मंगलवार, 15 अगस्त 2017

गुणीजनों का संसर्ग

प्रत्येक मनुष्य जन्म से महान या गुणवान नहीं होता। उसके लिए उन्हें निरन्तर अभ्यास करना पड़ता है। कई प्रकार की परीक्षाओं में भी उन्हें उत्तीर्ण होना होता है। तभी वे योग्य बन करके समाज में अपना एक  महत्त्वपूर्ण स्थान बना पाते हैं। कुछ मुट्ठी भर  ही लोग ऐसे होते हैं जिन्हें हम गॉड गिफ्टेड कहते हैं। ये लोग अपने पूर्वजन्मों के कृत कर्मों के अनुसार ही इस जन्म में विलक्षण मेधा लेकर जन्म लेते हैं। घर-परिवार के सदस्य और बन्धु-बान्धव सभी उन पर गर्व करते हैं। उन्हें अपना सम्बन्धी बताकर फूले नहीं समाते।
        इनके विपरीत कुछ ऐसे लोग भी इस धरा पर जन्म लेते हैं, जो अपने जीवनकाल में कोई विशेष चमत्कार नहीं कर पाते। वे सामान्य-सा जीवन व्यतीत करते हुए इस दुनिया से विदा ले लेते हैं। उनमें से कुछ लोगों का भाग्य यदि अच्छा हो है तो उन्हें ऐसी संगति मिल जाती है, जिससे उनका बेड़ा पर हो जाता है। यानी महापुरुषों के सानिध्य में रहकर वे उसी प्रकार पत्थर से हीरा बनकर मूल्यवान हो जाते हैं जैसे पारस से छू जाने पर लोहा सोना बन जाता है। निम्न श्लोक हमें इसी भाव को समझा रहा है।
          गुणवज्जनसंसर्गात्या ति स्वल्पोऽपि गौरवम् ।
          पुष्पमालानुषङ्गेण   सूत्रं   शिरसि      धार्यते ॥
अर्थात गुणवान् इन्सान के संपर्क में रहकर तुच्छ इन्सान भी गौरव प्राप्त करता है जैसे की फूलों के हार के साथ रहकर धागा भी मस्तक के उपर विराजमान हो जाता है।
          कहने का तात्पर्य यह है कि धागे जैसी मामूली-सी वस्तु का यह सौभाग्य होता है कि फूलों के संसर्ग में आ जाने से वह बहुमूल्य हो जाती है।
        महर्षि वाल्मीकि पहले रत्नाकर डाकू थे और जंगल में आने वाले राहगीरों को लूटा करते थे। ऋषियों की संगति में आकर वे नित्य परायण की जाने वाली रामकथा के रचयिता बने। आज उन्हें बहुत सम्मान से स्मरण किया जाता है।
        अंगुलिमाल डाकू लोगों की अंगुलियाँ काट लेता था। इस कारण अपने इलाके में उसका बहुत खौफ था। महात्मा बुद्ध की शरण में जब वह आ गया तो उनका अनुगामी या शिष्य बनकर शान्ति के पथ पर अग्रसर हो गया।
       इसी बात को आगे बढ़ाते हुए निम्न श्लोक को समझते हैं कि -
          मन्दोऽप्यमन्दतामेति   संसर्गेण    विपश्चितः।
          पङ्कच्छिदः फलस्येव निकषेणाविलं पयः॥
अर्थात बुद्धिमानों के साथ से मन्द व्यक्ति भी बुद्धि प्राप्त कर लेते हैं जैसे रीठे के फल से उपचारित गन्दा पानी भी स्वच्छ हो जाता है।
         इस श्लोक के माध्यम से कवि कहना चाहता है कि पानी को स्वच्छ करने के लिए उसे उबलते समय यदि थोडा-सा रीठा डाल दिया जाए तो पानी में विद्यमान गन्दगी निकल जाती है और पानी स्वच्छ हो जाता है। ऐसे जल पीने से रोग नहीं सताते।
        विद्वानों के संसर्ग में आने से मनुष्य की बुद्धि की जड़ता दूर होने लगती है और मनुष्य में समझ पैदा होने लगती है। धीरे-धीरे अनवरत अभ्यास करने से लगनशील मनुष्य विद्वान भी बन सकता है।
         संस्कृत भाषा के सुप्रसिद्ध कवि कालिदास पहले इतने मूर्ख थे कि उन्हें यह भी नहीं पता था कि जिस टहनी पर बैठकर उसे काट रहे हैं, उसके काटकर गिरते ही वे भी गिर जाएँगे और उन्हें चोट लग जाएगी। बाद में विद्वानों की संगति में रहकर महान बन गए।
        इतिहास के पृष्ठों को खंगालने पर ऐसे और भी कई महानुभावों के उदाहरण हमें मिल जाएँगे, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए दीपक के सामान बने। उन्हें आज भी हम बड़ी श्रद्धा से स्मरण करते हैं। मनुष्य को अपनी कमियों या असफलताओं से कभी हताश और निराश नहीं होना चाहिए। उसे अपने लिए सज्जनों और विद्वानों की खोज निरन्तर करते रहना चाहिए। पता नहीं ऐसा वह कौन-सा पल उसके जीवन में आ जाए जब वह साधारण मानव न रहकर समाज के लिए एक आदर्श बन जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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