शनिवार, 12 नवंबर 2016

मृत्यु विश्राम स्थली

दिनभर भागदौड़ करते हुए जब मनुष्य थक जाता है तो वह रात्री उसके लिए विश्राम स्थली बन जाती है। नींद पूरी कर लेने के पश्चात प्रातःकाल नए दिन की चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए वह तरोताजा हो जाता है।
         उसी प्रकार जीवन पर्यन्त संसार सागर में द्वन्द्वों के थपेड़ों को झेलता हुआ मनुष्य बहुत थक जाता है, तब जीव को भी विश्राम की महती आवश्यकता होती है। वह उसे मृत्यु की गोद में जाकर मिलता है। इसे हम दूसरे शब्दों में चिरनिद्रा भी कह सकते हैं।
         एक जन्म से दूसरे जन्म की यात्रा करते समय यह मृत्यु एक पड़ाव है। इसे हम आम भाषा में होटल या धर्मशाला में ठहरना भी कह सकते हैं। यहाँ पर यात्री निश्चित अवधि के लिए रुकता है और फिर आगे की अपनी यात्रा पूर्ण करने के लिए चल पड़ता है। इसी प्रकार मृत्यु की अवधि को पार करके जीव अपनी आगे की यात्रा के लिए तैयार हो जाता है।
        मृत्युकाल की अवधि जीव के कर्मों के अनुसार निश्चित होती है। मनीषी ऐसा मानते हैं कि पुण्यात्माओं को पुराना शरीर छोड़ते ही नया शरीर मिल जाता है। जिन लोगों के खाते में पापकर्मों की अधिकता होती है वे जीव ब्रह्माण्ड में निरूद्देश्य घूमते रहते हैं। उन्हें काफी समय पश्चात ही नया जन्म मिलता है।
          इस प्रकार मृत्यु के पश्चात स्वयं द्वारा कृत शुभाशुभ कर्मों के अनुसार जीव को चौरासी लाख योनियों में से किसी भी योनी में निश्चित समयावधि के पश्चात नया जन्म मिलता है। उसके लिए उसकी मर्जी नहीं पूछी जाती। इस सबके लिए उसके कर्म ही प्रधान होते हैं।
         जो जीव ब्रह्माण्ड में यानी शून्य में विचरते रहते हैं उन्हें ही आम भाषा में भूत और प्रेत की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। ये अपने नए जन्म की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
       मृत्यु से भयभीत नहीं होना चाहिए। जन्म के पश्चात मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म जीव की स्वभाविक प्रक्रिया है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है-
               वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
               नवानि   गृह्णाति   नरोSपराणि।
               तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
               न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
अर्थात जिस प्रकार पुराने वस्त्रों को छोड़कर मनुष्य नए वस्त्र ग्रहण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीरों को त्यागकर नए शरीरों को धारण करती है।
          कहने का तात्पर्य यही है कि शरीर परिवर्तन जीव या आत्मा का स्वभाव है। शरीर का मोह मनुष्य को होता है, आत्मा को नहीं। मनुष्य सारा जीवन इस नश्वर भौतिक शरीर को सजाने-संवारने में लगा रहता है। दूसरों से अधिक सुन्दर दिखाई देने के लिए घर में रहते हुए उपाय करता है, ब्यूटी पार्लर में जाकर लाखों रुपए और समय खर्च करता है।
        फिर भी यह शरीर एक दिन उसका साथ छोड़ देता है। तब मनुष्य के प्रिय बन्धु-बान्धव उसे थोड़ा समय भी घर में नहीं रखते बल्कि अग्नि के हवाले कर देते हैं। यह शरीर मनुष्य को छोड़कर अग्नि में भस्म हो जाता है और इस शरीर में रहने वाला जीव अपनी अगली यात्रा के लिए चल पड़ता है।
         मृत्यु को दुखदायी या बीभत्स नहीं मानना चाहिए। यह तो जीव के रूप का मात्र परिवर्तन करती है। यदि ईश्वर ने मृत्यु का विधान न रखा होता तो सृष्टि के आदी से अब तक जीवों की मानो बाढ़-सी आ जाती। इस पृथ्वी पर तिल रखने की जगह न बचती। इसीलिए मनीषी हमें समझाते हैं कि जो भी जीव इस असार संसार में आया है उसका अन्त निश्चित है।
         मृत्यु से घृणा करने अथवा उससे डरने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। जीवन की बाजी हार चुके, थके-माँदे, बीमारियों से जूझते, एक्सीडेंट में लाचार हो रहे लोगों के लिए नवजीवन का उपहार है, उनकी विश्राम स्थली है। जीवनकाल में ऐसे शुभकर्म कर लेने चाहिए जिससे मृत्यु के भय से मुक्त हुआ जा सके। जिस प्रकार आने वाले नए जीवों का हम स्वागत करते हैं उसी प्रकार मृत्यु का भी स्वागत करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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