शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

शिष्य भी महान

गुरु की महत्ता का गुणगान प्रायः हम सभी करते हैं परन्तु शिष्य के महत्त्व की चर्चा करते समय हम कंजूस हो जाते हैं। यदि शिष्य है तभी गुरु है। शिष्य के बिना गुरु का आधार नहीं और गुरु के बिना शिष्य अपूर्ण है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है और दूसरे के बिना पहला।
        वैसे यदि हम विचार करें तो पाएँगे कि गुरु के साथ-साथ शिष्य का महत्त्व भी कम नहीं है। गुरु का कार्य है कच्ची मिट्टी के समान शिष्य को अपने सद् विचारों के अनुरूप ढालकर, मनचाहा आकार देकर उसे योग्य बनाए। शिष्य का कर्तव्य है कि गुरु प्रदत्त ज्ञान को जीवन में ढाले और उसका विस्तार करे। इसी प्रकार ही गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहण होता है। दोनों को ही यश प्राप्त होता है।
       यदि गुरु चरित्रवान होगा तो उसके शिष्यों में भी वही संस्कार आएँगे और वे सुसंस्कृत बनेंगे। इसके विपरीत यदि गुरु अपने गुरुत्व को ताक पर रखकर दुराचारी, अनाचारी व पथभ्रष्ट होगा तो शिष्य उससे भी बढ़कर कुमार्गगामी होंगे। कहने का तात्पर्य है कि जैसे माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव बच्चों पर पड़ता है उसी प्रकार गुरु के संस्कारों का प्रभाव भी शिष्यों पर होता है।
         इसीलिए गुरु से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने जीवन को शिष्यों के समक्ष उदाहरण की भाँति प्रस्तुत करे ताकि उसके शिष्य उसके बताए मार्ग पर चलकर गौरव अनुभव करें। उन्हें अपने गुरु के कुमार्गगामी होने अथवा उसके कुकृत्यों के कारण समाज में तिरस्कृत न होना पड़े।
        मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे शिष्य को पाकर कौन ऐसा-सा ऐसा गुरु होगा जो निहाल नहीं होगा। हर गुरु ऐसा ही शिष्य पाने की कामना करता है जो उसके जीवन को धन्य कर दे और युगों-युगों तक उसे इतिहास में अमर कर दे।      
        गोरखनाथ जैसे शिष्य धन्य हैं। उन्होंने तो अपने गुरु मछन्दर दास को ही तार दिया। वे राज्य पाकर भोग-विलास में डूब गये थे। गोरखनाथ जी को अपने गुरु के इस आचरण पर दुख हुआ और वे उन्हें उस जीवन से बचाकर वापिस वैराग्य जीवन में लौटा लाए।
      शिष्य बालक आरुणि की जंघा पर गुरु सो रहे थे। आरुणि को एक कीड़े ने काट लिया। वह पीड़ा से व्याकुल हो गया। वह केवल इसलिए हिलाडुला नहीं कि गुरु की नींद न खुल जाए।
         गुरु आचार्य चाणक्य को भी चन्द्र गुप्त मौर्य जैसे शिष्य की ही तलाश थी जो बिना कोई प्रश्न किए अपने गुरु के हर आदेश का अक्षरशः पालन करके उनके अखण्ड भारत के स्वप्न को साकार कर सकता।
        गुरु श्री विरजानन्द जी भाग्यशाली थे जिन्हें स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसा शिष्य मिला। उन्होंने अपने गुरु को भी इतिहास में अमर कर दिया।
       इतिहास ऐसे योग्य शिष्यों के महत्त्वपूर्ण कार्यों के उदाहरणों से भरा हुआ है जिनके कारण उनके गुरु अमर हो गए। आज भी हम उन अभूतपूर्व प्रतिभाशाली शिष्यों को याद करके श्रद्धावनत हो जाते हैं जिन्होंने अपने गुरुओं को अमर कर दिया। बस उनको ढूँढने की आवश्यकता है।

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