सोमवार, 14 नवंबर 2016

सहृदय मानव

मानव मन बहुत ही सहृदय होता है। कुछ लोग अपने कृत्यों से उसे पत्थर-सा कठोर बना लेते हैं। वे इस प्रकार का प्रदर्शन करते हैं कि कोई जिए या मरे, उन्हें किसी की भी कोई परवाह नहीं है। परन्तु हर समय ऐसा हो नहीं पाता है। समय आने पर बड़े-बड़े पत्थर दिल इन्सानों को फूट-फूटकर रोते हुए यानी मोम-सा पिघलते हुए देखा जा सकता हैं।
        यह भी सत्य है कि दिल से कही हुई अथवा लिखी हुई बातें अक्सर दूसरों के मन पर गहरा वार कर जाती हैं। ये बातें किसी के भी दिल को गहराई तक छूने की सामर्थ्य रखते हैं। इसका कारण है मानव का संवेदनशील होना। किसी पराए की भी मर्मस्पर्शी बातें सुनकर वह बहुत बेचैन हो उठता है। इसलिए ये अक्सर अनोखी बात कह जाता हैं तथा उनकी सहायता करने के लिए तत्पर हो जाता है।
        जब मनुष्य बहुत दुखी होता है, उसे असहनीय पीड़ा होती है तब उसके आँसू छलक जाते हैँ। उस अपार दुख के समय में उसकी स्वयं की एक ही अँगुली उसके आँसू पोंछने के लिए आगे बढ़ती है। परन्तु इसके विपरीत जब वह सुखी व सम्पन्न होता है अथवा प्रसन्न होता है तब उसकी दसों अँगुलियाँ ताली बजाती हैं। यानी वे प्रसन्नता प्रदर्शित करती हैं।            
           इस तरह जब मनुष्य का स्वयं का अपना शरीर उसके साथ पक्षपात करता रहता है तो फिर इस दुनिया से शिकवा-शिकायत क्या करना? यहाँ तो हर कदम पर मनुष्य को पक्षपात के दंश को झेलना पड़ता है। इस पक्षपात का कोई ऐसा विशेष कारण नहीं होता। हर मनुष्य जाने-अनजाने किसी-न-किसी का पक्षपात करता ही रहता है।
         संसार की मानसिकता बड़ी विचित्र होती है। उसे हम नहीं बदल सकते। उसे तो हर समय दूसरों की आलोचना करने का बस अवसर तलाशना होता है। यह इन्सानी स्वभाव है कि उसे सदा दूसरों पर कटाक्ष करना, आलोचना करना, नमक-मिर्च लगाकर निन्दा करना रुचिकर लगता है। पर अपने लिए उसे वह व्यवहार कतई पसन्द नहीं आता। ऐसे लोगों को प्रायः निराशावादी कहा जाता है।
        जीवन में कुछ लोग ऐसे भी मिलते हैं जो दूसरों के प्रति अमानवीय व्यवहार करते हैं। उन्हें पीड़ित करके प्रसन्नता प्रदर्शित करते हैं। सज्जनों की संगति में आकर ऐसे लोग भी पूरी तरह से बदल जाते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग ऐसे भी यहाँ मिल जाते हैं जिनसे मिलकर जिन्दगी में आमूल-चूल परिवर्तन हो जाता है। तब फिर जीवन खुशियों से भर जाता है।
        यदि मनुष्य में संवेदनशीलता का भाव नहीं होता तो वह किसी के सुख-दुख को अनुभव ही नहीं कर सकता। न ही वह किसी के साथ अपनी भावनाएँ साझा नहीं कर सकता। किसी को सान्त्वना नहीं दे सकता था और न ही किसी के साथ अपनी खुशियाँ बाँट सकता।
         सबने यह अनुभव किया होगा कि मनुष्य के दोनों पैर एकसाथ नहीं उठते। उसका एक पैर आगे चलता है और दूसरा उसके पीछे चलता है। फिर भी उनमें यह झगड़ा कभी नहीं होता कि पहले मैं चलूँगा और तुम मेरे पीछे चलना। आगे-पीछे सामञ्जस्य स्थापित करते हुए दोनों पैर चलते हुए मनुष्य को उसके गन्तव्य पर पहुँचा देते हैं।
        इसका यही अर्थ है कि प्रत्येक मनुष्य को दूसरों की भावनाओं का सम्मान सदा ही करना चाहिए। मनुष्य की सहृदयता उसे सबका प्रिय बनाती है अन्यथा उसे सबकी नजरों से उतार देती है। उसे हमेशा स्वयं को कछुए की तरह अपने खोल में समेटकर नहीं रहना चाहिए। उसे सबके सामने अपने गुणों को प्रकट होने देना चाहिए। सद् भावनाओं के कारण ही मनुष्य की अपनी एक अलग पहचान बनती है जो उसे दूसरों की दृष्टि में विशेष बनाती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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