सोमवार, 23 सितंबर 2019

बेटी को ससुराल का डर

बेटी को ससुराल का डर

बेटी जब होश सम्हालती है, तभी से उसे घर-परिवार के लोग बात-बात पर ससुराल का डर दिखाने लगते हैं और ताने देते हैं। वे उसे कहते हैं कि ससुराल में देर से सोकर उठोगी तो सास ताना मारेगी। मायके में यदि काम नहीं किया तो कोई बात नही, माँ बरदाश्त कर लेगी पर सास नहीं करेगी। ज्यादा जबान माँ के घर ही चल सकती है, ससुराल में जबान लड़ाने पर सास घर से बाहर निकल देगी।
            बेटी के उठने-बैठने की शालीनता, सोने-जागने के समय, वस्त्र पहनने के विषय में, मित्रों के साथ घूमने जाने पर, जोर से हँसने आदि न जाने कितनी ही बातों को लेकर हर बेटी को माता, पिता, भाई और घर के बड़े-बुजुर्ग सब ससुराल का भय दिखाकर भयभीत करते रहते है। यह एक विडम्बना है कि बेटी बचपन से ही सदा खौफ के साये में जीने के लिए विवश हो जाती है।
           बालपन से ही उसके मन में एक प्रकर का अनजाना भय समा जाता है। ससुराल को लेकर उसके मन में तक ग्रन्थि सी बन जाती है। उसे समझ नहीं आता कि ससुराल क्या इतना डरावना स्थान होता है। सास, ससुर, देवर, ज्येष्ठ और ननद सब भूत-प्रेतों की तरह भयभीत करते रहते हैं। वहाँ कभी सुकून नहीं मिल पाता। ससुराल में सभी लोग शायद लाठी लेकर बैठे रहते हैं कि बहू जरा-सी गलती करे तो सही और उसकी खैर नहीं।
           एक युवा लड़की अपनी आँखों में भविष्य के सपने सजाकर अपने ससुराल में प्रवेश करती है। यदि इस तरह उसके मन के किसी कोने में संदेह का बीज हर समय पनपता रहेगा, तो उसे ससुराल वालों के सद व्यवहार पर भी शक होगा। उसे उनके साथ सामञ्जस्य बिठाने में बहुत कठिनाई होगी। उसे उनके प्यार-दुलार, ममत्व को समझने में बहुत समय लगेगा।
           ससुराल में खाना बनाना अथवा घर की साज-सज्जा आदि कोई भी काम करेगी तो डरती रहेगी कि पता नहीं घर के लोगों की इस पर प्रतिक्रिया क्या होगी? इस तरह काम के आते होने पर भी उस बेचारी से कहीं-न-कहीं भूल-चूक हो जाने की सम्भावना बनी रहती है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह काम भी करे और बुरी भी बने। सब की नजरों में वह एक नालायक और फूहड़ बहू बनकर रह जाती है।
           इस तरह माँ-पापा की उस सयानी बेटी का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है। इसका परिणाम यह होता है कि न चाहते हुए भी उससे हर काम में गलती हो जाती है। इस स्थिति में उसे हर समय ससुराल से ताने सुनने को मिलते हैं। बहुत से लोग ऐसे भी है, जो उसके माता-पिता को भी दोष देने लगते हैं। इन सबको सुनकर वह अपने मन-ही-मन रोती है। ससुराल में उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं होता।
          में हर बेटी के माता-पिता से यही अनुरोध करना चाहती हूँ कि वे अपनी बेटी को बचपन से ही ससुराल का हौव्वा न दिखाएँ। बेटी को स्वस्थ माहौल में पलने और बढ़ने दें। उसे उच्च शिक्षा दिलाएँ, उसका मनोबल बढ़ाएँ। यदि उससे जाने या अनजाने कोई गलती हो भी जाए, तो उसे डाँट-डपट करने या दोष देने के स्थान पर सदा प्यार से समझ दें, ताकि वह भविष्य के लिए चौकन्नी हो सके।
           अपनी नाजों से पाली हुई बेटी के सुखद और स्वर्णिम भविष्य के लिए उसका मार्गदर्शन कीजिए। जब बेटी अपने ससुराल जाए तो वह किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित न हो। वह बहुत प्रसन्न मन से अपने ससुराल की दहलीज पर अपना कदम रखे। वहाँ के सभी रिश्तों से डरने के स्थान पर उन्हें खुले मन से स्वीकार करे। इससे उसके किसी कार्य में गलती होने की सम्भावना भी कम होती है।
           ससुराल पक्ष को भी चाहिए कि बहू को अपनी बेटी की तरह मानें। उससे कोई गलती या भूल-चूक हो भी जाए, तो उसका तिरस्कार करने के स्थान पर उसे प्यार से समझाएँ। अपनी अरमानों से लाई गई बहू को आज मान-सम्मान और प्यार दोगे, तभी बदले में उससे इस सबकी अपेक्षा कर सकोगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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