शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

जीव की यात्रा अकेले

जीव को जन्म-जन्मान्तरों की यात्रा अकेले ही तय करनी पड़ती है। सारे सुख और सारे दुख उसे अकेले ही झेलने होते हैं। दूसरा व्यक्ति उससे सहानुभूति रख सकता है, उसकी सेवा-सुश्रुषा कर सकता है, अपने हाथ से उसे खिला सकता है परन्तु उसकी होने वाली शारीरिक अथवा मानसिक किसी भी प्रकार की पीड़ा को साझा नहीं कर सकता।
           सृष्टि का यह नियम है कि जीव इस संसार में जन्म लेता है और अपने कृत कर्मों के अनुसार निश्चित अवधि भोगकर विदा ले लेता है। उसके चले जाने से कुछ भी नहीं बदलता। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड यथावत अपने ढर्रे पर चलता रहता है। वही भोग भोग नहीं पाता जो इस दुनिया से कही दूर चला जाता है। वह अपने भाई-बन्धुओं के मन में केवल एक मीठी याद बन करके रह जाता है।
              दूसरी ओर यह जीव अपना रूप परिवर्तन करके इस संसार में वापिस आ जाता है। कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः जीवों को अपने पिछले जन्म का कुछ भी स्मरण नहीं होता। जिन जीवों का पुराने जन्म की कुछ बातें याद रहती हैं, वे कुछ समय पश्चात उन्हें भूलने लगते हैं। वह वर्तमान जीवन में नए सिरे से अपने जीवन को आरम्भ करता है।
           जीव को नए जीवन में माता-पिता, भाई-बन्धु, पड़ोसी, सहकर्मी आदि अनेक लोगों का साथ मिलता है। उनमें से कुछ उसके साथ कदम मिलाकर चलते हैं और कुछ उसके लिए जी का जंजाल बनते हैं। इन सबसे घिरा हुआ वह अपने जीवन की यात्रा में बढ़ता रहता है। अपने सुखों और दुखों को अपनों से बाँटता है। कभी उन पर डर्व करता है और कभी किसी की गलती पर वह उसे कोसता रहता है।
           मनुष्य अपने बन्धु-बान्धवों से दूर रहकर अकेला रह सकता है। पड़ोसियों और सहकर्मियों से भी किनारा कर सकता है। एक समय में अपने माता-पिता को नौकरी अथवा व्यवसाय के लिए छोड़कर जा सकता है। अपने बच्चों को सैटल करके, उनकी शादी करके उनसे भी दूर रह सकता है।
          यह सब लिखने का यही अभिप्राय है कि मनुष्य अपने सारे परिजनों से दूर होकर रह सकता है। उस समय पति और पत्नी ही एक-दूसरे का आश्रय बनते हैं। दोनों ही आपस में दुख-सुख बाँटते हैं। एक इस रिश्ते के लिए सभी रिश्तों को दाँव पर लगाया जा सकता है। यही इस रिश्ते की विशेषता है जो अन्य सभी रिश्ते-नातों पर भारी पड़ जाता है। इसका कारण है मन से इस सम्बन्ध को निभाने की कामना।
          इस तरह से पति-पत्नी के दो शरीर और एक जान होने पर, दुख-सुख का साथी होने के बावजूद भी जीव अकेला ही होता है। उसका पति अथवा पत्नी उसके होने वाले कष्टों में सान्त्वना दे सकते हैं, उसका हाथ थामकर सहारा बन सकते हैं परन्तु उसे कम नहीं कर सकते। यहाँ भी जीव स्वयं को असहाय ही पाता है और परेशान होता है।
           जीव को तथाकथित अच्छे या बुरे बन्धु-बान्धव अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही मिलते हैं। फिर भी सबके बीच में घिरा हुआ जीव स्वयं को सदा अकेला ही पाता है। जिस भी ऊँचाई से वह देखता है, उसे यही प्रतीत होता है कि कोई उसके साथ नहीं है, वह अकेला ही है।
          जिन परिवारी जनों के लिए वह सब पाप-पुण्य, छल-प्रपञ्च, हर प्रकार की चोरी, भ्रष्टाचारी आदि करता है वे भी उन कर्मों में उसके सहायक नहीं बनते। सभी सुकर्मों और दुष्कर्मों का भुगतान अकेले ही उसे करना पड़ता है।
         ईश्वर जीव को समय-समय पर शुभकर्म करने और दुष्कर्म न करने के लिए चेतावनी देता रहता है। परन्तु उसके साथ जबरदस्ती नहीं करता। उसे यह भी चेताता है कि अब आयु बीतती जा रही है। इसलिए सांसारिक मोह-माया का त्याग करके ईश्वर की ओर उन्मुख हो जाओ।
         अन्ततः अकेले ही इस भौतिक संसार का परित्याग करके उसे चौरासी लाख योनियों के चक्र में भटकने के लिए तब तक जाना पड़ता है जब तक वह मुक्त होकर परमात्मा में लीन न हो जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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