शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

मुक्ति की राह

जन्म और मरण के बन्धनों से मुक्त होकर प्रत्येक मनुष्य तथाकथित स्वर्गिक सुखों का भोग करना चाहता है। इसलिए मोक्ष या मुक्ति किस प्रकार सम्भव हो सकती है, इस विषय को लेकर उसके मन में सदा ही जिज्ञासा बनी रहती है। इस विषय पर वह समय-समय पर चर्चाएँ करता रहता है और स्वर्ग के सुखों की कल्पना में खोया रहना चाहता है।
       अब विचार यह करना है कि मोक्ष या मुक्ति है क्या? इसके विषय में जानकारी देते हुए मनीषी कहते हैं कि इस संसार के कहे जाने वाले चौरासी लाख बन्धनों से मुक्त होकर ईश्वर का सानिध्य पा लेना या उसमें एकाकार हो जाना ही मोक्ष या मुक्ति कहलाता है। वह परमपिता परमेश्वर सर्वव्यापक है और सर्वशक्तिमान है। ऐसे उस प्रभु को मनुष्य जीवन में कौन से उपाय करके प्राप्त कर सकते हैं?
         अपने जीवन में कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करके जिसने अतुल्य बल एकत्रित कर लिया हो, वही उस परमब्रह्म परमेश्वर को पा सकने में सामर्थ्य हो सकता है।  व्यक्ति गृहस्थी हो या ब्रह्मचारी, यदि वह महीन-से-महीन स्वर सुनने की क्षमता अर्जित कर लेता हैं तो उसे मोक्ष की प्राप्ति सम्भव हो सकती है। यदि मनुष्य को अपने उद्देश्य की प्राप्ति करना चाहता है तो उसे कृत संकल्प होना ही पड़ता है।
        ईश्वर न ही इतनी आम-सी वस्तु है और न ही मोक्ष प्राप्त करना बच्चों का खेल है कि जिसकी चर्चा आम जन कर सकें। न ही ये दोनों बाजार में बिकने वाले पदार्थ हैं जिन्हें पैसा दे करके खरीदा जा सकता है। मोक्ष की प्राप्ति के इच्छुक मनुष्य को अभ्यास और वैराग्य दोनों को साधना बहुत आवश्यक है। इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य के शरीर में विद्यमान, वायु की गति से भी तीव्रगामी इस चञ्चल मन को नियन्त्रित करने की महती आवश्यकता होती है इसे बारबार संसार के आकर्षणों की ओर से हटाकर ईश्वर की ओर उन्मुख करना पड़ता है।
          केवल वही साधक योगी ही इस मार्ग को समझा सकता है जो वास्तव में मोक्ष की प्राप्ति की राह का राही हो। जो इस कठोर पथ पर चलने का इच्छुक हो और नियमित योग साधना करने का मन बना चुका हो। इस राह पर चलने वाले को संसार के आकर्षणों से विमुख होकर  अपना ध्यान ईश्वर की ओर लगाना होता है। महाराजा जनक जैसे विरले ही मिलते हैं जो राजकार्य करते हुए भी इस राह के पथिक बन सके।
         'पातञ्जलि योगदर्शन' का अध्ययन करके उसे आत्मसात करने से और वहाँ सुझाए उचित मार्ग पर चलने से ही मुक्ति के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं। इस पथ का मार्गदर्शन योग्य गुरु से भी परामर्श करके प्राप्त किया जा सकता है। ऋषि लिखते हैं यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधी अष्टांग योग है। इस मार्ग पर चित्त की वृत्तियों का निरोध करके चला जा सकता है।
         मनीषियों का कथन है कि यदि इस मार्ग के पथिक को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है तो इसका यह अर्थ कदापि नहीँ कि वह जीव सदा के लिए या सृष्टि के अन्तकाल तक के लिए जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त हो गया। साधक को इस मुक्त अवस्था का सुख कुछ सीमित समय के लिए प्राप्त होता है। उसके पश्चात उसे फिर वापिस आकर सांसारिक बन्धनों में बन्धना ही पड़ता है। यानी जन्म और मृत्यु का वही क्रम फिर से प्रारम्भ हो जाता है।
         अन्त में एक और बात स्पष्ट करना चाहती हूँ कि मोक्ष का अर्थ तथाकथित स्वर्ग के सुखों को पाना नहीं है, जहाँ पर अनेक अप्सराओं तथा नानाविध सुखों की परिकल्पना की गई है। मोक्ष उस परमपिता  परमात्मा में एकाकार हो जाना है, जिसका हा सब अंश हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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