शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

ईश्वर से दूरी

जितना हम ईश्वर से दूर होते चले जाते हैं, उतना ही कष्ट उठाते हैं। उसके पास जाने से मनुष्य उस मालिक का प्रिय बन जाता है। संसार में भी प्रायः ऐसा होता है कि जिस रिश्ते-नाते के हम अधिक पास रहते हैं, उनसे हमारा प्यार प्रगाढ़ होता है। कितने भी सगे रिश्ते क्यों न हो, यदि उनसे दूरी बनाकर रखी जाती है, तो वहाँ आत्मीयता कम हो जाती है। इस प्रकार दूरी रिश्तों में भी दिखाई पड़ती है और समीपता भी देखने को मिलती है।
          हम सभी लोग कभी-न-कभी बस में यात्रा करते हैं। कभी यह यात्रा कम दूरी की है और कभी दूर जाता होता है। बस की सबसे पीछे वाली सीट पर जो लोग बैठते हैं, उन्हें अपेक्षाकृत अधिक झटके लगते हैं। बस में आगे बैठने वालों को उन झटकों का बिल्कुल पता ही नहीं चलता। अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि इस विपका विपरीत अवस्था का कारण क्या है?
            अब बस जब एक है, तो फिर उसका चालक भी सब सवारियों के लिए एक ही होगा। उस बस की गति भी सबके लिए एकसमान ही होती है। हम कह सकते हैं कि जब बस चलेगी तो धक्के पीछे की ओर अधिक लगते हैं या गाड़ी के उछलने का प्रभाव पीछे की सीट पर बैठे लोगों पर अधिक होता है। इस तरह बस के चालक से सवारियों की जितनी अधिक दूरी होगी, उतने ही यात्रा में उन्हें अधिक धक्के सहन करने पड़ेंगे।
         यह संसार एक गाड़ी की तरह ही है। हम मनुष्य इसमें सवार यात्री हैं। इस गाड़ी को चलाने वाला यानी चालक परमपिता परमात्मा है। मनुष्य अपने जीवन के सफर में मानो एक गाड़ी में बैठा हुआ है। जीवन की गाड़ी के चालक परमेश्वर से उसकी दूरी जितनी अधिक होगी, उसे अपनी जिन्दगी में उतने ही अधिक झटके खाने पड़ते हैं। कहने का तात्पर्य मात्र यह है कि ईश्वर के समीप रहने वालों को भी दुख और कष्ट आते अवश्य हैं। परन्तु उनका ईश्वर पर अटूट विश्वास होता है, इसलिए उन्हें ये कष्ट आहत नहीं कर पाते।
         गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे लोगों को द्वन्द्व सहन करने वाला समदर्शी कहा है। इसके विपरीत उस ईश्वर से दूरी बनाकर रखने वाले छोटे से कष्ट के आने पर रोने-चिल्लाने लगते हैं। यहाँ एक उदाहरण लेते हैं। बिजली का कार्य करने में दक्ष व्यक्ति जब किसी उपकरण को ठीक करता है, तो उसे बिजली के छोटे-मोटे झटके लगते रहते हैं। वह उनकी परवाह ही नहीं करता। पर जो इस कला में पारंगत नहीं है अथवा इससे दूर है, तो उसे बिजली का जरा-सा भी झटका सहन नहीं होगा। वह एकदम चिल्लाने लगेगा।
             मनुष्य को अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय निकालकर अपने आराध्य के समीप बैठना चाहिए और उससे अपने मन की बात साझा करनी चाहिए। जो भी शिकवा-शिकायत हो, उसे अपने मालिक से करनी चाहिए, दुनिया से नहीं। इस प्रकार प्रभु के समीप जाने से एक अप्रत्याशित-सा चमत्कार मनुष्य अनुभव करता है। उसमें एक नई प्रकार की ऊर्जा आने लगती है। उसे आत्मिक और मानसिक बल मिलता है
तब उसे छोटे-मोटे सांसारिक झटकों से कोई अन्तर नहीं पड़ता। न ही वह इनसे घबराकर रोता-चिल्लाता है। वह केवल अपनी ही मस्ती में रहता है।
           दुनिया के मित्रों से हम बहुत कुछ देते लेते हैं, परन्तु परमात्मा ऐसा मित्र हैं जो कुछ लेता नहीं, बस देता है रहता है। उसके लिए केवल एक ही शर्त होती है कि मन से, श्रद्धा से  उसका स्मरण करना। मनुष्य को ऐसे अच्छे और सच्चे साथी का हाथ सदा थामे रखना चाहिए। उससे विमुख होने के विषय में मनुष्य को कदापि सोचना ही नहीं चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whep

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें