गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

इंसान नाशुकरा

इन्सान बड़ा ही नाशुकरा जीव है। उसे हम एहसानफरामोश अथवा कृतघ्न कोई भी नाम दे सकते हैं। अपने प्रति किए गए अहसान को बहुत ही जल्दी भूल जाता है। जब उसे आवश्यकता होती है तो वह गधे को भी बाप बनाने से नहीं चूकता। सारा समय आगे-पीछे घूमता रहता है। उसके पूरा हो जाने पर नज़रें मिलाने से भी परहेज करता है।
         आज के इस भौतिक युग में अनेक लोग हमें अपने आसपास ऐसे दिखाई देते हैं जिनके जीवन का मन्त्र है-
   जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ो उसे ठोकर मारकर गिरा दो।
ऐसे स्वार्थियों के कारण ही समाज में लोग  परस्पर विश्वास खोते जा रहे हैं। एक-दूसरे की सहायता करने से कतराने लगे हैं। घनिष्ठ संबंधों में भी संदेह घर कर रहा है। भाईचारा व मित्रता भी कहीं-कहीं शत्रुता में बदलने लगी है। ये स्थितियाँ समाज के लिए हानिकारक हैं।
       कभी-कभी सोचती हूँ कि क्या अपनी आने वाली पीढ़ियों को हम बीमार संबंधों वाला समाज सौंपेंगे? हम उनका स्वस्थ विकास कैसे कर पाएँगे? हमें अपनी बिमार मानसिकता से छुटकारा पाना होगा तभी स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा।
         ईश्वर ने सृष्टि में इंसान को सबसे श्रेष्ठ जीव बनाया है परंतु हमने अपनी मूर्खताओं से उस पर दाग लगा दिया है। जिसने संसार में उसे भेजा, दुनिया के सभी ऐश्वर्य दिए, उसे वह पृथ्वी पर आते ही किनारे कर देता है। थोड़ा-सी धन-संपत्ति पाकर वह गर्व से फूला नहीं समाता। अपने इसी अहम के कारण वह उसकी सत्ता को भी चुनौती देने की धृष्टता करता है। भूल जाता है कि उसका अपना कुछ भी नहीं है। जिस धन-संपत्ति, रूप-सौंदर्य, शक्ति आदि पर वह इठलाता फिरता है, वे सब भी उसके अपने नहीं हैं। वे सब उसे साधन के रूप में प्रभु ने दिए हैं। वह सदा ही उसके रहमोकरम पर है।
      व्यर्थ के अभिमान में आकर वह अपनों को ही चोट पहुँचा बैठता है। कहने का तात्पर्य है कि वह किसी का भी कृतज्ञ नहीं होता। यही कहता है कि किसी ने उसके लिए किया ही क्या है? उसने अपने बलबूते पर सब साधन जुटाए हैं। किसी को श्रेय देने का प्रश्न नहीं उठता। ईश्वर की हस्ती को भी नकारकर स्वयंभू बन बैठता है।
       मनुष्य भूल जाता है कि सभी ऐशो आराम जिस मालिक ने दिए हैं वह उन्हें वापिस भी ले सकता है। उसकी लाठी की आवाज़ नहीं होती पर जब वह चलती है तो बड़ी गहरी चोट लगती है। फिर चोट लगने पर वह तिलमिलाता है और सभी को पानी पी पीकर कोसता है। अपनी गलती न मानकर दूसरों को दोष देता है।
         होना तो यह चाहिए कि जो भी कोई व्यक्ति हम पर उपकार करे या राई भर भी हमारी सहायता करे उसका धन्यवाद करना चाहिए। यथासंभव दूसरों की सहायता का यत्न करना चाहिए। इसी प्रकार आदान-प्रदान से ही समाज चलता है। दूसरों के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करना एक मानवीय गुण है। हमें ऐसे उपयोगी गुणों का त्याग नहीं करना है।
       मैं सभी मित्रों से अनुरोध करती हूँ कि उस दाता के उपकार को हमेशा याद रखिए। अपने वृथा अभिमान को त्याग कर सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते ईश्वर का धन्यवाद करें। वही सच्चा सहायक है, उसी की शरण में जाएँ। ऐसा करने पर ही जीवन में सच्चा सुख मिल सकता है।

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