शनिवार, 15 सितंबर 2018

मन को साधना

मानव का मन अथाह शक्तियों से परिपूर्ण है। वह चाहे तो कुछ भी कर सकता है। बस आवश्यकता है तो इसे जानने और समझने की है। इसलिए स्वयं को जानने के लिए इसका आलोड़न करते रहना चाहिए। स्वयं का मन्थन अर्थात आत्मचिन्तन करते रहना चाहिए। अपने जीवन को जितना अधिक तपाओगे, उतना ही वह स्वर्ण की भाँति चमकेगा। उस स्थिति में मनुष्य कभी हार नहीं मानता अपितु सदाबहार व्यक्ति बन जाता है। जन साधारण स्वत: उसका अनुयायी बन जाता है। उसे किसी को  यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसका तेज, उसका ओज ही उसके प्रमाण होते हैं।
           यहाँ हम दूध का उदाहरण लेते हैं। सभी सुधी जन जानते हैं कि दूध हर मनुष्य के जीवन में बहुत उपयोगी है। यदि उसे बाजार से लाकर बिना उबले यूँही रख दिया जाए तो वह एक ही दिन में खराब हो जाता है। दूध में जरा-सा जामन डालने से वह दही बन जाता है। तब वह दो-तीन दिन टिकता है। दही बने दूध का मन्थन करने पर वह मक्खन बन जाता है। यह और दो-तीन दिन टिक जाता है। परन्तु जब मक्खन को उबालकर घी बना लिया जाता है तो घी खराब नहीं होता। बहुत समय तक चल जाता है। यह कहलाती है दूध की क्रिया और प्रक्रिया।
            कहने का तात्पर्य यह है कि एक ही दिन में  दूषित या खराब हो जाने वाले दूध में न बिगड़ने वाला घी छिपा रहता है। उसे खोजने के लिए बस एक परखी नजर की आवश्यकता होती है। यानी इस दूध को विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरकर, अग्नि में तपकर ही नया स्थायी रूप प्राप्त होता है। इसी प्रकार सोने को भी अग्नि में तपाकर ही सुनार उसके खोटेपन या खरेपन का ज्ञान करने में समर्थ होते हैं।
         बहुत वर्ष तक घर में या लाकर में पड़े रहने पर सोने की चमक खोने लग जाती है। इसलिए किसी शुभ अवसर पर जब उसे उपयोग में लाना होता है तो उस आभूषण को सुनार के पास ले जाकर पहले पालिश कराया जाता है। तब वह आभूषण चमकते हुए पुनः अपने असली स्वरूप में आ जाता है। यानी फीका-फीका दिखने वाला वह आभूषण चमकने लगता है और पहनने वाले की शोभा में भी चार चाँद लग जाते हैं।
           इसी प्रकार मनुष्य के मन पर भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि की काली परत कब जम जाती है, पता ही नहीं चलता। इसलिए उसमें नकारात्मक विचारों का उदय होने लगता है। फलस्वरूप वह सदा अशान्त रहता है। उस परत को हटाने के लिए बार-बार इस चंचल मन को सुविचारों की खुराक देनी पड़ती है। वैराग्य और साधना की भट्टी में इसे तपाया जाता है। तब कहीं जाकर यह मन सात्विक या सकारात्मक विचारों वाला बनता है। उस समय उसे मानसिक शान्ति का अनुभव होने लगता है। तब उसे समझ आने लगता है कि इन कुविचारों से उसका कुछ भी भला नहीं होने वाला। वे उसे सन्मार्ग पर नहीं कुमार्ग की ओर ले जा सकते हैं, जहाँ उसका पतन होना निश्चित होता है।
          मन में जब सात्विक विचारों का उदय होने लगता है। तब उसमें आत्मिक बल की वृद्धि होती है। ऐसा मनुष्य समदृष्टि वाला बन जाता है। फिर वह सब जीवों को समान दृष्टि से देखने लगता है। उनके सुख और दुख को अनुभव करने वाला बन जाता है। वह क्षमाशील बन जाता है। दूसरों के हृदयों को परिवर्तित करना चाहता है। उस समय उसे किसी की निन्दा या चुगली करना न अच्छा लगता है और न ही सुनना भाता है। वह अपने सच्चाई के रास्ते पर चलकर प्रसन्न रहता है। उसे किसी की परवाह नहीं रहती कि कोई उसके बारे में क्या कहता है? चाहे कोई उसकी निन्दा करे या प्रशंसा, वह जल में कमल की भाँति निर्लिप्त भाव से रहता है।
            जब मनुष्य का मन प्रसन्न होता है तो वह उत्साह से परिपूर्ण होता है। हर कार्य में उसका मन लगने लगता है। यही वह समय होता है जब वह कोई भी चमत्कार कर सकता है। तब वह किसी का मुँह नहीं देखता। वह कठिन-से-कठिन कार्य को सरलतापूर्वक पूर्ण करके सबको अचम्भित कर देता है। यदि कार्य करते समय कभी कठिनाई का सामना करना पड़ जाए तो उसे वह शूल नहीं बल्कि फूलों की तरह प्रतीत होती है। इसीलिए मनीषी कहते हैं-
      मन के जीते जीत है, मन के हारे हार है।
जिसने मन को अपने वश में कर लिया या जीत लिया उसके लोक और परलोक दोनों ही सुधर जाते हैं। इसके विपरीत जो मन का दास बन गया उसका पतन निश्चित होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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