शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

ईश्वर की परीक्षा

परमात्मा सज्जनों की बहुत कड़ी परीक्षा लेता है किन्तु उनका साथ कभी नहीं छोड़ता। विद्यालय या कालेज में जब भी विद्यार्थियों की परीक्षा ली जाती है तो उसका अर्थ यही होता है कि विद्यार्थी उस परीक्षा में सफल होकर अगली परीक्षा के लिए तैयार हो रहा है।
       स्कूल की परीक्षाओं में सफल होने के बाद कालेज की परीक्षाओं से उसे गुजरना पड़ता है। उसके बाद नौकरी पाने की परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ती है। फिर जीवन की भागदौड़ में आयुपर्यन्त उसे एक के बाद एक समस्याओं से जूझना पड़ता है, उससे छुटकारा नहीं मिलता।
        इसी तरह जीवन की इन परीक्षाओं का क्रम निरन्तर चलता रहता है। मनुष्य एक परीक्षा में सफल होता है तो फिर एक नई परीक्षा उसकी प्रतीक्षा में पलक-पाँवड़े बिछाए तैयार बैठी होती है। उसे जीवन भर इनसे दो-चार होते रहना होता है और फिर निश्चित ही सफल भी होना होता है।    
        इसीलिए इस जीवन को युद्धभूमि कहा जाता है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त मनुष्य बस कभी स्वयं से तो कभी अपनी परिस्थितियों से अनवरत संग्राम करता ही रहता है। शायद मानव जीवन की यही त्रासदी कहलाती है।
         बार-बार इन परीक्षाओं में उलझने का कारण है कि वह मालिक मनुष्य को सोने की तरह खरा बनाना चाहता है। जैसे सोने को शुद्ध करने के लिए उसे अग्नि में तपाया जाता है उसी प्रकार ईश्वर मनुष्य को दोषमुक्त तथा शुद्ध-पवित्र बनाने के लिए कठिन परीक्षाओं में डालता है यानी कष्टों और परेशानियों की अग्नि में तपाता है। ताकि मनुष्य कुन्दन की तरह निखरकर सबके समक्ष आ सके।
        यह शुद्धता केवल मात्र शरीर या मन की नहीं होती बल्कि मन, वचन और कर्म तीनों की होती है। ईश्वर चाहता है कि उसका प्रियजन जो भी विचार अपने मन में करे, वैसा ही अपनी वाणी से बोले और फिर उसी के अनुसार आचरण भी करे।
         मनुष्य मन में कुछ और सोचे तथा वाणी से कुछ अलग बोले और आचरण सर्वथा विपरीत करे तो यह उसके व्यवहार की कुटिलता होती है, सरलता या सहजता नहीं कहलाती। जब तक मन, वचन और कर्म से वह एक नहीं होगा तब तक उसके कथन का स्थायी प्रभाव दूसरे लोगों पर नहीं पड़ सकता। यह बात उस मालिक को बिल्कुल पसन्द नहीं है।
        दुखों और परेशानियों की भट्टी में तपकर मनुष्य जब खरे सोने की तरह  विशुद्ध और चमकदार बन जाता है। तब इस खरे सोने को वह मालिक फिर वैसे ही अपने पास सम्हालकर रख लेता है जैसे अपने स्वर्णाभूषणों को हम तिजोरी में, बैंक के लाकर आदि में सुरक्षित रख देते हैं।
         इसके विपरीत दुर्जनों को भगवान देता तो बहुत कुछ है परन्तु उन्हें अपना साथ नहीं देता। अर्थात वह उन्हें अपने से विमुख कर देता है। उनके मन में रहता हुआ, उन्हें चेतावनी देता हुआ भी उनकी पहुँच से दूर हो जाता है। उस समय उन दुर्जनों की पूजा-अर्चना, दान आदि सब मात्र प्रदर्शन के लिए ही रह जाते हैं क्योंकि उस प्रभु को दूसरों को कष्ट देने वाले, मारकाट, चोरी, भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोरी आदि अनैतिक कार्य करने वालों की तथाकथित भक्ति नहीं चाहिए होती।
         वे जब तक अपने सभी कुकृत्यों को त्यागकर सहृदय, परोपकारी, दयालु नहीं बन जाते तब तक वह दर्शक की तरह बना रहता है। वह मालिक तब तक उनका हाथ नहीं थामता जब तक वे अपने सच्चे मन से प्रायश्चित नहीं करते।
        सज्जनों की महानता कर्मठता, सहृदयता, दूसरों के प्रति सहानुभूति का भाव ही उन्हें दुर्जनों से अलग करते हैं। इसीलिए वे लोकप्रिय बन जाते हैं। समाज उन्हें हृदय से सच्चा हितैषी व मार्गदर्शक स्वीकार करता है। दुष्ट सबकी आँखों की किरकिरी बनते हैं। मजबूरी में उनके साथ कोई सम्बन्ध रख सकता है पर मन से उनके साथ जुड़ाव नहीं कर पाते। उनके मुँह के सामने वे डर के मारे कुछ न कह पाएँ पर पीठ पीछे सदा उनकी अवमानना ही करते हैं।
        मनुष्य को स्वय ही यह निश्चित करना है कि वह ईश्वर का कृपा पात्र बनना चाहता है अथवा मालिक से दूरी बनकर अपयश की भागी बनना चाहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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