रविवार, 2 सितंबर 2018

सार ग्रहण करना

विद्वान मनीषी जिस भी परिवेश में रहते हैं, वहाँ से वे सदा ही कुछ-न-कुछ सीखते रहते हैं। सीखना चाहें तो एक बच्चे से ज्ञान लिया जा सकता है। पशु-पक्षियों से भी सीखा जा सकता है। जो न सीखना चाहे वह विद्वानों की संगति में रहकर भी कुछ नहीं ग्रहण कर सकता, वह मूर्ख ही रहता है। इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि कुँए के पास जाकर भी वह मनुष्य प्यासा रह जाता है। मनुष्य को जहाँ तक हो सके ज्ञानार्जन की पिपासा को जिलाए रखना चाहिए, उसे बुझने नहीं देना चाहिए। सारी आयु सीखते रहने पर भी लगता है कि अभी बहुत कुछ है सीखने के लिए।
            ब्रह्माण्ड में अक्षय ज्ञान का भण्डार है, जिसे न जाने कितने जन्म लग जाएँगे सीखने में। सारी प्रकृति मनुष्य को सिखाने के लिए तैयार बैठी है, पर शर्त यह है कि कोई सीखना तो चाहे तब न। जहाँ से भी सार्थक ज्ञान मिले उसे आत्मसात कर लेना चाहिए। जो भी बुराई दिखे उसकी ओर ध्यान ही नहीं देना चाहिए, उसे अनदेखा कर देना ही समझदारी कहलाती है। तभी मनुष्य कुछ सीख पाता है, जान पाता है।
             विद्वान को हंस की तरह नीर-क्षीर विवेकी होना चाहिए। कहते हैं हंस दूध में से दूध और पानी को अलग कर देता है। उसी तरह सज्जन को भी सर्वत्र सार-सार ग्रहण करके फालतू बातों को उड़ा देना चाहिए। उनमें अपना दिमाग खराब नहीं करना चाहिए, उससे किसी भी तरह उनका भला नहीं होने वाला।
          कबीरदास जी ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में हमें समझाने का प्रयास किया है। वे कहते हैं-
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
अर्थात् साधु या विद्वान का स्वभाव ऐसा होना चाहिए जैसे सूप (छाज) का स्वभाव होता है। वह सार यानी उपयोगी वस्तु को ग्रहण कर लेता है और जो थोथा यानी अनावश्यक कूड़ा-कर्कट होता है, उसे उड़ा देता है।
            कबीरदास जी का यह कथन बहुत ही सार्थक और उपयोगी है। अपने लिए जो भी संग्रहणीय है, सार युक्त है, उसे मनुष्य को ग्रहण कर लेना चाहिए। जो भी अनर्गल वार्ता हो रही हो उसे एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देना चाहिए अथवा अनदेखा कर देना चाहिए। सज्जन इसीलिए गुणी होते हैं क्योंकि वे कबीरदास जी की बात को सदा स्मरण रखते हैं और उस पर आचरण करते हैं।
          संस्कृत भाषा के एक विद्वान कवि ने बहुत सरल भाषा में इसी बात को समझाने का प्रयास किया है-
अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च  शास्त्रेभ्य: कुशलो नर:।
सर्वत: सारमादद्यात्  पुष्पेभ्य इव षट्पद:।।
अर्थात् समझदार व्यक्ति को शास्त्रों में से उनका सार निकाल लेना चाहिए, जैसे मधुमक्खी या भंवरा सभी प्रकार के फूलों मे से केवल मधु एकत्रित करता है।
             कवि का कथन है कि समझदार व्यक्ति को अपने शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए। उसे अपने लिए सार तत्त्व को ग्रहण करना चाहिए। इसी श्लोक में मधुमक्खी एवं भँवरे का उदाहरण भी दिया है कि वे फूलों पर मँडराते हैं और अपने मतलब के लिए मधु को एकत्र करके उड़ जाते हैं। बाकी फूल से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता, वे फूल की ओर देखते भी नहीं हैं।
           जो मूर्ख होते हैं वे अनावश्यक चर्चाओं में अपना समय और ऊर्जा व्यर्थ गँवाते है। जिस समय परिश्रम करना चाहिए, उस समय वे अनर्गल प्रलाप करते हैं। इसलिए सफलता उनसे दूर-दूर भागती रहती है। उनके हाथ नहीं लगती। सफलता आगे-आगे भागती है और वे पीछे-पीछे। वे चाहकर भी उस तक पहुँच नहीं पाते। इसलिए मूर्ख लोग विद्वानों से ईर्ष्या करते हैं। इसका कारण है स्वयं तो वे कुछ करते नहीं और उनकी परिश्रमपूर्वक कमाई गई सफलता से खुश नहीं होते। उनका तो कुछ बिगड़ता नहीं है। वे बस दुखी होते रहते हैं और अपना खून जलाते रहते हैं।
            विद्वान भी यदि स्वयं को सर्वज्ञ समझने लगे तो समझो उसका पतन निश्चित है। ऐसे लोग मानने लगते हैं कि इन ग्रन्थों में जो लिखा है, वह सब उन्हें पता है। दूसरे सभी लोग उसके सामने पानी भरते हैं, वे उसके पासंग भी नहीं हैं। ऐसे अहंकारी विद्वान का पतन निश्चित होता है। इसलिए विद्वानों के लिए स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि अपने ग्रन्थों के मूल तत्त्व यानी जीवनोपयोगी सार को ग्रहण करके अपने जीवन को सफल बनाएँ। इस प्रकार करने से उनका इहलोक और परलोक सुधर जाता है। यही ज्ञानी लोग समाज के दिग्दर्शक कहलाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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