शनिवार, 5 नवंबर 2016

अपनी सामर्थ्य पहचानें

मनुष्य अपनी स्वयं की शक्ति व कमजोरी को भली-भाँति जानता है। उससे बढ़कर और कोई बेहतर तरीके से उसे जान-समझ नहीं सकता। इसलिए जैसा वह चाहता है उसे स्वयं ही अपने रास्ते का चुनाव कर लेना चाहिए।
       मनुष्य यदि साहसी है तो वह अपने लिए चुनौतियों भरी कठिन डगर चुनेगा। उस पर जगल के राजा शेर की तरह गर्व से सिर उठाकर चलेगा। रास्ते में आने वाली उन कठिन चुनौतियों से घबराकर वह कभी पीछे नहीं पलटेगा बल्कि उनको मुँहतोड़ करारा जवाब देता हुआ, आगे बढ़कर सफलता के झण्डे गाड़ेगा। अपनी जुझारू प्रकृति के कारण ही ऐसे लोग अपना उदाहरण स्वयं बन जाते हैं।
       ये लोग भीड़ के पीछे नहीं चलते, भीड़ उनका अनुसारण करती है। वैसे भीड़ की यह आदत है कि वह हमेशा उस रास्ते पर चलती है जो रास्ता आसान दिखाई देता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिए कि भीड़ हमेशा सही रास्ते पर ही चलती है।
        भीड़ में या झुण्ड में भेड़, बकरी आदि जीव चलते हैं जो अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं कर सकते। जिसने जिधर हाँका उधर चलने लगे। कुछ डरपोक मनुष्य भी इसी तरह दूसरों का मुँह ताकते रहते हैं यानी उनके आदेश की प्रतीक्षा करते रहते हैं। अपनी बुद्धि को मानो वे जंग लगने के लिए ताक पर रख देते हैं।
         जो लोग अपनी क्षमताओं का कभी आकलन नहीं कर पाते वे स्वयं को सदा ही असहाय अनुभव करते हैं। उन्हें दूसरों का मुँह ताकने की आदत पड़ जाती है। वे चाहते हैं कि बचपन की तरह उनकी अँगुली थामकर कोई पार ले जाए।
       ऐसा सम्भव नहीं हो पाता क्योंकि हर सहारा देने वाला मनुष्य दूसरे से प्रतिदान की कामना करता है। वह ऐसे व्यक्ति को अपने गुलाम से अधिक और कुछ भी नहीं समझता। इस तरह उस व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही खण्डित हो जाता है। वह अपना आत्मविश्वास खो देता है जो उसकी पूँजी है और ईश्वर की ओर से उपहार में मिली हुई है।
        मनुष्य को आत्मचिन्तन करके अपनी ताकत और कमजोरी को पहचान लेना चाहिए। जितनी भी अपनी क्षमता है, उसके अनुसार धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहने के लिए कटिबद्ध रहना चाहिए। सफलता हाथ लग ही जाती है। कहते हैं- 'slow and study wins the race.'
         कबीरदास जी ने इसी विषय पर प्रकाश डाला है-
           धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय।
           माली सींचै सो घड़ा ऋतु आए फल होय।।
अर्थात यदि मनुष्य धीरे-धीरे जुटा रहे तो अपने लक्ष्य का संधान कर ही लेता। उतावलेपन से कुछ भी हल नहीं होता। बीज बोने के बाद यदि माली सौ घड़े पानी से सींचाई कर भी ले पर अपनी उपयुक्त ऋतु के आने पर ही फल मिलता है।
       धीमी गति से बिना थके चलते हुए एक कछुआ जब तेज भागने वाले खरगोश से रेस को जीत सकता है तो मनुष्य क्यों नहीं? कछुए और खरगोश के उदाहरण को बस अपने मन में याद रखकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते चले जाने में सदा समझदारी होती है।
         मनुष्य को उस कार्य में कभी हाथ नहीं डालना चाहिए जो उसकी सामर्थ्य से परे हो। दूसरों के बहकावे में आकर भी उसे कभी गलती नहीं करनी चाहिए। यदि वह जबरदस्ती किसी कार्य को करना चाहता है तो उसे मुँह की खानी पड़ सकती है। और फिर जगहँसाई होती है सो अलग। इस तरह नाकामयाब होने का ठप्पा जब लग जाता है तो मनुष्य चाहकर भी उस दाग को नहीं धो पाता।
        मनुष्य चाहे तो अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और आत्मिक बल पर शारीरिक बल के कम होने पर भी चमत्कार कर सकता है। बस उसे केवल स्वयं को पहचानने की आवश्यकता भर है। उसे अपनी दुर्बलताओं को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। 'मैं कमजोर हूँ' ऐसा रोना रोते रहने से कुछ भी नहीं होने वाला। अपनी कमजोरियों को वश में करने से ही स्वाभिमानी मनुष्य महान बनकर इतिहास में अमर हो जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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