मंगलवार, 15 नवंबर 2016

बालमन की पीड़ा- लघुकथा

'चिड़िया उड़। कौआ उड़। मोर उड़। हाथी उड़। पतंग उड़।' 
        यह खेल बाहर बरामदे में बच्चे बड़े उत्साह से खेल रहे थे। बीच-बीच में उनके चीखने-चिल्लाने की आवाजें भी आ रही थीं- “तू बेईमानी कर रहा है, मुझे नहीं खेलना तेरे साथ।”
दूसरी आवाज आई- “ऐसे कैसे नहीं खेलेगा, मेरी बरी तो अभी आई ही नहीं।”
         बच्चे खेलते हों और बेईमानी न करें, ऐसा तो हो नहीं सकता। उनका तो काम ही लड़ना-झगड़ना और रूठना-मानना है।
         खेल की आवाजें माधवी के कानों में पड़ रही थीं। धीरे-धीरे उसके मन की डायरी के पन्ने खुलने लगे। वह अपने बचपन में खोने लगी। उस समय उन बच्चों का काम होता था बस दिनभर धमा-चौकड़ी मचाना। आस-पड़ौस के सभी घर अपने ही रिश्तेदारों के थे। इसलिए कहीं भी आने-जाने पर कोई रोक-टोक नहीं थी।
       इधर-से-उधर वे सभी साथी चहकते फिरते थे। हममें से किसी को भी समझ में नहीं आया कि एक दिन अचानक ऐसा क्या हो गया कि माँ ने कहा- “आसपास के रिश्तेदारों के घर जाने की कोई जरुरत नहीं है। बस अपने ही घर में खेलो।”
मैंने पूछा- “क्यों माँ, क्या हो गया?”
माँ ने बस झल्लाते हुए कहा- “एक बार कह दिया न, तुम्हें समझ नहीं आ रही।”
          इस तरह सब बच्चों को मना कर दिया गया। हम सभी बच्चे बड़ों के इस तुगलकी फरमान से बेहद परेशान हो गए थे।
         बच्चों को तो बस खेल-कूद और मौज-मस्ती ही करनी होती है। थोड़े दिनों के बाद बस इतना ही पता चल सका कि सखी रचना बीमार है और अस्पताल में भर्ती है। यह हमारे लिए चौंकाने वाली खबर थी। कल तक तो हमारे साथ खेल रही वह। रातोंरात ऐसी क्या बीमार हो गई कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा। बहुत पूछने पर भी हम लोग कारण न जान पाए बल्कि डाँटकर चुप करा दिए गए।
         कुछ वर्ष बीतने पर जब मैं बड़ी हुई तो पता चला कि पड़ौस में रहने वाले राकेश अंकल ने उस बच्ची के साथ घिनौना खेल खेला था। इसी कारण रचना को बहुत कष्ट हुआ था और अस्पताल ले जाना पड़ा था। लोकलाज के डर से इस बात को वहीं दफन कर दिया गया था। रचना आज भी उस असह्य मानसिक व शारीरिक पीड़ा से उभर नहीं पाई। 
          उन पड़ौसी राकेश अंकल का सामाजिक रूप से बहिष्कार कर दिया गया था। लाख माफी माँगने के बाद भी अभी भी किसी ने उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखा। आजतक वे अपनी उस एक भूल के लिए मानसिक ग्लानि का शिकार हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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