शनिवार, 14 सितंबर 2019

ईश्वर का उपहार

ईश्वर की ओर से मनुष्य को अपना जीवन में जीने के लिए बहुत से उपहार मिलते रहते हैं। मनुष्य इतना नासमझ है कि वह  न तो उनको पहचान पाता है और न ही उनकी कद्र कर पाता है। इसीलिए वह सदा परेशान रहता है। जो लोग उन उपहारों को समय रहते समेट लेते हैं, वे दुनिया जहान की खुशियाँ बटोर लेते हैं। इसलिए वे सुखी और प्रसन्न रहते हैं, दूसरों को भी खुशियाँ बाँटते हैं।
         मनुष्य को अपने मन-मस्तिष्क में सामञ्जस्य बनाकर रखना चाहिए। अपने दिमाग को सदा ठण्डा या शान्त ही रखना चाहिए। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उसे अपना दिमाग कदापि गर्म नहीं होने देना चाहिए या अपना माथा गर्म नहीं करना चाहिए। यदि वह अपना दिमाग गर्म रखेगा, तो उसका दुष्परिणाम उसे भुगतना पड़ेगा। इसीलिए मनीषी मनुष्य को समझाते हैं कि इस क्रोध रूपी शत्रु वश में करो, उसे अपने ऊपर कभी हावी न होने दो।
         क्रोध आने की स्थिति में मनुष्य कोई सकारात्मक कार्य नहीं कर सकता। उस समय उसकी सोच नकारात्मक हो जाती है। क्रोध उसके सारे बनते हुए कार्य बिगाड़ देता है। उस समय वह जो भी निर्णय लेता है, उसमें मुँह की खाता है। तभी सभी शास्त्र समझाते हैं कि मनुष्य क्रोध में अन्धा हो जाता है या विवेक शून्य हो जाता है। इसीलिए यह दुष्ट क्रोध मनुष्य के कार्य बिगाड़ता हुआ उसका विनाश करने लगता है।
         उस समय मनुष्य अच्छे और बुरे की पहचान करना भूल जाता है। तब वह मानने लगता है कि उसकी कही गई हर बात पत्थर की लकीर है। चाहे घर हो या बाहर, वह कभी किसी के द्वारा किया गया अपना विरोध सहन नहीं कर सकता। जो भी उसकी कही बात को नहीं मानता, वह इसे जहर की तरह लगता है यानी अपना शत्रु प्रतीत होता है। उसका बस चले तो वह न तो कभी उससे बात करे और न ही उससे कभी कोई सम्पर्क रखे।
         मनुष्य को सबके साथ सदा ही मधुरता का व्यवहार करना चाहिए। अपनी जबान से कभी कठोर शब्द नहीं बोलने चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो उसे अपनी जुबान में एक शुगर फेक्टरी लगा लेनी चाहिए। तब उसकी जुबान कभी क्रोध में आकर कड़वा नहीं बोलेगी और न ही किसी का दिल दुखा सकेगी। क्रोध के समय मनुष्य अपने विवेक खो देता है और अपने मित्रों को भी शत्रु बन लेता है। दूसरी ओर मीठा बोलकर वह शत्रु को भी अपना मित्र बना लेता है।
            मनुष्य जब अपने मन में प्यार का बीज बो दे देता है, तो वह सभी लोगों को अपने मधुर व्यवहार से वश में कर लेता है। उसके मित्र, उसके साथियों की संख्या बढ़ने लगती है। चारों ओर उसका यश फैलने लगता है। यही वह गुण है, जो उसे ईश्वर का भी प्रिय बना देता है। उस मालिक का जो भी व्यक्ति प्रिय बन जाता है, वह हर समय अलग तरह की मस्ती में रहता है। फिर वह सबका मार्गदर्शक बन जाता है।
          जब मनुष्य ईश्वर के समीप हो जाता है, तब उसे किसी भी सांसारिक साथी की आवश्यकता नहीं रह जाती। ऐसा मनुष्य अपने सभी कार्यों को ईश्वर को ही समर्पित करता रहता है। उसे अपने जीवन में कभी असन्तोष नहीं रहता। प्रभु की कृपा उस पर बनी रहती। वह भविष्य में आने वाले कष्टों को हँसते-हँसते सहन कर लेता है। ईश्वर स्वयं उसकी सहायता करने के लिए किसी न किसी माध्यम से हर समय उसके साथ रहता है।
          इस प्रकार ईश्वर का प्रिय वह व्यक्ति अपनी झोली उसकी नेमतों से भर लेता है। उन उपहारों की बदौलत उसके जीवन में कोई कमी नहीं रहती। वह अपना सारा जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करके इस संसार से शान्त मन से विदा लेता है। उस मनुष्य के इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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