बुधवार, 2 सितंबर 2020

परम तत्त्व एक

 परम तत्त्व एक

ईश्वर परम तत्त्व है, उसे जानना व समझना इस मनुष्य जीवन का सार है। प्रमुख बात यह है कि वह ईश्वर एक ही है। इसके विषय में विश्व के सभी धर्मों ने अपने-अपने ग्रन्थों में लिखा है। अलग-अलग धर्म उस प्रभु को अलग-अलग नाम से पुकारते हैं। जिस प्रकार एक भौतिक मनुष्य पिता, बेटा, गुरु, बाबा, पति, मित्र, चाचा, मामा, फूफा आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। उसी प्रकार उस ईश्वर के अनेक नाम है, जिनसे लोग उसे बुलाते हैं।
         विश्व के आदिग्रन्थ ऋग्वेद में इस विषय में कहा गया है-
         एको हि सद् विप्र बहुधा वदन्ति।
अर्थात् सत्य यानी ईश्वर एक है, उसे विद्वान अनेक नामों से पुकारते हैं। यह उक्ति एकेश्वरवाद की स्थापना करती है। कितने धर्म, कितने ईश्वर के नाम, सब एक ही हैं। सब धर्मों की शिक्षा एक है और सबका ईश्वर भी एक ही है, नाम कोई भी हो सकता है। सुख में, दुख में सभी लोग उस ईश्वर को ही पुकारते हैं, किसी अन्य को नहीं।
          'महाभारत' में महर्षि वेद व्यास ने इस विषय में बताया है-
  एकवर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धेनुषु।
 तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मॄतम्।।
अर्थात् जिस प्रकार अनेक रंगों की गाएँ एक रंग का यानी सफेद दूध देती हैं, उसी प्रकार विभिन्न धर्मों में एक ही परम तत्त्व (ईश्वर) का उपदेश दिया गया है।
          इस श्लोक का तात्पर्य यही है कि विभिन्न रंगों की गौवों का दूध केवल सफेद रंग का होता है यानी एक ही रंग का होता है। गाय के रंग के जैसे दूध का रंग नहीं होता। उसी प्रकार वह परम तत्त्व ईश्वर भी एक ही है। चाहे उसे किसी भी धर्म में ढूंढ लो या किसी भी नाम से पुकार लो। इस सत्य कहीं कोई परिवर्तन आने वाला नहीं है कि वह प्रभु एक ही है, दूसरा कोई और नहीं हो सकता।
          ईश्वर की चाहे मूर्ति बनाकर पूजा कर लो यानी उसकी भक्ति सगुण रूप में कर लो या फिर बिना किसी आकर के उसे निर्गुण निराकार मान लो। इन दोनों ही अवस्थाओं में उसे किसी भी नाम से जप लो। इसमें कहीं कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला। इसका कारण है कि अन्ततः वह एकरूप और एकगुण वाला हो जाता है यानी हर प्रकार की पूजा पद्धति में सबको एक ही रूप में दिखाई देता है।
          दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जब ईश्वर की भक्ति चरम पर होती है, तो वह निर्गुण और सगुण भक्ति करने वाले सभी भक्तों को प्रकाश के रूप में दिखाई देता है। उस समय उसका कोई रूप नहीं रह जाता। वह बस निराकार या प्रकाश रूप में ही अपने भक्तों को दर्शन देता है। कोई भी साधक उसके इस दिव्य रूप का वर्णन अपनी इस जिह्वा से करने में समर्थ नहीं हो सकता। 
         ईश्वर के इस अद्भुत स्वरूप को कोई भी व्यक्ति इन भौतिक चर्म चक्षुओं से नहीं देख सकता। उसे केवल अन्तर्चक्षुओं से देख सकते हैं। परमात्मा के स्वरूप की व्याख्या 'नेति नेति' कहकर शास्त्रों में की गई है। यानी ईश्वर यह भी नहीं है और यह भी नहीं है। साधक की जिह्वा ईश्वर के देखे गए उस स्वरूप का वर्णन नहीं कर सकती। वह किसी को बताने में समर्थ नहीं होता कि वह ईश्वर कैसा दिखाई देता है। 
         साधक या भक्त की स्थिति ठीक गूँगे व्यक्ति की तरह होती है। जैसे गूँगा मनुष्य गुड़ खाता है और उसकी मिठास में खो जाता है। परन्तु वह व्यक्ति उस गुड़ का स्वाद अपनी जिह्वा से किसी को भी नहीं बता सकता। उसी प्रकार ईश्वर के उस दिव्य रूप को देखने वाले की स्थिति हो जाती है। उसकी वाणी मानो मूक हो जाती है। यह चमत्कार परमेश्वर के उस प्रकाश के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण होता है, उसके फलस्वरूप साधक की यह दशा हो जाती है।
           इस चर्चा के सार रूप में इतना ही कह सकते हैं कि जिस प्रकार नदियाँ चारों ओर से आकर समुद्र में एकाकार हो जाती हैं। उनकी पहचान खो जाती है। उसी ही प्रकार ये विभिन्न धर्म मानो अलग-अलग रास्तों से आकर उस एक परमेश्वर में मिल जाते हैं। उनमें भेद कर पाना सम्भव नहीं हो पाता। यही परम तत्त्व है, यही सार तत्त्व है। इसे समझने के उपरान्त सभी भेद समाप्त हो जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें