छूने का भी कोई साहस नहीं कर पाता। ऐसी अग्नि की जब लोहे से मित्रता हो जाती है, तब उसे भी लोहे से बने हथौड़ी की मार झेलनी ही पड़ जाती है।
          इसीलिए मनीषी कहते हैं- 
           मानो ही महतां धनम्।
अर्थात् मान ही महान लोगों का धन है। और भी-
         एक मानधनो ही मनिन:।
अर्थात् मानी लोगों का एकमात्र धन मान है।
इन उक्तियों के अनुसार मान, आत्मसम्मान या स्वाभिमान मानी लोगों का एकमात्र धन है। वे लोग किसी भी मूल्य पर इसके साथ समझौता नहीं कर सकते। वे भूखे रहकर अपने प्राणों का बलिदान कर सकते हैं, परन्तु अपने स्वाभिमान का सौदा किसी शर्त पर नहीं कर सकते।
         यही कारण है कि वे अपनी संगति के प्रति सावधान रहते हैं। वे जानते हैं कि मनुष्य जिस संगति में रहता है, वह वैसा ही माना जाता है। यहाँ एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। दूध के मटके में यदि कोई शराब लेकर जाए तो लोग समझेंगे कि वह दूध बेचने जा रहा है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति शराब के मटके में दूध बेचने के लिए जाए, तो कोई भी उस पर विश्वास नहीं करेगा कि वह सत्य कह रहा है।
          यह सत्य है कि जो लोग महापुरुषों के सम्पर्क में रहते हैं, उनके दोष धीरे-धीरे स्वयं ही दूर हो जाते हैं। इसके विपरीत कुसंगति में रहने वाले अच्छे-भले लोगों में बुराइयाँ घर करने लग जाती हैं। यह सब संगति का प्रभाव ही कहा जा सकता है, इससे बच पाना किसी भी व्यक्ति के लिए असम्भव-सा प्रतीत होता है।
          अपने मान या स्वाभिमान को बचाए रखने के इच्छुक व्यक्ति के लिए सावधान रहना बहुत आवश्यक है। उसे अपनी संगति की ओर बारीकी से ध्यान रखना चाहिए। जहाँ तक हो सके मनुष्य को सज्जनों के संसर्ग में ही रहना चाहिए। परिणामतः कोई भी व्यक्ति उस पर न तो अँगुली नहीं उठा सकता है और न ही उसे अपमानित कर सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें